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समाजकारण /राजकारण

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राम राघोबा राणे


 

          *राम राघोबा राणे*

(परमवीर चक्र से सन्मानीत भारतीय सेना अधिकारी)


    *जन्म : 26 जून 1918*

  (चेंडिया, कारवार, कर्नाटक)

*देहांत : 11 जुलाई 1994                                                               (कारवार, कर्नाटक) (उम्र 76)*            

निष्ठा : भारत 

सेवा/शाखा :  भारतीय थल सेना

सेवा वर्ष : 1947–1968

उपाधि : 2nd Lieutenant Indian Army सेकेंड लेफ्टिनेंट, बाद में Major of the Indian Army मेजर

सेवा संख्यांक : IC-7244

दस्ता : बाम्बे सैपर्स

युद्ध/झड़पें : भारत-पाकिस्तान युद्ध 1947

सम्मान :  परमवीर चक्र                                                            👮‍♂️ *सैन्य व्यक्तित्व परिचय*  

सैनिक के जीवन में शौर्य, बलिदान, शहादत, वीरगति जैसे शब्दों की गरिमा इतनी पवित्र है, कि जिन्हें वो शायद कोई मौका ना हो, जब उनका उच्चारण ना करता हो। क्योंकि देश की पूर्ण सुरक्षा का जिम्मा एक सैनिक ने हमेशा बखूबी से निभा कर, देश की भावी पीढिय़ों को यह संदेश देने का अथक प्रयास किया, ताकि हिन्दोस्तान की सर जमीं, हमेशा वीरों की भूमि जानी जाये। 


 उत्कृष्ट योद्धा बनने के लिए, व्यक्ति को कठिन परिश्रम के साथ-साथ, उक्त व्यक्ति के पूर्वजों द्वारा प्रदत्त राष्ट्रवाद, राष्ट्रभक्ति, स्वदेश प्रेम, अपने कर्तव्य पर अडिग रहने की भावना जैसे संस्कारों को भी अपने चरित्र में शोभायमान करना पड़ता है। ताकि भावी पीढिय़ां, उनके चरित्र पर कोई भी संदेह उत्पन्न न करे। जिससे उनके शौर्य बल, स्वाभिमान को कलंकित होने से बचाया जा सके। यह ही एक वीर योद्धा का सर्वोत्तम गहना होता है। जिसे वह सहज कर अपनी अंतिम श्वास तक रखना चाहता हैं। 


 देश के वीर योद्धाओं ने सदैव ही देश सेवा को सर्वोपरि समझा और मुश्किल हालातों में भी अपने कर्तव्य पर अटल रहते हुए, ऐसे सैनिकों ने सर्वोच्च पुरस्कार प्राप्त कर,यह साबित कर दिया कि यदि आत्मा में पवित्रता, सच्ची देश भक्ति हो, तो कठिन से भी कठिन लक्ष्य  को भी आसानी से   भेदा जा सकता है।  जी हां श्री मान पाठक महोदय, लेखक ऐसे ही सैन्य व्यक्तित्व की जीवन गाथा पर चर्चा करने जा रहा है, जिन्होंने अपने साहस से यह सिद्ध कर दिखाया, यदि हृदय में उत्कृष्ट जज्बा, लग्न शीलता, देश के प्रति समर्पण की भावना, हो तो कठिन परिस्थितियों में भी दुश्मन के दांत खट्टे कियेे जा सकते हैं। श्री राम रघोबार राणे भी एक ऐसी शख्सियत है, जिन्होंने अपनी कुशल रणनीति के माध्यम से देश के शीश को और ऊंचा कर दिया। 


💁🏻‍♂️ *प्रारंभिक जीवन परिचय* 

                 श्री राणे (सै. क्र.संख्या आईसी-7244) का जन्म 26 जून 1918 को कर्नाटक राज्य के कारवार जिला, गांव हावेरी में हुआ। जिनके पिता का नाम राघोबा पी राणे था। जो कि उक्त राज्य पुलिस में सिपाही के पद पर तैनात थे। पिता की नौकरी निश्चित स्थान पर न  होने के कारण, श्री राणे की शिक्षा ने एक घुमक्कड़ शिक्षा का रूप ले लिया था। 

    सन 1930 में गांधी जी द्वारा चलाये जा रहे, असहयोग आन्दोलन से, श्री राणे काफी प्रभावित हुये। जिसके चलते  उन्होंने उक्त आंदोलन में अपनी सहभागिता आत्मीयता के साथ अदा की। बेटे ने अपने उत्साह से, पिता को ऐसी चिंता की अग्नि में झोंक दिया, जिन्हें तत्काल ही अपने पैतृक गांव चेंडिया को प्रस्थान करना पड़ा, क्योंकि वो ब्रिटिश मुलाजिम जो ठहरे। 1940 में दूसरा विश्व युद्ध जोरों पर था। देश की प्रति कुछ कर, गुजरने की इच्छा से राम राघोबा ने भारतीय सेना में भर्ती होने का विचार सुदृढ़ बना लिया था।  22 वर्ष की आयु में  (10 जुलाई 1940) श्री राणे, ब्रिटिश भारतीय सेना में  बॉम्बे इंजीनियर्स रेजीमेंट में भर्ती हो गये। 


गौरव गाथा:-

♨️ *प्रथम परिदृश्य स्थिति*

  श्री राणे को 26 वीं इन्फैंट्री डिवीजन की इंजीनियरिंग यूनिट के 28वीं  फील्ड कंपनी में तैनात किया गया। जो उस दौरान बर्मा बार्डर पर जापानियों से अपना लोहा मनवा रही थी। उस समय श्री राणे को अपने रण कौशल दिखाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 

  बार्डर पर जापानी सेना द्वारा लगातार हवाई हमले किये जा रहे थे। श्री राणे ने अपने रण कौशल क्षमता व  अदम्य साहस  को, जापानियों का एक प्लेन व एक डम्पर को  नेस्तानाबूत करके,  सिद्ध कर दिया।  

🔹 *सैन्य व्यक्तित्व, पदोन्नत व संर्घष*

                      श्री राणे की कुशल रणनीति व सटीक निर्णय क्षमता से अंग्र्रेजी अफसर इतने प्रभावित हुये कि, श्री राणे को उच्च ओहदे पर आसीन करने के लिए , अपने उच्च ऑफिसरों को उनकी जेसीओ ट्रेनिंग के लिए सिफारिश करने लगे।  फिर क्या था, अथक प्रयासों के बाद उन्हें  जूनियर कमीशन ऑफिसर बना दिया गया। कमीशन पाकर वे पुन: अपनी ड्यूटी पर लौटे। क्योंकि वह एक सिपाही के ओहदे से जेसीओ की पोस्ट पर पहुंचे थे। 

 तो कुछ सीनियर अफसरों का उनके व्यक्तित्व से घृणा करना स्वाभाविक था। जिसकी वजह से उन्हें गहरा दुख हुआ। जिस कारण  उन्होंने अतिरिक्त पाठ्यक्रम अध्ययन हेतु, उच्च अधिकारियों से अर्जी लगा दी। उनकी अर्जी को, शीघ्र ही कबूल कर लिया गया। उन्होंने प्रशिक्षण के दौरान  एडवांस्ड इंजीनियरिंग के द्वारा माइंस क्षेत्र में भी असीम सफलता हासिल की।

श्री राणे पुन: अपनी कंपनी में एक बार, फिर वापस लौट आए।

🔸 *द्वित्तीय परिदृश्य स्थिति*

               अगस्त  1947 बंटवारे का दर्द हिंदोस्तान अभी तक पूर्ण: भूला नहीं पाया था, कि 18 मार्च 1948 को हमारी सेना ने फिर से झंगर पर अपना कब्जा तो पा लिया।  लेकिन इसी दौरान पाकिस्तानी सेना ने अपने चरित्र हीनता को, पीछे हटते हुए राजौरी और पूँछ के बीच के नेशनल हाइवे को नष्ट कर, सिद्ध कर दिया। रास्ता ना होने के कारण मेजर आत्म सिंह की सैन्य टुकड़ी ने नौशहरा से होकर राजौरी पहुंचने की कोशिश की लेकिन रास्ता ध्वस्त होने के कारण सफलता नहीं मिली।

  डोगरा रेजिमेंट की टुकड़ी ने 8 अप्रैल 1948 को राजौरी में बरवाली रिज पर हमला कर और दुश्मनों को और पीछे हटा दिया। यह जगह नौशहरा से 11 किलो मीटर के फासले पर स्थित थी। परन्तु बरवाली से आगे खराब रोड़ का फायदा उठाते हुये पाकिस्तानी सेना ने बारूदी सुरंग रास्ते में ही बिछा दी थी, ताकि भारतीय सेना के वाहन आगेे बढऩे में सफल ना हो।                                                   ♦️ *व्यक्तित्व का रण कौशल*

ऐसे मुश्किल हालात में लेफ्टिनेंट रमा राघोबा राणे और उनकी 37 असॉल्ट फील्ड कंपनी व डोगरा रेजिमेंट की सैन्य टुकड़ी ने 8 अप्रैल को माइन  फील्डस (बारूदी सुरंग) को हटाने का कार्य युद्ध स्तर पर आरंभ कर दिया। क्योंकि सेना के समक्ष, नदी पार करना व माइंस को खत्म करना, एक बड़ी चुनौती थी।

  सैन्य इंजीनियर्स टुकड़ी का मुख्य कार्य है, कि व सेना के लिए रास्ते को सुगम बनाये। श्री राणे भी अपने कर्तव्य को अंजाम देते हुये सेना को लगातार आगेे बढ़ा रहे थे। 

 अचानक ही रास्ते में, दुश्मन ने भारतीय सेना पर भारी बमबारी करना शुरू कर दी। किंतु श्री राणे ने अपने सुदृढ़ धैर्य को सिद्ध कर, साथियों का साहस बढ़ाते हुए, नदी का पुल बनाने में सफलता हासिल कर ली थी। कंपनी कमांडर भी, श्री राणे की सराहना करते हुये, अपने दस्ते को लेकर आगेे बढ़े। लेकिन लक्ष्य अभी भी अभेद व कठिन था, जितना सरल कंपनी कमांडर ने सोचा था उससे कहीं ज्यादा...   आगेे के समस्त रास्ते पर दुश्मन ने माइंस बिछा रखी थी और पूरे क्षेत्र को अपनी मशीन गन से कवर कर लिया था। माइंस फील्ड  क्लियर किए बिना, टैंकों का आगे जाना नामुमकिन था।  अगर कोई सिपाही माइंस क्लियर कर आगेे जाता तो, दुश्मन की गोलियों का शिकार हो जाता। 

🧰 *कुशल नेतृत्व व अभियंता*

                        सैनिकों को भाग्य की उक्त विडम्बना ने दोहरे मोड़ पर खड़ा कर दिया, जिसका हल मात्र श्री राणे जी, के पास था। उधर कंपनी कमांडर को आगे बढऩे की चिंता प्रतिक्षण सताने लगी। श्री राणे ने कमांडर साहब को एक युक्ति सुझाई, जो कारगर होने के साथ-साथ जोखिम भरी भी थी। लेकिन श्री राणे का उत्साह हमेशा बुलंद रहता था, कि मानो जोखिम भरी चुनौतियां से उन्हें मित्रता सी हो गई हो। हालतो को देखते हुये, उन्होंने श्री मान कमांडर को अपने लीडिंग टैंक से कवर फायर देने की गुजारिश की, और स्वयं टैंक के नीचे लेट कर माइंस को क्लियर करने का सुझाव दिया। कंपनी कमांडर असमंजस में थे, कि, आखिर श्री राणे टैंक ड्राइवर के साथ अपना समन्वय  कैसे स्थापित करेंगे?।

  कमांडर की उक्त समस्या निवारण हेतु, श्री राणे ने कंपनी कमांडर से कहा कि, वह दो रस्सियों के सहारे ड्राइवर को लगातार सूचित करते रहेंगेे। उन्होंने कहा जब वह दायीं रस्सी खींचेंगे, तो ड्राइवर चलेगा लेकिन जब वह बायीं रस्सी खींचेंगे तो ड्राइवर टैंक को रोक देगा। कंपनी कमांडर ने श्री राणे से कहा,.. अगर तुम्हारा उत्साह बुलंदियों पर है, तो मैं पूर्ण: रूप से तुम्हारे साथ दूंगा। क्योंकि उक्त कार्य बड़े ही जोखिमों से लबरेज था। किसी भी व्यक्ति की जरा सी भूल, श्री राणे को शहादत प्रदान कर सकती थी।  कंपनी कमांडर ने टैंक ड्राइवर को पूरी तरह से सावधानी बरतने की हिदायत दी, और श्री राणे को ऐसे साहसिक सोच को, लक्ष्य तक पहुंचाने की अनुमति प्रदान कर दी। फिर क्या था? श्री राणे टैंक के नीचे घुस गए, ओर टैंक ड्राइवर के साथ लग्न से तालमेल बैठाते हुए माइंस फील्ड को क्लियर करने में लग गए। उक्त कार्य बहुत कठिन था, मगर श्री राणे के बुलंद हौसले के आगे बहुत ही छोटा। उन्होंने ना केवल माइंस फील्ड क्लियर की, बल्कि दुश्मनों के द्वारा कई ब्लॉक रोड़स को भी बम से उड़ा दिया। जब वह एक ब्लॉक रोड़ को उड़ा रहे थे, तभी दुश्मन की  एक गोली उनके पैरों में आ लगी और वह बुरी तरह से घायल हो गए। बुरी तरह से जख्मी होने के बावजूद भी वह अपने सैन्य फर्ज को अंजाम देते रहे, और लगातार 72 घंटे  बिना सोए व खाए, अपने फौजी भाइयों के लिए विजय पथ का निर्माण करते रहे। उन्हें, 25 जून 1968 को, उन्हें स सम्मान सेवानिवृत्त कर दिया गया।

 तत्पश्चात, श्री राणे को भारतीय सेना के नागरिक कर्मचारी सदस्य के रूप में, रोजगार विभाग में नियुक्त किया गया। जहां उन्होंने अपनी सेवा 7 अप्रैल 1971 तक पूर्ण कर सैन्य सेवा से, मुक्ती पा ली।

🗽 *व्यक्तित्व सम्मान*

                          जब उन्होंने बेस्ट रिक्रूट को पास किया, तब श्री राणे को कमांडेंट, गन्न से सम्मानित किया गया।

21 अप्रैल 1948, को श्री राणे को सैन्य निपुर्णता के चलते, उन्हें परमवीर चक्र पुरस्कार  हेतु, राजपत्रित किया गया। तदोपरांत, श्री राणे को 15 दिसंबर 1949 को लेफ्टिनेंट पद पर पदोन्नत कर दिया गया।  

देश के इस वीर योद्धा को उच्च सम्मान देने के लिए, श्री राणा की प्रतिमा परम योद्धा स्टाल, राष्ट्रीय युद्ध स्मारक , नई दिल्ली में जहाजरानी मंत्रालय के तत्वावधान में भारत सरकार के उपक्रम शिपिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया  ने परमवीर चक्र प्राप्त कर्ताओं के सम्मान में कच्चे तेल  टैंकरों को उनका भी नाम दिया। 

7 नवंबर 2006 को एक समारोह के दौरान, उनकी मूर्ति का अनावरण, उनके गृह जिला करवार में, आईएनएस चैपाल युद्धपोत संग्र्रहालय में, किया गया।

सूझबूझ के धनी, श्री राणे ने  दिनांक 11 जुलाई 1994 को पुणे के सैन्य अस्पताल में  अपनी सांसारिक यात्रा पूर्ण कर , अपना नाम  भारत के सैन्य इतिहास में, स्वर्णिम अक्षरों में अंकित करा दिया। जो कि हमेशा, वास्तव में देश की भावी युवा पीढिय़ों के लिए, एक अहम प्रेरणा स्रोत बन गये।  

         *जयहिंद* 

       

सरदार बलदेव सिलल


    

             सरदार बलदेव सिलल


 (भारतीय स्वतंत्रता सेनानी तथा राजनेता)

  या        *जन्म : 11 जुलाई, 1902*

(दुम्मना गाँव, रोपड़ ज़िला (अब रूपनगर ज़िला), पंजाब)

          *मृत्यु : 29 जून, 1961*

          (मृत्यु स्थान : दिल्ली)

पिता : इंदर सिंह

नागरिकता : भारतीय

पार्टी : भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, शिरोमणि अकाली दल, अकाली दल

पद : प्रथम रक्षा मंत्री

                  सरदार बलदेव सिंह भारत के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी, राजनीतिज्ञ एवं प्रथम रक्षामंत्री थे। वे उत्तर प्रदेश की चौथी विधानसभा सभा में विधायक रहे। 1967 में उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में उन्होंने उत्तर प्रदेश के गोंडा ज़िले के 15, गैंसरी विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र से अ. भा. जनसंघ की ओर से चुनाव में भाग लिया था।

💁🏻‍♂️ *जीवन परिचय*

सरदार बलदेव सिंह का जन्म 11 जुलाई, 1902 को एक जाट-सिख परिवार में पंजाब के रोपड़ ज़िले के दुम्मना नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम इंदर सिंह था, जिन्होंने अपने जीवन की शुरुआत एक सरकारी कर्मचारी के रूप में की थी, लेकिन बाद में वे ठेकेदार बन गये। बलदेव सिंह ने अपनी शिक्षा अम्बाला में पूरी करके खालसा कॉलेज, अमृतसर में अपने पिताजी के साथ कार्य किया। 1930 में पंजाब लौटने पर सरदार बलदेव सिंह ने राजनीति में प्रवेश किया।

🪔 *निधन*

सरदार बलदेव सिंह का निधन 29 जून, 1961 को दिल्ली में हो गया।                                                                                                                        

         

साहित्यरत्न लोकशाहीर अण्णाभाऊ साठे


         *साहित्यरत्न लोकशाहीर*   

              *अण्णाभाऊ साठे*


*जन्म :  १ ऑगस्ट, १९२०*

            (वाटेगाव, ता. वाळवा,

                           जि. सांगली) 

*मृत्यू :  १८ जुलै, १९६९*

             ( गोरेगाव, मुंबई )


जन्म नाव :  तुकाराम भाऊराव 

                   साठे

टोपणनाव :   अण्णाभाऊ साठे

शिक्षण : अशिक्षित

राष्ट्रीयत्व : भारतीय 

कार्यक्षेत्र : लेखक, साहित्यिक

भाषा : मराठी

साहित्य प्रकार : शाहिर, कथा,    

                       कादंबरीकार

चळवळ : संयुक्त महाराष्ट्र चळवळ

प्रसिद्ध साहित्यकृती : फकिरा

प्रभाव : बाबासाहेब आंबेडकर, 

            कार्ल मार्क्स

वडील :  भाऊराव साठे

आई : वालुबाई साठे

पत्नी : कोंडाबाई साठे,

           जयवंता साठे

अपत्ये : मधुकर, शांता आणि      

             शकुंतला


            तुकाराम भाऊराव साठे हे अण्णाभाऊ साठे म्हणून ओळखले जाणारे एक मराठी समाजसुधारक,  लोककवी आणि लेखक होते. साठे एका अस्पृश्य मांग समाजामध्ये जन्मलेले एक दलित व्यक्ती होते, त्यांची उपज आणि ओळख त्यांचे लेखन आणि राजकीय कृतीशीलतेचे केंद्रबिंदू होते.

       कथा, कादंबरी, लोकनाट्य, नाटक, पटकथा, लावणी, पोवाडे, प्रवासवर्णन अशा वेगवेगळ्या साहित्यप्रकारांतील लेखन केलेले ख्यातनाम मराठी साहित्यिक. ब्रिटिशराज्यकर्त्यांनी ‘गुन्हेगार’ म्हणून शिक्का मारलेल्या एका जमातीत त्यांचा जन्म झाला. त्यांच्या वडिलांचे नाव भाऊ सिधोजी साठे, तर आईचे नाव वालबाई होते. त्यांचे मूळ नाव तुकाराम. जन्मस्थळ वाटेगाव (ता.वाळवा; जि. सांगली ). त्यांचे शालेय शिक्षण झालेले नव्हते; तथापि त्यांनी प्रयत्नपूर्वक अक्षरज्ञान मिळविले. १९३२ साली वडिलांसोबत ते मुंबईला आले. चरितार्थासाठी कोळसे वेचणे, फेरीवाल्यांच्या पाठीशी गाठोडे घेऊन हिंडणे, मुंबईच्या मोरबाग गिरणीत झाडूवाला म्हणून नोकरी, अशी मिळतील ती कामे त्यांनी केली. मुंबईत कामगारांचे कष्टमय, दुःखाचे जीवन त्यांनी पाहिले. त्यांचे संप, मोर्चे पाहून त्यांचा लढाऊपणाही त्यांनी अनुभवला. १९३६ मध्ये भारतीय कम्युनिस्ट पक्षाचे नेते कॉ. श्रीपाद अमृत डांगे यांच्या प्रभावाखाली आल्यावर ते कम्युनिस्ट पक्षाचे क्रियाशील कार्यकर्ते झाले.

        मुंबईत डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांपासून स्वातंत्र्यवीर सावरकरांपर्यंत अनेक नेत्यांची भाषणे त्यांनी ऐकली. पक्षाचे कामही ते करीत होतेच; तथापि वडिलांच्या निधनानंतर कुटुंबाची सगळी जबाबदारी अंगावर,  पडल्याने ते पुन्हा आपल्या गावी आले. तेथे बापू साठे या चुलतभावाच्या तमाशाच्या फडात ते काम करू लागले. पुढे १९४२ च्या चळवळीत सहभागी झाल्यामुळे ब्रिटिश सरकारने त्यांच्यावर पकडवॉरंट काढले. पोलिसांना चुकवीत ते मुंबईला आले. मुंबईत लोकशाहीर म्हणून त्यांचा लौकिक झाला. त्यावेळी अमर शेख या ख्यातनाम मराठी लोकशाहीरांबरोबर अण्णाभाऊंचेही नाव लोकशाहीर म्हणून गाजू लागले. त्यांनी लिहिलेला ‘स्तालिनग्राडचा पवाडा’ १९४३ साली पार्टी या मासिकात प्रसिद्घ झाला. त्यांनी १९४४ साली शाहीर अमर शेख व गव्हाणकर यांच्या मदतीने ‘लाल बावटा’ कलापथक स्थापन केले. या कलापथकावर सरकारने बंदी घातली. ‘अमळनेरचे अमर हुतात्मे’ आणि ‘पंजाब-दिल्लीचा दंगा’ या त्यांच्या काव्यरचना १९४७ साली प्रसिद्घ झाल्या. ‘पंजाब-दिल्लीचा दंगा’ या रचनेत सर्व प्रागतिक शक्तींना एकत्र येऊन शांतता प्रस्थापित करण्याचे आवाहन त्यांनी केले होते.

         संयुक्त महाराष्ट्राच्या चळवळीत त्यांनी स्वतःला झोकून दिले होते. त्यांच्या शाहिरीत लावणी, पोवाडे, गीते, लोकनाटये आदींचा समावेश होता. ‘महाराष्ट्राची परंपरा’ (१९५०) ह्या नावाने त्यांनी या चळवळीसाठी पोवाडा लिहिला;  त्याचप्रमाणे मुंबई कुणाची ?  ह्या लोकनाट्याचे महाराष्ट्रभर प्रयोग केले. अकलेची गोष्ट (१९४५), देशभक्त घोटाळे (१९४६), शेटजींचे इलेक्शन (१९४६), बेकायदेशीर (१९४७), पुढारी मिळाला (१९५२), लोकमंत्र्यांचा दौरा (१९५२) ही त्यांची अन्य काही लोकनाटये. अण्णाभाऊंनी पारंपरिक तमाशाला आधुनिक लोकनाट्याचे रूप दिले.

           अण्णाभाऊंच्या साहित्यात त्यांची कथा-कादंबरीची निर्मितीही ठळकपणे नजरेत भरते. जिवंत काडतूस, आबी, खुळंवाडी, बरबाद्याकंजारी (१९६०), चिरानगरची भुतं (१९७८), कृष्णाकाठच्या कथा हे त्यांचे काही कथासंग्रह; त्यांनी पस्तीस कादंबऱ्या लिहिल्या. चित्रा (१९४५) हीत्यांची पहिली कादंबरी. त्यानंतर ३४ कादंबऱ्या त्यांनी लिहिल्या. त्यांत फकिरा (१९५९, आवृ.१६– १९९५), वारणेचा वाघ (१९६८), चिखलातीलकमळ, रानगंगा, माकडीचा माळ (१९६३), वैजयंता ह्यांसारख्या कादंबऱ्यांचा समावेश होतो. त्यांच्या फकिरा ह्या कादंबरीला महाराष्ट्र शासनाचा पुरस्कार मिळाला. वास्तव, आदर्श आणि स्वप्नरंजन यांचे मिश्रण त्या कादंबरीत आहे. सत्प्रवृत्तीचा, माणुसकीचा विजय हे अण्णाभाऊंच्या कादंबऱ्यांचे मुख्यसूत्र होय. त्यांच्या काही कादंबऱ्यांवर चित्रपटही निघाले : वैजयंता (१९६१, कादंबरी वैजयंता ), टिळा लावते मी रक्ताचा (१९६९, कादंबरी आवडी ),डोंगरची मैना (१९६९, कादंबरी माकडीचा माळ ), मुरली मल्हारीरायाची (१९६९, कादंबरी चिखलातील कमळ ), वारणेचा वाघ (१९७०, कादंबरीवारणेचा वाघ ), अशी ही साताऱ्याची तऱ्हा (१९७४, कादंबरी अलगूज ), फकिरा (कादंबरी फकिरा ). या शिवायव इनामदार (१९५८), पेंग्याचं लगीन,सुलतान ही नाटकेही त्यांनी लिहिली.

         उपेक्षित गुन्हेगार म्हणून कलंकित ठरवले गेलेले, दलित आणि श्रमिक यांच्या समृद्घीचे स्वप्न अण्णाभाऊ पाहात आले. डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरयांच्या लढाऊ आणि विमोचक विचारांचे संस्कार त्यांच्या मनावर खोलवर झालेले होते. ‘जग बदल घालुनी घाव। सांगूनि गेले मज भीमराव॥’ हे त्यांचे गीतखूप गाजले. त्यांनी लिहिलेल्या लावण्यांत ‘माझी मैना गावावर राहिली’ आणि ‘मुंबईची लावणी’ या अजोड आणि अविस्मरणीय आहेत.

          अतिशय तळमळीने लिहिण्याची त्यांची वृत्ती होती. ‘पृथ्वी शेषाच्या मस्तकावर तरली नसून ती दलितांच्या तळहातावर तरलेली आहे’, असे ते म्हणत; आणि हाच त्यांच्या लेखनाचा प्रेरणा स्रोत होता. मानवी जीवनातील संघर्ष, नाटय, दुःख, दारिद्र्य त्यांच्या साहित्यातून प्रकट होते. त्यांच्या कथा-कादंबऱ्यांतून त्यांनी उभ्या केलेल्या माणसांत जबरदस्त जीवनेच्छा दिसते. त्यांच्यापासून प्रेरणा घेऊन दलित लेखकांची एक प्रतिभावान पिढी निर्माणझाली. त्यात बाबूराव बागूल, नामदेव ढसाळ, लक्ष्मण माने, यशवंत मनोहर, दया पवार, केशव मेश्राम, शरणकुमार लिंबाळे आदींचा अंतर्भाव होतो.

        अण्णाभाऊंची निरीक्षणशक्ती अत्यंत सूक्ष्म आहे. त्यांच्या लेखन शैलीला मराठमोळा, रांगडा पण लोभस घाट आहे. नाट्यमयता हाही त्यांच्यालेखनशैलीचा एक खास गुण. ज्या विपर्यस्त जीवनातून अण्णाभाऊंनी अनुभव आत्मसात केले, त्यांतील क्षणांचा वेग आणि आवेग त्यांच्या लेखनात जाणवतो. लवचिक भावचित्रे अंगासरशा मोडीने साकार करण्याची त्यांची लकबही स्वतंत्र आहे. लेखनावर त्यांनी जीव जडवला होता; त्यांनी ते विपुल केले.

         रशियाच्या ‘इंडो-सोव्हिएत कल्चरल सोसायटी’ च्या निमंत्रणावरून ते १९६१ साली रशियाला गेले. तेथील अनुभवांवर आधारित माझा रशियाचाप्रवास हे प्रवास वर्णन त्यांनी लिहिले.

          पुढे पुढे मात्र दारिद्र्य आणि एकाकी आयुष्य त्यांच्या वाट्याला प्रकर्षाने आले मराठी साहित्यातील प्रतिष्ठितांकडून त्यांची उपेक्षा झाली. विपन्नावस्थेत गोरेगाव (मुंबई) येथे त्यांचे निधन झाले.


महाराष्ट्रातील विद्यापीठांत अण्णाभाऊंवर अकरा प्रबंध प्रसिद्घ केले गेले आहेत. पुणे विद्यापीठात त्यांच्या सन्मानार्थ ‘अण्णाभाऊ साठे’ अध्यासन सुरु करण्यात आले आहे. त्यांच्या कथा-कादंबऱ्यांची केवळ भारतीयच नव्हे, तर २२ परकीय भाषांत भाषांतरे झाली आहेत.


      

अरुणा आसफ अली

 

              *भारतरत्न*                                                                                                             

     *अरुणा आसफ अली* 


   *जन्म - 16 जुलाई 1909*

                (हरियाणा)

   *मृत्यु - 29 जुलाई 1996*                                    पूरा नाम - अरुणा आसफ़ अली

अन्य नाम - अरुणा गांगुली                

पति - आसफ़ अली

कर्म भूमि - भारत

कर्म-क्षेत्र - स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षक

भाषा - हिन्दी, अंग्रेज़ी

पुरस्कार-उपाधि - 'लेनिन शांति पुरस्कार' (1964), 'जवाहरलाल नेहरू अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार' (1991), 'पद्म विभूषण' (1992), ‘इंदिरा गांधी पुरस्कार’, 'भारत रत्न' (1997)

विशेष योगदान - 1942 ई. के ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’ आंदोलन में विशेष योगदान था।

नागरिकता - भारतीय

अन्य जानकारी - 1998 में इनके नाम पर एक डाक टिकट जारी किया गया। उनके सम्मान में नई दिल्ली की एक सड़क का नाम 'अरुणा आसफ़ अली मार्ग' रखा गया।

अरुणा आसफ़ अली का नाम भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इन्होंने भारत को आज़ादी दिलाने के लिए कई उल्लेखनीय कार्य किये थे। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाने वाली क्रांतिकारी, जुझारू नेता श्रीमती अरुणा आसफ़ अली का नाम इतिहास में दर्ज है। अरुणा आसफ़ अली ने सन 1942 ई. के ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’ आंदोलन में महत्त्वपूर्ण योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता। देश को आज़ाद कराने के लिए अरुणा जी निरंतर वर्षों अंग्रेज़ों से संघर्ष करती रही थीं।

 ♦ *जीवन परिचय*

अरुणा जी का जन्म बंगाली परिवार में 16 जुलाई सन 1909 ई. को हरियाणा, तत्कालीन पंजाब के 'कालका' नामक स्थान में हुआ था। इनका परिवार जाति से ब्राह्मण था। इनका नाम 'अरुणा गांगुली' था। अरुणा जी ने स्कूली शिक्षा नैनीताल में प्राप्त की थी। नैनीताल में इनके पिता का होटल था। यह बहुत ही कुशाग्र बुद्धि और पढ़ाई लिखाई में बहुत चतुर थीं। बाल्यकाल से ही कक्षा में सर्वोच्च स्थान पाती थीं। बचपन में ही उन्होंने अपनी बुद्धिमत्ता और चतुरता की धाक जमा दी थी। लाहौर और नैनीताल से पढ़ाई पूरी करने के बाद वह शिक्षिका बन गई और कोलकाता के 'गोखले मेमोरियल कॉलेज' में अध्यापन कार्य करने लगीं।

👫 *विवाह*

अरुणा जी ने 19 वर्ष की आयु में सन 1928 ई. में अपना अंतर्जातीय प्रेम विवाह दिल्ली के सुविख्यात वकील और कांग्रेस के नेता आसफ़ अली से कर लिया। आसफ़ अली अरुणा से आयु में 20 वर्ष बड़े थे। उनके पिता इस अंतर्जातीय विवाह के विरुद्ध थे और मुस्लिम युवक आसफ़ अली के साथ अपनी बेटी की शादी किसी भी क़ीमत पर करने को राज़ी नहीं थे। अरुणा जी स्वतंत्र विचारों की और स्वतः निर्णय लेने वाली युवती थीं। उन्होंने माता-पिता के विरोध के बाद भी स्वेच्छा से शादी कर ली। विवाह के बाद वह पति के पास आ गईं, और पति के साथ प्रेमपूर्वक रहने लगीं। इस विवाह ने अरुणा के जीवन की दिशा बदल दी। वे राजनीति में रुचि लेने लगीं। वे राष्ट्रीय आन्दोलन में सम्मिलित हो गईं।

🔷 *राजनीतिक और सामाजिक जीवन*

परतंत्रता में भारत की दुर्दशा और अंग्रेज़ों के अत्याचार देखकर विवाह के उपरांत श्रीमती अरुणा आसफ़ अली स्वतंत्रता-संग्राम में सक्रिय भाग लेने लगीं। उन्होंने महात्मा गांधी और मौलाना अबुल क़लाम आज़ाद की सभाओं में भाग लेना प्रारम्भ कर दिया। वह इन दोनों नेताओं के संपर्क में आईं और उनके साथ कर्मठता, से राजनीति में भाग लेने लगीं, वे फिर लोकनायक जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया और अच्युत पटवर्द्धन के साथ कांग्रेस 'सोशलिस्ट पार्टी' से संबद्ध हो गईं।


⛓️ *जेल यात्रा*

अरुणा जी ने 1930, 1932 और 1941 के व्यक्तिगत सत्याग्रह के समय जेल की सज़ाएँ भोगीं। उनके ऊपर जयप्रकाश नारायण, डॉ. राम मनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन जैसे समाजवादियों के विचारों का अधिक प्रभाव पड़ा। इसी कारण 1942 ई. के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में अरुणा जी ने अंग्रेज़ों की जेल में बन्द होने के बदले भूमिगत रहकर अपने अन्य साथियों के साथ आन्दोलन का नेतृत्व करना उचित समझा। गांधी जी आदि नेताओं की गिरफ्तारी के तुरन्त बाद मुम्बई में विरोध सभा आयोजित करके विदेशी सरकार को खुली चुनौती देने वाली वे प्रमुख महिला थीं। फिर गुप्त रूप से उन कांग्रेसजनों का पथ-प्रदर्शन किया, जो जेल से बाहर रह सके थे। मुम्बई, कोलकाता, दिल्ली आदि में घूम-घूमकर, पर पुलिस की पकड़ से बचकर लोगों में नव जागृति लाने का प्रयत्न किया। लेकिन 1942 से 1946 तक देश भर में सक्रिय रहकर भी वे पुलिस की पकड़ में नहीं आईं। 1946 में जब उनके नाम का वारंट रद्द हुआ, तभी वे प्रकट हुईं। सारी सम्पत्ति जब्त करने पर भी उन्होंने आत्मसमर्पण नहीं किया।


⚜️ *कांग्रेस कमेटी की निर्वाचित अध्यक्ष*

दो वर्ष के अंतराल के बाद सन् 1946 ई. में वह भूमिगत जीवन से बाहर आ गईं। भूमिगत जीवन से बाहर आने के बाद सन् 1947 ई. में श्रीमती अरुणा आसफ़ अली दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्षा निर्वाचित की गईं। दिल्ली में कांग्रेस संगठन को इन्होंने सुदृढ़ किया।

       कांग्रेस से सोशलिस्ट पार्टी में

सन 1948 ई. में श्रीमती अरुणा आसफ़ अली 'सोशलिस्ट पार्टी' में सम्मिलित हुयीं और दो साल बाद सन् 1950 ई. में उन्होंने अलग से ‘लेफ्ट स्पेशलिस्ट पार्टी’ बनाई और वे सक्रिय होकर 'मज़दूर-आंदोलन' में जी जान से जुट गईं। अंत में सन 1955 ई. में इस पार्टी का 'भारतीय कम्यनिस्ट पार्टी' में विलय हो गया।

श्रीमती अरुणा आसफ़ अली भाकपा की केंद्रीय समिति की सदस्या और ‘ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस’ की उपाध्यक्षा बनाई गई थीं। सन् 1958 ई. में उन्होंने 'मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी' भी छोड़ दी। सन् 1964 ई. में पं. जवाहरलाल नेहरू के निधन के पश्चात् वे पुनः 'कांग्रेस पार्टी' से जुड़ीं, किंतु अधिक सक्रिय नहीं रहीं।

⭕ *दिल्ली नगर निगम की प्रथम महापौर*

श्रीमती अरुणा आसफ़ अली सन् 1958 ई. में 'दिल्ली नगर निगम' की प्रथम महापौर चुनी गईं। मेयर बनकर उन्होंने दिल्ली के विकास, सफाई, और स्वास्थ्य आदि के लिए बहुत अच्छा कार्य किया और नगर निगम की कार्य प्रणाली में भी उन्हों ने यथेष्ट सुधार किए।


🌀 *संगठनों से सम्बंध*

श्रीमती अरुणा आसफ़ अली ‘इंडोसोवियत कल्चरल सोसाइटी’, ‘ऑल इंडिया पीस काउंसिल’, तथा ‘नेशनल फैडरेशन ऑफ इंडियन वूमैन’, आदि संस्थाओं के लिए उन्होंने बड़ी लगन, निष्ठा, ईमानदारी और सक्रियता से कार्य किया। दिल्ली से प्रकाशित वामपंथी अंग्रेज़ी दैनिक समाचार पत्र ‘पेट्रियट’ से वे जीवनपर्यंत कर्मठता से जुड़ी रहीं।


🏆 *सम्मान और पुरस्कार*

श्रीमती अरुणा आसफ़ अली को सन् 1964 में ‘लेनिन शांति पुरस्कार’, सन् 1991 में 'जवाहरलाल नेहरू अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार', 1992 में 'पद्म विभूषण' और ‘इंदिरा गांधी पुरस्कार’ (राष्ट्रीय एकता के लिए) से सम्मानित किया गया था। 1997 में उन्हें मरणोपरांत भारत के 'सर्वोच्च नागरिक सम्मान' भारत रत्न से सम्मानित किया गया। 1998 में उन पर एक डाक टिकट जारी किया गया। उनके सम्मान में नई दिल्ली की एक सड़क का नाम उनके नाम पर 'अरुणा आसफ़ अली मार्ग' रखा गया।


👩‍💼 *एक संस्मरण*

अरुणा आसफ़ अली की अपनी विशिष्ट जीवनशैली थी। उम्र के आठवें दशक में भी वह सार्वजनिक परिवहन से सफर करती थीं। कहा जाता है कि एक बार अरुणा जी दिल्ली में यात्रियों से भरी बस में सवार थीं। कोई भी जगह बैठने के लिए ख़ाली न थी। उसी बस में आधुनिक जीवन शैली की एक युवा महिला भी सवार थी। एक व्यक्ति ने युवा महिला के लिए अपनी जगह उसे दे दी और उस युवा महिला ने शिष्टाचार के कारण अपनी सीट अरुणा जी को दे दी। ऐसा करने पर वह व्यक्ति बुरा मान गया और युवा महिला से बोला - 'यह सीट तो मैंने आपके लिए ख़ाली की थी बहन।' इसके उत्तर में अरुणा आसफ़ अली तुरंत बोलीं - 'बेटा! माँ को कभी न भूलना, क्योंकि माँ का अधिकार बहन से पहले होता है।' यह सुनकर वह व्यक्ति बहुत शर्मिंदा हुआ और उसने अरुणा जी से माफ़ी मांगी।


🪔 *निधन*

अरुणा आसफ़ अली वृद्धावस्था में बहुत शांत और गंभीर स्वभाव की हो गई थीं। उनकी आत्मीयता और स्नेह को कभी भुलाया नहीं जा सकता। वास्तव में वे महान् देशभक्त थीं। वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी अरुणा आसफ़ अली 87 वर्ष की आयु में दिनांक 29 जुलाई, सन् 1996 को इस संसार को छोड़कर सदैव के लिए दूर-बहुत दूर चली गईं। उनकी सुकीर्ति आज भी अमर है।

                                       

         

वामन कृष्ण तथा बापूसाहेब चोरघडे

 

    

*वामन कृष्ण तथा बापूसाहेब चोरघडे*                                        (स्वातंत्र्य सैनिक तथा साहित्यिक)                                       *जन्म : १६ जुलै १९१४*

              (नरखेड , जि. नागपूर)

           *मृत्यू : १ डिसेंबर १९९५*

             (धरमपेठ , नागपूर)                                                       धर्म : हिंदू

कार्यक्षेत्र : साहित्य

साहित्य प्रकार : कथा कादंबरी

विषय : मराठी

प्रसिद्ध साहित्यकृती : संपूर्ण चोरघडे

वडील : कृष्णराव देवराव चोरघडे

आई : गंगुबाई कृष्णराव चोरघडे

अपत्ये : सुषमा , श्रीकांत                                             वामन कृष्ण चोरघडे हे लघुकथालेखक होते. कथासंग्रहांशिवाय त्यांनी सुमारे ९२ ललितलेख, चरित्रे, प्रबंध, पाठ्यपुस्तके, इ. लिहिले किंवा त्यांत योगदान दिले.

                                                                    💁🏻‍♂️  *परिचय*                                                                              वामन चोरघडे यांचा जन्म नागपूर जिल्ह्यातील नरखेड येथे झाला. त्यांच्या एकूण बारा भावंडांमधली चार जगली. सर्वात धाकटे म्हणजे बापू ऊर्फ वामन. त्यांच्या शिक्षणाची जबाबदारी मोठय़ा भावाने घेतली, आणि त्यांना काटोल गावातल्या एका प्राथमिक शाळेत घातले. पुढचे शिक्षण नागपुरातील पटवर्धन हायस्कूल या शाळेत, आणि पदवीपर्यंतचे शिक्षण मॉरिस कॉलेजात झाले.

            कॉलेजात असताना चोरघडे त्यांची पहिली लघुकथा कथा 'अम्मा' १९३२ साली प्रसिद्ध केली. त्यांच्या कथा वागीश्वरी, मौज, सत्यकथा या नियतकालिकांमधून प्रसिद्ध होत गेल्या.

            चोरघडे यांनी डॉ. वेणू साठे यांच्याशी विवाह केला. त्यांचे चिरंजीव श्रीकांत चोरघडे हे बालरोगतज्ज्ञ व बालमानसशास्त्रज्ञ आहेत.

            वामन चोरघडे यांनी मराठी साहित्य व अर्थशास्त्र यां विषयांत पदवी मिळवली होती. त्यांनी वर्ध्याच्या आणि नागपूरच्या जी.एस. वाणिज्य महाविद्यालयांत (गोविंदराम सेक्सरिया कॉलेज) अर्थशास्त्राचे अध्यापन केले.

ते दोन वर्षे महाराष्ट्र राज्य पाठ्यपुस्तक मंडळाचे अध्यक्ष होते.

महात्मा गांधींचे अनुयायी असलेल्या चोरघड्यांचा भारतीय स्वातंत्र्यलढ्यात सक्रिय सहभाग होता.   

🇮🇳 *नोकऱ्या आणि स्वातंत्र्यलढा*

एम.ए. झाल्यावर वामन चोरघडे यांना वर्ध्याला शिक्षकाची नोकरी मिळाली. त्यावेळी त्यांनी गांधीजींच्या आवाहनाला साद देऊन स्वातंत्र्यसंग्रामात उडी घेतली. त्यांना दोन वेळा कारावास घडला. कारावासामध्ये दादा धर्माधिकारी, विनोबा भावे, काका कालेलकर, महादेवभाई देसाई अशा व्यक्तींचा परिचय झाला. तुरुंगात त्यांनी खादीचे व्रत घेतले व मृत्यूपर्यंत पाळले. चोरघडे हे नेहमी खादीचा कुडता, पायजमा अशा स्वतः धुतलेल्या स्वच्छ पांढऱ्या वेषातच असत.

                चोरघडेंना हे नियमित व्यायाम करीत असून त्यांची शरीरयष्टी मजबूत होती. त्यांचे उच्चार स्पष्ट होते. चोरघडे हे उत्तम वक्ते मानले जात. भारताला स्वातंत्र्य मिळण्याच्या सुमारास त्यांना बंदिवासातून मुक्ती मिळाली. त्यानंतर ते गांधी विचारांवर स्थापन झालेल्या वर्ध्याच्या गोविंदराम सक्सेरिया वाणिज्य महाविद्यालयात ते प्राध्यापक म्हणून रुजू झाले, इ.स. १९४९ साली त्याच कॉलेजच्या नागपूर शाखेमध्ये उपप्राचार्य झाले आणि तिथूनच चोरघडे प्राचार्य म्हणून १९७४ साली निवृत्त झाले.

🎯 *समाजकार्य*

महाराष्ट्रातचे मंत्री रामकृष्ण पाटील यांनी चोरघड्यांना मानद अन्नपुरवठा अधिकारी हे पद दिले होते. पुढे काँगेसप्रणीत भारतसेवक समाजाच्या नागपूर शाखेची जबाबदारी त्यांनी सांभाळली.

त्यावेळी विविध शिक्षणसंस्थांमधील विद्यार्थ्यांच्या सहकार्याने चोरघडे यांनी श्रमसंस्कार पथक स्थापन केले होते. या विद्यार्थ्यांनी श्रमदानाने नागपूर विद्यापीठाच्या परिसरात ओपन एर थिएटर बांधून घेतले.

📖 *प्रकाशित साहित्य*

असे मित्र अशी मैत्री (बालसाहित्य)

ख्याल

चोरघडे यांची कथा (१९६९)

जडण घडण (आत्मचरित्र, १९८१)

देवाचे काम (बालसाहित्य)

पाथेय (१९५३)

प्रदीप (१९५४)

प्रस्थान

यौवन

वामन चोरघडे यांच्या निवडक कथा, भाग १ आणि २ (संपादक आशा बगे आणि डॉ. श्रीकांत चोरघडे)

संपूर्ण चोरघडे (१९६६)

साद

सुषमा (१९३६)

हवन

⚜️ *गौरव*

अध्यक्ष, मराठी साहित्य संमेलन, चंद्रपूर १९७९

अध्यक्ष विदर्भ साहित्य संघ

  

                                                                                                                        

         

बाबू जगजीवन राम


                                                                                                                                                                          

        *बाबू जगजीवन राम*


                                                                                *जन्म : 5 अप्रैल, 1908*

(भोजपुर का 'चंदवा गाँव', बिहार)

*मृत्यु : 6 जुलाई, 1986*

                                                                      अन्य :  नाम बाबूजी                                          पिता : शोभा राम 

संतान : पुत्री- मीरा कुमार

नागरिकता : भारतीय

प्रसिद्धि : दलित वर्ग के मसीहा के रूप में याद किया जाता है।

पार्टी : कांग्रेस और जनता दल

पद : श्रम मंत्री, रेल मंत्री, कृषि मंत्री, रक्षा मंत्री और उप-प्रधानमंत्री आदि पदों पर रहे।

शिक्षा : स्नातक

विद्यालय : कलकत्ता विश्वविद्यालय

भाषा : हिन्दी, अंग्रेज़ी

जेल यात्रा : भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जेल यात्रा की।

अन्य जानकारी : बाबूजी सासाराम क्षेत्र से आठ बार चुनकर संसद में गए और भिन्न-भिन्न मंत्रालय के मंत्री के रूप में कार्य किया। वे 1952 से 1984 ई. तक लगातार सांसद चुने गए।                                                                                                                 जगजीवन राम  आधुनिक भारतीय राजनीति के शिखर पुरुष जिन्हें आदर से 'बाबूजी' के नाम से संबोधित किया जाता था। लगभग 50 वर्षो के संसदीय जीवन में राष्ट्र के प्रति उनका समर्पण और निष्ठा बेमिसाल है। उनका संपूर्ण जीवन राजनीतिक, सामाजिक सक्रियता और विशिष्ट उपलब्धियों से भरा हुआ है। सदियों से शोषण और उत्पीड़ित दलितों, मज़दूरों के मूलभूत अधिकारों की रक्षा के लिए जगजीवन राम द्वारा किए गए क़ानूनी प्रावधान ऐतिहासिक हैं। जगजीवन राम का ऐसा व्यक्तित्व था जिसने कभी भी अन्याय से समझौता नहीं किया और दलितों के सम्मान के लिए हमेशा संघर्षरत रहे। विद्यार्थी जीवन से ही उन्होंने अन्याय के प्रति आवाज़ उठायी। बाबू जगजीवन राम का भारत में संसदीय लोकतंत्र के विकास में महती योगदान है।

🙍🏻‍♂️ *जन्म*

एक दलित के घर में जन्म लेकर राष्ट्रीय राजनीति के क्षितिज पर छा जाने वाले बाबू जगजीवन राम का जन्म बिहार की उस धरती पर हुआ था जिसकी भारतीय इतिहास और राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। बाबू जगजीवन राम का जन्म 5 अप्रैल 1908 को बिहार में भोजपुर के चंदवा गांव में हुआ था। उनका नाम जगजीवन राम रखे जाने के पीछे प्रख्यात संत रविदास के एक दोहे - प्रभु जी संगति शरण तिहारी, जगजीवन राम मुरारी, की प्रेरणा थी। इसी दोहे से प्रेरणा लेकर उनके माता-पिता ने अपने पुत्र का नाम जगजीवन राम रखा था। उनके पिता शोभा राम एक किसान थे, जिन्होंने ब्रिटिश सेना में नौकरी भी की थी।       

📖 *शिक्षा*

इन्होंने स्नातक की डिग्री कलकत्ता विश्वविद्यालय से 1931 में ली।

🇮🇳 *स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग*

जगजीवन राम उस समय महात्मा गाँधी के नेतृत्व में आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाले दल में शामिल हुए, जब अंग्रेज़ अपनी पूरी ताक़त के साथ आज़ादी के सपने को हमेशा के लिए कुचल देना चाहते थे। पृथक् निर्वाचन क्षेत्रों के लिए अंग्रेजों ने अपनी सारी ताक़त झोंक दी थी। मुस्लिम लीग की कमान जिन्ना के हाथ में थी और वे अंग्रेजों के हाथ की कठपुतली बने थे।

         गाँधी जी ने साम्राज्यवादी अंग्रेजों के इरादे को भांप लिया था कि स्वतंत्रता आंदोलन को कमज़ोर करने के लिए अंग्रेज़ों की फूट डालो, राज करो नीति को बाबूजी ने समझा। हिन्दू मुस्लिम विभाजन कर अंग्रेज़ों ने दलितों और सवर्णों के मध्य खाई बनाने प्रारम्भ की, जिसमें वह सफल भी हुए और दलितों के लिए 'निर्वाचन मंडल', 'मतांतरण' और 'अछूतिस्तान' की बातें होने लगीं। महात्मा गांधी ने इसके दूरगामी परिणामों को समझा और आमरण अनशन पर बैठ गए। यह राष्ट्रीय संकट का समय था। इस समय राष्ट्रवादी बाबूजी ज्योति स्तंभ बनकर उभरे। उन्होंने दलितों के सामूहिक धर्म-परिवर्तन को रोका और उन्हें स्वतंत्रता की मुख्यधारा से जोड़ने में राजनीतिक कौशल और दूरदर्शिता का परिचय दिया। इस घटना के बाद बाबूजी दलितों के सर्वमान्य राष्ट्रीय नेता के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। वह बापू के विश्वसनीय और प्रिय पात्र बने और राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आ गए।

💂‍♂️ *अंग्रेज़ों का विरोध*

1936 में 28 साल की उम्र में ही उन्हें बिहार विधान परिषद का सदस्य चुना गया था। 'गवर्मेंट ऑफ इंडिया एक्ट' 1935 के अंतर्गत 1937 में अंग्रेज़ों ने बिहार में कांग्रेस को हराने के लिए यूनुस के नेतृत्व में कठपुतली सरकार बनवाने का निष्फल प्रयत्न किया। इस चुनाव में बाबूजी निर्विरोध निर्वाचित हुए और उनके 'भारतीय दलित वर्ग संघ' के 14 सदस्य भी जीते। उनके समर्थन के बिना वहां कोई सरकार नहीं बन सकती थी। यूनुस ने बाबूजी को मनचाहा मंत्री पद और अन्य प्रलोभन दिये, किंतु बाबूजी ने उस प्रस्ताव को तुरंत ठुकरा दिया। यह देखकर गांधी जी ने 'पत्रिका हरिजन' में इस पर टिप्पणी करते हुए इसे देशवासियों के लिए आदर्श और अनुकरणीय बताया। उसके बाद बिहार में कांग्रेस की सरकार में वह मंत्री बनें किन्तु कुछ समय में ही अंग्रेज़ सरकार की लापरवाही के कारण महात्मा जी के कहने पर कांग्रेस सरकारों ने इस्तीफा दे दिया। बाबूजी इस काम में सबसे आगे रहे। मुंबई में 9 अगस्त 1942 को महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आन्दोलन प्रारम्भ किया तो जगजीवन राम सबसे आगे थे। योजना के अनुसार उन्हें बिहार में आन्दोलन तेज करना था लेकिन दस दिन बाद ही गिरफ्तार कर लिए गये।                                           💠 *राजनीति में सफलता*

बाबूजी के प्रयत्नों से गांव - गांव तक डाक और तारघरों की व्यवस्था का भी विस्तार हुआ। रेलमंत्री के रूप में बाबूजी ने देश को आत्म-निर्भर बनाने के लिए वाराणसी में डीजल इंजन कारख़ाना, पैरम्बूर में 'सवारी डिब्बा कारख़ाना' और बिहार के जमालपुर में 'माल डिब्बा कारख़ाना' की स्थापना की।

सन 1946 में पंडित जवाहरलाल नेहरू की अंतरिम सरकार में शामिल होने के बाद वह सत्ता की उच्च सीढ़ियों पर चढ़ते चले गए और तीस साल तक कांग्रेस मंत्रिमंडल में रहे। पांच दशक से अधिक समय तक सक्रिय राजनीति में रहे बाबू जगजीवन राम ने सामाजिक कार्यकर्ता, सांसद और कैबिनेट मंत्री के रूप में देश की सेवा की। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी कि श्रम, कृषि, संचार, रेलवे या रक्षा, जो भी मंत्रालय उन्हें दिया गया उन्होंने उसका प्रशासनिक दक्षता से संचालन किया और उसमें सदैव सफ़ल रहे। किसी भी मंत्रालय में समस्या का समाधान बड़ी कुशलता से किया करते थे। उन्होंने किसी भी मंत्रालय से कभी इस्तीफ़ा नहीं दिया और सभी मंत्रालयों का कार्यकाल पूरा किया।        

♨️ *श्रम मंत्री*

1946 तक वह गांधी जी के हृदय में उतर गए थे। अब तक अंग्रेज़ों ने भी बाबूजी को भारतीय दलित समाज के सर्वमान्य नेता के रूप में स्वीकार कर लिया। आज़ादी के बाद जो पहली सरकार बनी उसमें उन्हें श्रम मंत्री बनाया गया। यह उनका प्रिय विषय था। वह बिहार के एक छोटे से गांव की माटी की उपज थे, जहां उन्होंने खेतिहर मज़दूरों का त्रासदी से भरा जीवन देखा था। विद्यार्थी के रूप में कोलकाता में मिल - मज़दूरों की दारुण स्थिति से भी उनका साक्षात्कार हुआ था। बाजूजी ने श्रम मंत्री के रूप में मज़दूरों की जीवन स्थितियों में आवश्यक सुधार लाने और उनकी सामाजिक, आर्थिक सुरक्षा के लिए विशिष्ट क़ानूनी प्रावधान किए, जो आज भी हमारे देश की श्रम - नीति का मूलाधार हैं।                              🔹 *मज़दूरों के हितैषी*

बाबूजी सासाराम क्षेत्र से आठ बार चुनकर संसद में गए और भिन्न-भिन्न मंत्रालय के मंत्री के रूप में कार्य किया। वे 1952 से 1984 तक लगातार सांसद चुने गए।

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अंग्रेज़ों ने भारत छोड़ा तो उनका प्रयास था कि पाकिस्तान की भांति भारत के कई टुकड़े कर दिए जाएं। शिमला में कैबिनेट मिशन के सामने बाबूजी ने दलितों और अन्य भारतीयों के मध्य फूट डालने की अंग्रेज़ों की कोशिश को नाकाम कर दिया। अंतरिम सरकार में जब बारह लोगों को लार्ड वावेल की कैबिनेट में शामिल होने के लिए बुलाया गया तो उसमें बाबू जगजीवन राम भी थे। उन्हें श्रम विभाग दिया गया। इस समय उन्होंने ऐसे क़ानून बनाए जो भारत के इतिहास में आम आदमी, मज़दूरों और दबे कुचले वर्गों के हित की दिशा में मील के पत्थर माने जाते हैं। उन्होंने 'मिनिमम वेजेज एक्ट', 'इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट्स एक्ट' और 'ट्रेड यूनियन एक्ट' बनाया जिसे आज भी मज़दूरों के हित में सबसे बड़े हथियार के रूप में जाना जाता है। उन्होंने 'एम्प्लाइज स्टेट इंश्योरेंस एक्ट' और 'प्रोवीडेंट फंड एक्ट' भी बनवाया।

🏛️ *संसद में*

भारत की संसद को बाबू जगजीवन राम अपना दूसरा घर मानते थे। 1952 में उन्हें नेहरू जी ने 'संचार मंत्री' बनाया। उस समय संचार मंत्रालय में ही विमानन विभाग भी था। उन्होंने निजी विमानन कंपनियों का राष्ट्रीयकरण किया और गांवों में डाकखानों का नेटवर्क विकसित किया। बाद में नेहरू जी ने उन्हें रेल मंत्री बनाया। उस समय उन्होंने रेलवे के आधुनिकीकरण की बुनियाद डाली और रेलवे कर्मचारियों के लिए कल्याणकारी योजनाएं प्रारम्भ की। उन्हीं के प्रयास से आज रेलवे देश का सबसे बड़ा विभाग है। वे सासाराम क्षेत्र से आठ बार चुनकर संसद में गए और भिन्न-भिन्न मंत्रालय के मंत्री के रूप में कार्य किया। वे 1952 से 1984 तक लगातार सांसद चुने गए।                                    🌀 *संगठन*

उन्हें पद की लालसा बिल्कुल न थी। जब कामराज योजना आई तो उन्होंने संगठन का काम प्रारम्भ किया। शास्त्री जी की मृत्यु के बाद जब इंदिरा जी ने प्रधानमंत्री पद संभाला तो इंदिरा जी ने बाबू जी को अति कुशल प्रशासक के रूप में अपने साथ लिया। वह भारत के लिए बहुत कठिन दिन थे।

🌴 *हरित क्रांति*

1962 में चीन और 1965 में पाकिस्तान से लड़ाई के कारण ग़रीब और किसान भुखमरी से लड़ रहे थे। अमेरिका से पी.एल- 480 के अंतर्गत सहायता में मिलने वाला गेहूं और ज्वार मुख्य साधन था। ऐसी विषम परिस्थिति में डॉ नॉरमन बोरलाग ने भारत आकर 'हरित क्रांति' का सूत्रपात किया। हरित क्रांति के अंतर्गत किसानों को अच्छे औजार, सिंचाई के लिए पानी और उन्नत बीज की व्यवस्था करनी थी। आधुनिक तकनीकी के पक्षधर बाबू जगजीवन राम कृषि मंत्री थे और उन्होंने डॉ नॉरमन बोरलाग की योजना को देश में लागू करने में पूरा राजनीतिक समर्थन दिया। दो ढाई साल में ही हालात बदल गये और अमेरिका से अनाज का आयात रोक दिया गया। भारत 'फूड सरप्लस' देश बन गया था।                                     👮‍♂️ *रक्षा मंत्री के रूप में*

छुआछूत विरोधी एक सम्मेलन में जगजीवन राम ने कहा- सवर्ण हिन्दुओं की इन नसीहतों से कि मांस भक्षण छोड़ दो, मदिरा मत पियो, सफाई के साथ रहो, अब काम नहीं चलेगा। अब दलित उपदेश नहीं, अच्छे व्यवहार की मांग करते हैं और उनकी मांग स्वीकार करनी होगी। शब्दों की नहीं ठोस काम की आवश्यकता है। मुहम्मद अली जिन्ना ने मुसलमानों को अपना अलग देश बनाने के लिए उकसा दिया है। डॉ आम्बेडकर ने अछूतों के लिए पृथक् निर्वाचन मंडल की माग की है। राष्ट्र की रचना हमसे हुई है, राष्ट्र से हमारी नही। राष्ट्र हमारा है। इसे एकताबद्ध करने का प्रयास भारत के लोगों को ही करना है। महात्मा गाँधी ने निर्णय लिया है कि छुआछूत को समाप्त करना होगा। इसके लिए मुझे अपनी कुर्बानी भी देनी पड़े तो मैं पीछे नहीं हटूंगा। देश की आज़ादी की लड़ाई में सभी धर्म और जाति के लोगों को बड़ी संख्या में जोड़ना होगा।

1962 और 1965 की लड़ाई के बाद भूख की समस्या को उन्होंने बहुत बहादुरी और सूझबूझ से परास्त किया। 1971 में बांग्लादेश की स्थापना के पहले भारत और पाकिस्तान की लड़ाई में बाबू जी ने जिस तरह अपनी सेनाओं को राजनीतिक सहयोग दिया वह सैन्य इतिहास में एक उदाहरण है। जब कांग्रेस के तमाम पुराने नेताओं ने इंदिरा गांधी का साथ छोड़ दिया था, बाबू जगजीवन राम हमेशा उनके साथ रहे, किंतु उन्होंने कभी भी मूल्यों से समझौता नहीं किया।

✈️ *संचार और परिवहन मंत्री के रूप में*

इसी प्रकार संचार और परिवहन मंत्री के रूप में उन्होंने विरोध के बाद भी निजी हवाई सेवाओं के राष्ट्रीयकरण की दिशा में सफल प्रयोग किया। फलस्वरूप 'वायु सेवा निगम' बना और 'इंडियन एयर लाइंस' व 'एयर इंडिया' की स्थापना हुई। इस राष्ट्रीयकरण का प्रबल विरोध हुआ, जिसे देखते हुए सरदार पटेल भी इसे कुछ समय के लिए स्थगित करने के पक्ष में थे। बाबूजी ने उनसे कहा था - 'आज़ादी के बाद देश के पुनर्निर्माण के सिवा और काम ही क्या बचा है?' इसी समय बाबूजी के प्रयत्नों से गांव - गांव तक डाक और तारघरों की व्यवस्था का भी विस्तार हुआ। रेलमंत्री के रूप में बाबूजी ने देश को आत्म-निर्भर बनाने के लिए वाराणसी में डीजल इंजन कारख़ाना, पैरम्बूर में 'सवारी डिब्बा कारख़ाना' और बिहार के जमालपुर में 'माल डिब्बा कारख़ाना' की स्थापना की।


बाबूजी ने सरदार पटेल से कहा था - 'आज़ादी के बाद देश के पुनर्निर्माण के सिवा और काम ही क्या बचा है?'

पटना में आयोजित छुआछूत विरोधी सम्मेलन में उन्होंने कहा - सवर्ण हिन्दुओं की इन नसीहतों से कि मांस भक्षण छोड़ दो, मदिरा मत पियो, सफाई के साथ रहो, अब काम नहीं चलेगा। अब दलित उपदेश नहीं, अच्छे व्यवहार की मांग करते हैं और उनकी मांग स्वीकार करनी होगी। शब्दों की नहीं ठोस काम की आवश्यकता है। मुहम्मद अली जिन्ना ने मुसलमानों को अपना अलग देश बनाने के लिए उकसा दिया है। डॉ आम्बेडकर ने अछूतों के लिए पृथक् निर्वाचन मंडल की माग की है। राष्ट्र की रचना हमसे हुई है, राष्ट्र से हमारी नही। राष्ट्र हमारा है। इसे एकताबद्ध करने का प्रयास भारत के लोगों को ही करना है। महात्मा गाँधी ने निर्णय लिया है कि छुआछूत को समाप्त करना होगा। इसके लिए मुझे अपनी कुर्बानी भी देनी पड़े तो मैं पीछे नहीं हटूंगा। देश की आज़ादी की लड़ाई में सभी धर्म और जाति के लोगों को बड़ी संख्या में जोड़ना होगा।                       🔸 *जनता दल में*

आज़ादी के बाद जब पहली सरकार बनी तो वे उसमें कैबिनेट मंत्री के रूप में शामिल हुए और जब तानाशाही का विरोध करने का अवसर आया तो लोकशाही की स्थापना की लड़ाई में शामिल हो गए। 1969 में कांग्रेस के विभाजन के समय इन्होंने श्रीमती इन्दिरा गांधी का साथ दिया तथा कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष चुने गए । 1970 में इन्होनें कांग्रेस पार्टी छोड़ दी और जनता दल में शामिल हो गये थे। सब जानते हैं कि 6 फरवरी 1977 के दिन केंद्रीय मंत्रिमंडल से दिया गया उनका इस्तीफ़ा ही वह ताक़त थी जिसने इमरजेंसी को ख़त्म किया।


🔮 *जीवनी के मुख्य बिन्दु*

जगजीवन राम ने 1928 में कोलकाता के वेलिंगटन स्क्वेयर में एक विशाल मज़दूर रैली का आयोजन किया था जिसमें लगभग 50 हज़ार लोग शामिल हुए।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस तभी भांप गए थे कि जगजीवन राम में एक बड़ा नेता बनने के तमाम गुण मौजूद हैं।

महात्मा गांधी के आह्वान पर भारत छोड़ो आंदोलन में भी जगजीवन राम ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वह उन बड़े नेताओं में शामिल थे जिन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध में भारत को झोंकने के अंग्रेज़ों के फैसले की निन्दा की थी। इसके लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा।

वर्ष 1946 में वह जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार में सबसे कम उम्र के मंत्री बने। भारत के पहले मंत्रिमंडल में उन्हें श्रम मंत्री का दर्जा मिला और 1946 से 1952 तक इस पद पर रहे।

जगजीवन राम 1952 से 1986 तक संसद सदस्य रहे। 1956 से 1962 तक उन्होंने रेल मंत्री का पद संभाला। 1967 से 1970 और फिर 1974 से 1977 तक वह कृषि मंत्री रहे।

इतना ही नहीं 1970 से 1971 तक जगजीवन राम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। 1970 से 1974 तक उन्होंने देश के रक्षामंत्री के रूप में काम किया।

23 मार्च, 1977 से 22 अगस्त, 1979 तक वह भारत के उप प्रधानमंत्री भी रहे।

आपातकाल के दौरान वर्ष 1977 में वह कांग्रेस से अलग हो गए और 'कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी' नाम की पार्टी का गठन किया और जनता गठबंधन में शामिल हो गए। इसके बाद 1980 में उन्होंने कांग्रेस (जे) का गठन किया।                                 🪔 *निधन*

6 जुलाई, 1986 को 78 साल की उम्र में इस महान् राजनीतिज्ञ का निधन हो गया। बाबू जगजीवन राम को भारतीय समाज और राजनीति में दलित वर्ग के मसीहा के रूप में याद किया जाता है। वह स्वतंत्र भारत के उन गिने चुने नेताओं में थे जिन्होंने देश की राजनीति के साथ ही दलित समाज को भी नयी दिशा प्रदान की।

                                            

          🇮🇳 *जयहिंद* 🇮🇳   

   🙏 *विनम्र अभिवादन*🙏


          

हंसा मेहता


    

           *पद्मभूषण हंसा मेहता*

(समाजसेवी, स्वतंत्रता सेनानी और शिक्षाविद)


          *जन्म : 3 जुलाई, 1897*

              (सूरत, गुजरात)*

          *मृत्यु : 4 अप्रेल, 1995*               पिता- मनुभाई मेहता

पति : जीवराज मेहता

नागरिकता : भारतीय

प्रसिद्धि ; समाजसेवी, स्वतंत्रता सेनानी और शिक्षाविद

आंदोलन : सविनय अवज्ञा आन्दोलन

जेल यात्रा : 1930 और 1932 ई. में दो बार जेल गईं

पुरस्कार-उपाधि : पद्म भूषण (1959)

अन्य जानकारी : महिलाओं की समस्याओं के समाधान के लिए प्रयत्नशील हंसा मेहता ने जेनेवा के 'अंतर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन' में भारत का प्रतिनिधित्व किया।

               हंसा मेहता एक समाजसेवी, स्वतंत्रता सेनानी और शिक्षाविद के रूप में भारत में काफ़ी प्रसिद्ध रही हैं। इनके पिता मनुभाई मेहता बड़ौदा और बीकानेर रियासतों के दीवान थे। हंसा मेहता का विवाह देश के प्रमुख चिकित्सकों में से एक तथा गाँधीजी के निकट सहयोगी जीवराज मेहता जी के साथ हुआ था। भारत के संविधान को मूल रूप देने वाली समिति में 15 महिलाएं भी शामिल थीं। इन्होंने संविधान के साथ भारतीय समाज के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हंसा मेहता इन्हीं में से एक थीं।

💁🏻‍♀️ *परिचय*

हंसा मेहता का जन्म 3 जुलाई, 1897 ई. को हुआ था। बड़ौदा राज्य में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक, जो बाद में बड़ौदा राज्य के दीवान भी रहे, सर मनुभाई मेहता के घर हंसा मेहता का जन्म हुआ। 'करन घेलो' जिसे गुजराती साहित्य का पहला उपन्यास माना जाता है, के उपन्यासकार नंद शंकर मेहता, हंसा मेहता के दादा थे। घर में पढ़ने-लिखने का महौल था तो हंसाबेन (हंसा मेहता) ने बड़ौदा के विद्यालय और महाविद्यालय में दर्शनशास्त्र से बी.ए. ऑर्नस किया। एक संरक्षित माहौल में शिक्षा ग्रहण करने में हंसाबेन को अधिक मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ा।

📚  *शिक्षा*

हंसाबेन जब पत्रकारिता की पढ़ाई करने इंग्लैड पहुंची, तब वहां उनकी मुलाकात सरोजिनी नायडू से हुई। सरोजिनी नायडू के साथ हंसाबेन महिला आंदोलन के बारे में दीक्षित तो हुई ही, सार्वजनिक सभाओं में भी शिरकत करना शुरू किया। सरोजनी नायडू के साथ वह एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में जेनेवा भी गईं। पत्रकारिता की पढ़ाई खत्म करके हंसाबेन अमेरिका की यात्रा पर गईं, जहां वह शिक्षण संस्थाए, शैक्षणिक एवं सामाजिक कार्य सम्मेलनों में शामिल हुईं, मताधिकार करने वाली महिलाओं से मिलीं। हंसाबेन सैन फ्रांसिस्को, शंघाई, सिंगापुर और कोलंबो होती हुईं भारत आईं। अपनी यात्रा के अनुभवों को 'बॉम्बे क्रॉनिकल' में प्रकाशित किया।

👩‍❤️‍👨 *अंतरजातीय विवाह*

उस दौर में प्रतिलोम विवाह दूसरे शब्दों में अपने से निचली जाति में विवाह समाज को स्वीकार्य नहीं था। यह सामाजिक संरचना के विरुद्ध जाकर बहुत बड़ा कदम था।

           हंसा मेहता ने डॉ. जीवराज एन. मेहता से विवाह करना तय किया तो नागर गृहस्थ समाज में शोर मच गया। ऊंची जाति का वैश्य के संग विवाह के प्रतिरोध के लिए गुजरात से बनारस तक में सभाएं की गईं और उन्हें जाति से बहिष्कृत कर दिया गया। इन सब चीज़ों से हंसाबेन विचलित नहीं हुईं और कहा- "जब जाति से बहिष्कृत हो ही चुकी हूं तो विवाह स्थगित करने का कोई तुक नहीं है"।


हंसा मेहता के पिता तथा परिवार के अन्य सदस्यों के अनुमोदन से 3 जुलाई, 1924 को वह हंसाबेन से हंसा मेहता हो गईं। विवाह के पश्चात हंसा मेहता बंबई (वर्तमान मुंबई) आ गईं, जहां पति ने किंग एडवर्ड मेमोरियल हॉस्पिटल और जीएस मेडिकल कॉलेज में डीन का पद संभाला। बंबई हंसा मेहता की क्षमताओं के विकास के लिए अनुकूल शहर था। यहां हंसा मेहता ने शैक्षणिक और सामाजिक कल्याण की गतिविधियों में वक्त देना शुरू किया। वह गुजरात महिला सहकारी समिति, बंबई नगरपालिका विद्यालय समिति, राष्ट्रीय महिला परिषद, अखिल भारतीय महिला सम्मेलन आदि संस्थाओं से जुड़ी रहीं।


✍️📕  *रचनाएं*

हंसा मेहता ने गुजराती भाषा में बच्चों के लिए बाल साहित्य अनुवाद करना उस दौर में शुरू किया, जब बच्चों के लिए कुछ भी उपलब्ध नहीं था। उस समय केवल गिजूभाई मधोका बाल साहित्य के लिए गंभीरता से कार्य कर रहे थे। हंसाबेन ने 'बालवार्तावली' तैयार की, जो बाल कहानियों का संग्रह था। इसके बाद उन्होंने 'किशोरवार्तावली', 'बावलाना पराक्रम', 'पिननोशियों का अनुवाद', 'गुलिवस ट्रैवल्स' का अनुवाद किया। विभिन्न देशों की यात्रा का वर्णन उन्होंने 'अरुण नू अद्भुत स्वप्न', 'एडवेंचर्स ऑफ विक्रम', 'प्रिंस ऑफ अयोध्या' भी प्रकाशित किया।


हंसाबेन ने शेक्सपियर के नाटकों का गुजराती अनुवाद, वाल्मीकि रामायण का संस्कृत से गुजराती अनुवाद किया। इसके साथ ही फ्रेंच भाषा की कुछ रचनाओं का भी गुजराती अनुवाद प्रकाशित किया। अंग्रेज़ी में तीन पुस्तिकाएं प्रकाशित की- 'वीमेन अंडर द हिंदू लॉ ऑफ मैरिज एंड सक्सेशन', 'सिविल लिर्बिटी' और 'इंडियन वुमेन'। बच्चों के लिए बाल साहित्य तैयार करना और सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय होते हुए कई समितियों से जुड़ा होना हंसा मेहता के व्यक्तित्व का एक छोटा सा परिचय है। 1930 में जब हंसाबेन गाँधी जी के साथ जुड़कर स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ीं तो उनके व्यक्तित्व का बहुआयामी पक्ष उभरकर सामने आया। स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी में 1932 और 1940 में उनको जेल भी जाना पड़ा।

💁🏻‍♀️ *संविधान सभा सदस्य*

स्वतंत्रता के बाद हंसा मेहता उन 15 महिलाओं में शामिल थीं, जो भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने वाली घटक विधानसभा (Constituent Assembly) का हिस्सा थीं। वे सलाहकार समिति और मौलिक अधिकारों पर उप समिति की सदस्य थीं। उन्होंने भारत में महिलाओं के लिए समानता और न्याय की वकालत की।

🎖️ *पद्म भूषण*

हंसाबेन ने महिलाओं के स्तर में सुधार के अपने उद्देश्य को अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में भी रखने की कोशिश की। संयुक्त राष्ट्र संघ के 'महिलाओं के स्तर' से संबंधित आयोग में भारत का प्रतिनिधित्व किया और 'मानव अधिकारों का सार्वभौम घोषणापत्र' का प्रारूप तैयार करने वाले संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में भारत का प्रतिनिधित्व किया। वह दर्जनों अंतरराष्ट्रीय प्रतिनिधिमंडलों में शैक्षणिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मामलों में भारत का प्रतिनिधित्व करती रहीं। उनके इन योगदानों के लिए उन्हें सन 1959 में 'पद्म भूषण' से विभूषित किया गया।

🪔 *मृत्यु*

कठिन परिस्थितियों में आशावादी रहने वाला लंबा जीवन जीते हुए 4 अप्रॅल, 1995 को अपने पीछे एक बड़े संघर्ष की पंरपरा छोड़कर चली गईं। महिलाओं के स्तर में सुधार के लिए उनके प्रयासों को संयुक्त राष्ट्र संघ ने सराहा और एक कालजयी विदुषी महिला के रूप उनके योगदानों को याद करता है।


        

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