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के. आर. नारायणन


           *के. आर. नारायणन*  
          ( भारत के दसवें राष्ट्रपती )

पूरा नाम : कोच्चेरील रामन नारायणन
    *जन्म : 27 अक्टूबर, 1920*
         (त्रावणकोर, भारत)
     *मृत्यु : 9 नवम्बर, 2005*
          ( नई दिल्ली, भारत )
अभिभावक : कोच्चेरिल रामन वेद्यार
पत्नी : उषा नारायणन
संतान : चित्रा और अमृता
पद : भारत के दसवें राष्ट्रपति, पत्रकार
कार्य काल : 25 जुलाई, 1997 से 25 जुलाई, 2002
शिक्षा : स्नातकोत्तर, बी. एस. सी. (इकोनामिक्स), एल. एस. ई.
विद्यालय प्राथमिक विद्यालय, सेंट मेरी हाई स्कूल, सी. एम. एस. स्कूल, त्रावणकोर विश्वविद्यालय, लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स
पुरस्कार-उपाधि : वर्ल्ड स्टेट्समैन अवार्ड, 'डॉक्टर ऑफ़ साइंस, डॉक्टर ऑफ़ लॉस
रचनाएँ : 'इण्डिया एण्ड अमेरिका एस्सेस इन अंडरस्टैडिंग', 'इमेजेस एण्ड इनसाइट्स' और 'नॉन अलाइमेंट इन कन्टैम्परेरी इंटरनेशनल निलेशंस'
अन्य जानकारी : राष्ट्रपति नियुक्त होने के बाद नारायणन ने एक नीति अथवा सिद्धान्त बना लिया था कि वह किसी भी पूजा स्थान या इबादतग़ाह पर नहीं जाएँगे-चाहे वह देवता का हो या देवी का। यह एकमात्र ऐसे राष्ट्रपति रहे, जिन्होंने अपने कार्यकाल में किसी भी पूजा स्थल का दौरा नहीं किया।
           कोच्चेरील रामन नारायणन भारतीय गणराज्य के दसवें निर्वाचित राष्ट्रपति के रूप में जाने जाते हैं। यह प्रथम दलित राष्ट्रपति तथा प्रथम मलयाली व्यक्ति थे, जिन्हें देश का सर्वोच्च पद प्राप्त हुआ। इन्हें 14 जुलाई, 1997 को हुए राष्ट्रपति चुनाव में विजय प्राप्त हुई थी। श्री के. आर. नारायणन को कुल मतों का 95 प्रतिशत प्राप्त हुआ। मतगणना का कार्य 17 जुलाई, 1997 को सम्पन्न हुआ। भारत के पूर्व चुनाव आयुक्त श्री टी. एन. शेषन इनके प्रतिद्वन्द्वी थे। 25 जुलाई, 1997 को सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जे. एस. वर्मा ने श्री के. आर. नारायणन को राष्ट्रपति पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाई। इनका कार्यकाल 25 जुलाई, 2002 को समाप्त हुआ था।

💁🏻‍♂️ *जन्म एवं परिवार*
                श्री के. आर. नारायणन का जन्म 27 अक्टूबर, 1920 को हुआ था, जो सरकारी दस्तावेज़ों में उल्लिखित है। लेकिन सत्य यह है कि इनकी वास्तविक जन्मतिथि विवादों के घेरे में है। श्री नारायणन के चाचा इनके प्रथम दिन स्कूल गए थे और अनुमान से 27 अक्टूबर, 1920 इनकी जन्मतिथि लिखा दी थी। इनका जन्म पैतृक घर में हुआ था, जो कि एक कच्ची झोपड़ी की शक्ल में था। यह कच्ची झोपड़ी पेरुमथॉनम उझावूर ग्राम, त्रावणकोर में थी। वर्तमान में यह ग्राम ज़िला कोट्टायम (केरल) में विद्यमान है। श्री के. आर. नारायणन अपने पिता की सात सन्तानों में चौथे थे। इनके पिता का नाम कोच्चेरिल रामन वेद्यार था। यह भारतीय पद्धति के सिद्धहस्त आयुर्वेदाचार्य थे। इनके पूर्वज पारवान जाति से सम्बन्धित थे, जो कि नारियल तोड़ने का कार्य करता है। इनका परिवार काफ़ी ग़रीब था, लेकिन इनके पिता अपनी चिकित्सकीय प्रतिभा के कारण सम्मान के पात्र माने जाते थे। श्री नारायणन के चार भाई-बहन थे– के. आर. गौरी, के. आर. भार्गवी, के. आर. भारती और के. आर. भास्करन। इनके दो भाइयों की मृत्यु तब हुई जब के. आर. नारायणन 20 वर्ष के थे। इनकी बड़ी बहन गौरी एक होमियोपैथ हैं और इन्होंने शादी नहीं की। इनके छोटे भाई भास्करन ने भी विवाह नहीं किया, जो कि पेशे से अध्यापक हैं और उझावूर में ही रहते थे। उझावूर को आज श्री के. आर. नारायणन की जन्मभूमि के लिए जाना जाता है। 🎯 *विद्यार्थी जीवन*
             श्री नारायणन का परिवार आर्थिक रूप से समृद्ध नहीं था, लेकिन उनके पिता शिक्षा का महत्त्व समझते थे। इनकी आरम्भिक शिक्षा उझावूर के अवर प्राथमिक विद्यालय में हुई। यहाँ 5 मई, 1927 को यह स्कूल के छात्र के रूप में नामांकित हुए, जबकि उच्च प्राथमिक विद्यालय उझावूर में इन्होंने 1931 से 1935 तक अध्ययन किया। इन्हें 15 किलोमीटर पैदल चलकर स्कूल जाना पड़ता था और चावल के खेतों से होकर गुज़रना पड़ता था। उस समय शिक्षा शुल्क बेहद साधारण था, लेकिन उसे देने में भी इन्हें कठिनाई होती थी। श्री नारायणन को प्राय: कक्षा के बाहर खड़े होकर कक्षा में पढ़ाये जा रहे पाठ को सुनना पड़ता था, क्योंकि शिक्षा शुल्क न देने के कारण इन्हें कक्षा से बाहर निकाल दिया जाता था। इनके पास पुस्तकें ख़रीदने के लिए भी धन नहीं होता था। तब अपने छोटे भाई की सहायता के लिए के. आर. नारायणन नीलकांतन छात्रों से पुस्तकें मांगकर उनकी नक़ल उतारकर नारायणन को देते थे। अस्थमा के कारण रुग्ण नीलकांतन घर पर ही रहते थे। नारायणन ने सेंट मेरी हाई स्कूल से 1936-37 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके पूर्व 1935-36 में इन्होंने सेंट मेरी जोंस हाई स्कूल कूथाट्टुकुलम में भी अध्ययन किया था।

छात्रवृत्ति का सहारा पाकर श्री नारायणन ने इंटरमीडिएट परीक्षा 1938-40 में कोट्टायम के सी. एम. एस. स्कूल से उत्तीर्ण की। इसके बाद इन्होंने कला (ऑनर्स) में स्नातक स्तर की परीक्षा पास की। फिर अंग्रेज़ी साहित्य में त्रावणकोर विश्वविद्यालय से 1943 में स्नातकोत्तर परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की (वर्तमान में यह केरल विश्वविद्यालय है)। इसके पूर्व त्रावणकोर विश्वविद्यालय में किसी भी दलित छात्र ने प्रथम स्थान नहीं प्राप्त नहीं किया था। जब इनका परिवार विकट परेशानियों का सामना कर रहा था, तब 1944-45 में श्री नारायणन ने बतौर पत्रकार 'द हिन्दू' और 'द टाइम्स ऑफ़ इण्डिया' में कार्य किया। 10 अप्रैल, 1945 को पत्रकारिता का धर्म निभाते हुए इन्होंने मुम्बई में महात्मा गाँधी का साक्षात्कार लिया। इसके बाद वह 1945 में ही इंग्लैण्ड चले गए और 'लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनामिक्स' में राजनीति विज्ञान का अध्ययन किया। इन्होंने बी. एस. सी. इकोनामिक्स (ऑनर्स) की डिग्री और राजनीति विज्ञान में विशिष्टता हासिल की। इस दौरान जे. आर. डी. टाटा ने इन्हें छात्रवृत्ति प्रदान करके इनकी सहायता की। श्री नारायणन इण्डिया लीग में भी सक्रिय रहे। तब वी. के. कृष्णामेनन इण्डिया लीग के इंग्लैण्ड में प्रभारी थे। यह के. एन. मुंशी द्वारा प्रकाशित किए जाने वाले 'द सोशल वेलफेयर' वीकली समाचार पत्र के लंदन स्थित संवाददाता भी रहे। लंदन में इनके साथ आवास करने वाले वीरासामी रिंगाडू भी थे, जो बाद में मॉरिशस के राष्ट्रपति बने। इस समय इनके एक अन्य प्रगाढ़ मित्र ट्रुडयु भी थे, जो कि बाद में कनाडा के प्रधानमंत्री निर्वाचित हुए।

👫🏻 *दाम्पत्य जीवन*
                  8 जून, 1951 को श्री नारायणन ने 'मा टिंट टिंट' से विवाह किया। जब यह रंगून और बर्मा (म्यांमार) में कार्यरत थे, तब इनकी भेंट कुमारी मा टिंट टिंट से हुई थी। यह मित्रता शीघ्र ही प्रेम में बदल गई और दोनों ने विवाह करने का निर्णय कर लिया। तब मा टिंट टिंट वाई. डब्ल्यू. सी. ए. में कार्यरत थीं और नारायणन विद्यार्थी थे। लस्की ने नारायणन से कहा कि वह राजनीतिक आज़ादी के सम्बन्ध में व्याख्यान दें। तभी मा टिंट टिंट इनके सम्पर्क में आई थीं। इनके विवाह को तब विशिष्ट विधान की आवश्यकता पण्डित नेहरू से आशयित थी, क्योंकि भारतीय क़ानून के अनुसार नारायणन 'भारतीय विदेश सेवा' में कार्यरत थे और मा टिंट टिंट एक विदेशी महिला थीं। शादी के बाद मा टिंट टिंट का भारतीय नाम उषा रखा गया और वह भारतीय नागरिक भी बन गईं। श्रीमती उषा नारायणन ने भारत में महिलाओं तथा बच्चों के कल्याण के लिए कई कार्य किए। इन्होंने बर्मा की लघु कथाओं का अनुवाद करके प्रकाशित करवाया, जिसका शीर्षक था, 'थेइन पे मिंट'। इन्हें चित्रा और अमृता के रूप में दो पुत्रियों की प्राप्ति हुईं चित्रा भारतीय राजदूत के रूप में स्वीडन और तुर्की में अपनी सेवाएँ दे चुकी हैं।
🔮 *राजनीतिक जीवन*
          श्री नारायणन का राजनीति में प्रवेश श्रीमती इंदिरा गाँधी के आग्रह से सम्भव हुआ। वह लगातार तीन लोकसभा चुनावों 1984, 1989 एवं 1991 में विजयी होकर संसद पहुँचे। यह ओट्टापलल (केरल) की लोकसभा सीट से निर्वाचित हुए। कांग्रेसी सांसद बनने के बाद वह राजीव गाँधी सरकार के केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में सम्मिलित किए गए। एक मंत्री के रूप में इन्होंने योजना (1985), विदेश मामले (1985-86) तथा विज्ञान एवं तकनीकी (1986-89) विभागों का कार्यभार सम्भाला। सांसद के रूप में इन्होंने अंतराष्ट्रीय पेटेण्ट क़ानून को भारत में नियंत्रित किया। 1989-91 में जब कांग्रेस सत्ता से बाहर थी, तब श्री नारायणन विपक्षी सांसद की भूमिका में रहे। 1991 में जब पुन: कांग्रेस सत्ता में लौटी तो इन्हें कैबिनेट में सम्मिलित नहीं किया गया। तब केरल के मुख्यमंत्री के. करुणाकरन जो कि इनके राजनीतिक प्रतिस्पर्धी थे, ने इन्हें सूचित किया कि केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में सम्मिलित न किए जाने का कारण उनकी कम्युनिस्ट समर्थक नीति है। तब उन्होंने जवाब दिया कि मैंने कम्युनिस्ट उम्मीदवारों (ए. के. बालन और लेनिन राजेन्द्रन) को ही तीनों बार चुनाव में पराजित किया था। अत: मैं कम्युनिस्ट विचारधारा का समर्थक कैसे हो सकता हूँ।

श्री नारायणन 21 अगस्त, 1992 को डॉ. शंकर दयाल शर्मा के राष्ट्रपतित्व काल में उपराष्ट्रपति निर्वाचित हुए। इनका नाम प्राथमिक रूप से वी. पी. सिंह ने अनुमोदित किया था। उसके बाद जनता पार्टी संसदीय नेतृत्व द्वारा वाम मोर्चे ने भी इन्हें अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। पी. वी. नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने भी इन्हें उम्मीदवार के रूप में हरी झण्डी दिखा दी। इस प्रकार उपराष्ट्रपति पद हेतु वह सर्वसम्मति से उम्मीदवार बने। वाम मोर्चे के बारे में नारायणन ने स्पष्टीकरण दिया कि वह कभी भी साम्यवादी के कट्टर समर्थक अथवा विरोधी नहीं रहे। वाम मोर्चा उनके वैचारिक अन्तर को समझता था लेकिन इसके बाद भी उसने उपराष्ट्रपति चुनाव में उनका समर्थन किया और बाद में राष्ट्रपति चुनाव में भी। इस प्रकार वाम मोर्चे के समर्थन से नारायणन को लाभ पहुँचा और उनकी राजनीतिक स्थिति को स्वीकार्य किया गया। जब 6 दिसम्बर, 1992 को बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ, तब इस घटना को इन्होंने 'महात्मा गांधी की हत्या के बाद देश में यह सबसे बड़ी दुखांतिका घटी है' कथन से निरूपित किया। ♦️ *राष्ट्रपति पद पर*
            14 जुलाई, 1997 को हुए राष्ट्रपति चुनाव का नतीजा जब 17 जुलाई, 1997 को घोषित हुआ तो पता चला कि श्री नारायणन को कुल वैध मतों का 95 प्रतिशत प्राप्त हुआ था। यह एकमात्र ऐसा राष्ट्रपति चुनाव था जो कि केन्द्र में अल्पमत सरकार के रहते हुए भी समाप्त हुआ। इसमें पूर्व चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषन प्रतिद्वन्द्वी उम्मीदवार थे। शिव सेना के अतिरिक्त सभी दलों ने नारायणन के पक्ष में मतदान किया, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने यह कहते हुए इनका विरोध किया कि उन्हें भारतीय संस्कृति की जीत का आधार उनका दलित होना है। इससे पूर्व कोई भी दलित राष्ट्रपति नहीं बना था। श्री नारायणन को 25 जुलाई, 1997 को संसद भवन के केन्द्रीय कक्ष में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री जे. एस. वर्मा ने राष्ट्रपति पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाई। इस अवसर पर अपने आरम्भिक सम्बोधन में इन्होंने कहा- "देश का सर्वोच्च संवैधानिक पद एक ऐसे व्यक्ति को प्रदान किया गया है, जो समाज के धरातल से जुड़ा था, परन्तु धूल और गर्मी के मध्य चला। यह निर्वाचन साबित करता है कि एक सामान्य नागरिक भी सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में केन्द्रीय भूमिका का निर्वहन कर सकता है। मैं इसे अपनी व्यक्तिगत प्रसन्नता न मानकर एक सार्थक एवं प्रतिष्ठापूर्ण परम्परा का आरम्भ मानता हूँ।"

⚜️ *स्वर्णिम वर्षगांठ*
               1997 में जब भारत की आज़ादी की स्वर्णिम वर्षगांठ मनाई गई तो भारतवर्ष के राष्ट्रपति श्री नारायणन ही थे। स्वर्णिम वर्षगांठ की पूर्व संध्या अर्थात् 14 अगस्त, 1997 को राष्ट्र के नाम अपना सम्बोधन देते हुए इन्होंने भारत की प्रजातांत्रिक व्यवस्था और सरकार की नीतियों को आज़ादी के बाद की सबसे बड़ी तथा महत्त्वपूर्ण उपलब्धि बताया। अगली सुबह लाल क़िले की प्राचीर से प्रधानमंत्री इन्द्रकुमार गुजराल ने देश को सम्बोधित करते हुए कहा था- "गांधी जी ने जब भारत के भविष्य को लेकर स्वप्न देखा था, तब उन्होंने कहा था कि भारत को सच्ची आज़ादी उस दिन प्राप्त होगी, जब एक दलित देश का राष्ट्रपति होगा। आज हमारा यह सौभाग्य है कि हम गांधी जी के स्वप्न को पूर्ण होता देख रहे हैं। हमारे राष्ट्रपति जिन पर समस्त देश को गर्व है, एक बेहद ग़रीब परिवार से सम्बन्ध रखते थे। इन्होंने राष्ट्रपति भवन को गर्व और सम्मान प्रदान किया है। यह हमारे प्रजातंत्र की शोभा है कि समाज के कमज़ोर वर्ग से निकले व्यक्ति को उसकी प्रतिभा के अनुकूल सही सम्मान प्राप्त हो रहा है। आज देश के सभी नागरिक चाहे वे अल्पसंख्यक समुदाय हों, दलित समुदाय से हों अथवा आदिवासी समुदाय से हों, देश के विकास के लिए एकजुट होकर कार्य कर रहे हैं।"

📦 *पोलिंग बूथ मतदान*
             1998 के आम चुनावों में राष्ट्रपति रहते हुए भी श्री नारायणन ने 16 फ़रवरी, 1998 को एक स्कूल के पोलिंग बूथ में मतदान किया जो राष्ट्रपति भवन के कॉम्प्लेक्स में स्थित था। इन्होंने एक साधारण मतदान में भाग लेकर लोगों को मतदान के प्रति उत्साहित करने का कार्य किया। वह उस परम्परा को बदलना चाहते थे, जिसके अनुसार पूर्व भारतीय राष्ट्रपति चुनावों में मतदान नहीं करते थे। इन्होंने राष्ट्रपति के रूप में 1999 के आम चुनावों में भी अपने मताधिकार का प्रयोग किया था। इस प्रकार देश के प्रथम नागरिक अर्थात् राष्ट्रपति रहते हुए भी एक आम व्यक्ति बने रहे। अपने कार्यकाल के दौरान श्री नारायणन ने अपनी शक्तियों का विवेक सम्मत रूप से उपयोग किया और राष्ट्रपति की शक्तियों को पारदर्शिता के साथ प्रस्तुत किया। इस प्रकार इन्होंने राष्ट्रपति की शक्तियों को व्यावहारिक रूप में अपनाकर दिखाया। फिर परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनीं कि इन्हें अपने क्षेत्राधिकार की शक्तियों का उपयोग करना आवश्यक हो गया।

🛡️ *दो बार संसद भंग*
                अपने राष्ट्रपति काल के दौरान श्री नारायणन ने दो बार संसद को भंग करने का कार्य किया। लेकिन ऐसा करने के पूर्व इन्होंने अपने अधिकार का उपयोग करते हुए राजनीतिक परिदृश्य को संचालित करने वाले लोगों से परामर्श भी किया था। तब यह नतीजा निकाला कि उन स्थितियों में कोई भी राजनीतिक दल बहुमत सिद्ध करने की स्थिति में नहीं था। यह स्थिति तब उत्पन्न हुई थी, जब कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने इन्द्रकुमार गुजराल सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया और सरकार के बहुमत में होने का दावा दांव पर लग गया। श्री इन्द्रकुमार गुजराल को 28 नवम्बर, 1997 तक सदन में अपने बहुमत का जादुई आंकड़ा साबित करना था। प्रधानमंत्री इन्द्रकुमार गुजराल बहुमत सिद्ध करने में असमर्थ थे, अत: उन्होंने राष्ट्रपति को परामर्श दिया कि लोकसभा भंग कर दी जाए। श्री नारायणन ने भी परिस्थितियों की समीक्षा करते हुए निर्णय लिया कि कोई भी दल बहुमत द्वारा सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है। अत: श्री गुजराल का परामर्श स्वीकार करते हुए उन्होंने लोकसभा भंग कर दी। इसके बाद हुए चुनाव में भारतीय जनता पार्टी एक ऐसी सकल पार्टी के रूप में उभरकर सामने आई, जिसके पास में सबसे ज़्यादा सांसद थे। भाजपा के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को एन. डी. ए. का भी समर्थन प्राप्त था। अत: नारायणन ने वाजपेयी से कहा कि वह समर्थन करने वाली पार्टियों के समर्थन पत्र प्रदान करें, ताकि यह स्पष्ट हो जाए कि उनके पास सरकार बनाने के लायक़ बहुमत है। श्री अटल बिहारी वाजपेयी समर्थन जुटाने में समर्थ थे और इस आधार पर उन्हें प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया गया। साथ ही यह शर्त भी थी कि 10 दिन में वाजपेयी अपना बहुमत सदन में साबित करें। 14 अप्रैल, 1999 को जयललिता ने राष्ट्रपति नारायणन को पत्र लिखा कि वह वाजपेयी सरकार से अपना समर्थन वापस ले रही हैं। तब श्री नारायणन ने वाजपेयी को सदन में बहुमत साबित करने को कहा। 17 अप्रैल को वाजपेयी सदन में बहुमत साबित करने की स्थिति में नहीं थे। इस कारण वाजपेयी को हार का सामना करना पड़ा। 🔮 *लोकसभा चुनाव*
           श्री अटल बिहारी वाजपेयी तथा विपक्ष की नेता एवं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी दोनों सरकार बनाने की स्थिति में नहीं थे। अत: जब दोनों के द्वारा सार्थक संकेत प्राप्त नहीं हुए तो राष्ट्रपति श्री नारायणन ने प्रधानमंत्री को सूचित किया कि केन्द्र सरकार का संकट टालने का एक मात्र उपाय है कि नए लोकसभा चुनाव करवाएँ जाएँ। तब अटल बिहारी वाजपेयी की सलाह पर श्री नारायणन ने लोकसभा भंग कर दी। इसके बाद हुए चुनावों में एन. डी. ए. को बहुमत प्राप्त हुआ और वाजपेयी पुन: प्रधानमंत्री बनाए गए। इन निर्णयों के द्वारा राष्ट्रपति श्री के. आर. नारायणन ने प्रधानमंत्री की नियुक्ति के सम्बन्ध में नया उदाहरण पेश किया। यदि किसी दल अथवा चुनाव पूर्व के गठबन्धन को बहुमत प्राप्त होता है तो किसी व्यक्ति को प्रधानमंत्री तभी बनाया जा सकता है, जब वह राष्ट्रपति को यह विश्वास दिलाने में सफल हो जाए कि उसके पास सदन में बहुमत है (गठबन्धन के दलों द्वारा समर्थन का पत्र प्रदान करे) और वह उसे साबित भी कर सकता है। इस प्रकार त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में राष्ट्रपति श्री नारायणन ने यह उदाहरण पेश किया कि किस प्रकार बहुमत साबित किया जाना चाहिए। इससे पूर्व के राष्ट्रपतियों- नीलम संजीव रेड्डी, आर. वेंकटरमण और डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने पूर्व परम्परा के अनुसार सबसे बड़ी एकल पार्टी अथवा चुनाव पूर्व उस गठबन्धन के मुखिया को सरकार बनाने का न्योता प्रदान किया था। लेकिन उन्होंने यह पड़ताल नहीं की थी कि उनके पास सदन में बहुमत साबित करने की योग्यता है अथवा नहीं।

🪙 *राष्ट्रपति शासन*
           आर्टिकल 356 के अनुसार केन्द्रीय मंत्रिमण्डल की अनुशंसा पर राष्ट्रपति द्वारा किसी भी राज्य की क़ानून व्यवस्था बिगड़ने की स्थिति में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है। ऐसे मौक़े दो बार आए। पहली बार इन्द्रकुमार गुजराल सरकार ने उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की सरकार को बर्ख़ास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग 22 अक्टूबर, 1999 को की। दूसरी बार अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने बिहार में राबड़ी देवी की सरकार को 25 सितम्बर, 1994 को बर्ख़ास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग की। इन दोनों मौकों पर राष्ट्रपति श्री नारायणन ने उच्चतम न्यायालय के 1994 के निर्णय का अवलोकन किया, जो एस. आर. बोम्मई बनाम यूनियन ऑफ़ इण्डिया के मामले में दिया गया था। दोनों प्रकरणों में कैबिनेट द्वारा राष्ट्रपति के विशेषाधिकार का सम्मान किया गया था। इन मौकों पर राष्ट्रपति ने ऐसे आग्रह पुनर्विचार के लिए लौटाकर एक महत्त्वपूर्ण दृष्टान्त पेश किया, ताकि संघता में राज्य सरकारों के अधिकारों की भी सुरक्षा सम्भव हो सके।

कार्यवाहक सरकार द्वारा शासन
मई 1999 में पाकिस्तान के साथ कारगिल में युद्ध छिड़ गया। पाकिस्तानी सैनिकों ने आतंकवादियों के साथ में मिलकर युद्ध की स्थिति पैदा कर दी थी। उस समय अटल बिहारी वाजपेयी कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में सरकार चला रहे थे। वाजपेयी सरकार अविश्वास प्रस्ताव पर हार चुकी थी और विपक्ष भी सरकार बनाने में असफल रहा। ऐसी स्थिति में लोकसभा भंग कर दी गई थी और कार्यवाहक सरकार द्वारा शासन चलाया जा रहा था। इस कारण प्रजातंत्रीय जवाबदेही की समस्या उत्पन्न हो गई थी। जिस प्रकार मुख्य सरकार के कार्यों की समीक्षा, विवेचना और परख संसद में की जाती है, उस प्रकार किया जाना सम्भव नहीं था। ऐसी विकट स्थिति में राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने कार्यवाहक प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी को सलाह दी कि राज्यसभा में युद्ध को लेकर चर्चा की जाए। इसी प्रकार की मांग कई विपक्षी दलों के द्वारा भी उठाई गई! यद्यपि इस प्रकार का कोई भी पूर्व उदाहरण नहीं था कि सरकार न रहने की स्थिति में राज्यसभा का सत्र अलग से बुलाया जाए। इसके अतिरिक्त श्री नारायणन ने तीनों सेनाओं के सेनाधिकारियों से युद्ध में शहीद हुए सैनिकों को श्रंद्धाजंलि भी दी थी। राष्ट्रपति के रूप में यह संवैधानिक मर्यादाओं से बंधे हुए थे। वह बहुत कुछ करना चाहते थे, लेकिन मर्यादाओं का कभी भी उल्लंघन नहीं किया। ⚜️ *राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार*
                राष्ट्रपति नियुक्त होने के बाद नारायणन ने एक नीति अथवा सिद्धान्त बना लिया था कि वह किसी भी पूजा स्थान या इबादतग़ाह पर नहीं जाएँगे-चाहे वह देवता का हो या देवी का। यह एकमात्र ऐसे राष्ट्रपति रहे जिन्होंने अपने कार्यकाल में किसी भी पूजा स्थल का दौरा नहीं किया। राष्ट्रपति के रूप में जब श्री नारायणन की पदावधि के अवसान का समय निकट आया तो विभिन्न जनसमुदायों की राय थी कि इन्हें दूसरे सत्र के लिए भी राष्ट्रपति बनाया जाना चाहिए। इस समय एन. डी. ए. के पास अपर्याप्त बहुमत था। लेकिन नारायणन ने स्पष्ट कर दिया कि वह सर्वसम्मति के आधार पर ही पुन: राष्ट्रपति बनना स्वीकार करेंगे। उस समय की विपक्षी पार्टियों- कांग्रेस, जनता दल, वाम मोर्चा तथा अन्य ने भी इनको दूसरी बार राष्ट्रपति बनाये जाने का समर्थन किया था। कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति श्री नारायणन से मुलाक़ात करके यह प्रार्थना की कि वह अगले सत्र हेतु भी राष्ट्रपति बनें। लेकिन वाजपेयी ने इनसे भेंट करके यह स्पष्ट कर दिया कि उनकी उम्मीदवारी को लेकर एन. डी. ए. में असहमति है। एन. डी. ए. ने उपराष्ट्रपति कृष्णकान्त को सर्वसम्मति से राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने का प्रयास किया। विपक्ष से इस बारे में सहयोग मांगा गया और कांग्रेस तक भी वाजपेयी का संदेश गया। लेकिन एक ही दिन में यह स्पष्ट हो गया कि कृष्णकान्त की उम्मीदवारी को लेकर एन. डी. ए. के घटक दल ही एकमत नहीं हैं। इसके बाद राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में डॉ. पी. सी. अलेक्जेण्डर के नाम पर विचार किया गया। लेकिन विपक्षी दलों ने इनकी उम्मीदवारी को नकार दिया। फिर विपक्षियों ने श्री नारायणन से पुन: सम्पर्क किया और राष्ट्रपति पद हेतु विचार करने का अनुरोध किया। तब एन. डी. ए. द्वारा डॉ. अब्दुल कलाम का नाम अधिकारिक उम्मीदवार के रूप में आगे आया। लेकिन इस बारे में सर्वसम्मति की परवाह नहीं की गई। मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी ने विपक्ष की एकजुटता की परवाह न करते हुए अब्दुल क़लाम के नाम पर सहमति व्यक्त कर दी। ऐसी स्थिति में श्री नारायणन ने स्वयं को राष्ट्रपति पद की पुन: उम्मीदवारी से अलग कर लिया। बाद में जब इस सन्दर्भ में श्री नारायणन से पूछा गया तो उन्होंने भारतीय जनता पार्टी की नीति को ज़िम्मेदार ठहराया, जिसके कारण दूसरी बार राष्ट्रपति बनना मंज़ूर नहीं किया। इन्होंने आगे स्पष्ट करते हुए कहा कि भाजपा भारत की धर्मनिरपेक्ष नीति को आक्रामक हिन्दुत्ववादी नीति से नुक़सान पहुँचाने का काम कर रही है।

🎯 *विदाई*
          श्री नारायणन ने विशेष रूप से मुरली मनोहर जोशी (जो एच. आर. डी. मंत्री थे) का उल्लेख किया, जिन्हों शिक्षा व्यवस्था में बी. जे. पी. की हिन्दुत्ववादी विचारधारा को सम्मिलित करने का प्रयास किया था। साथ ही विभिन्न क्षेत्रों में उन्होंने संवैधानिक रूप से ऐसे लोगों की नियुक्तियाँ की थीं, जो बी. जे. पी. की विचारधारा को स्थापित करने का कार्य कर सकते थे। श्री नारायणन प्रजातांत्रिक एवं संवैधानिक मूल्यों के अनुसार ही कार्य करना चाहते थे और बी. जे. पी. को इनकी यह कार्यशैली पसन्द नहीं थी। 24 जुलाई, 2002 को श्री नारायणन ने अपने विदाई सम्बोधन में युवा वर्ग से कहा कि वह सामाजिक कार्यों के उत्थान में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करे। इन्होंने अपने अनुभवों पर आधारित संस्मरणों के माध्यम से भारतीय लोगों की अच्छाइयों एवं बुद्धिमत्ता को परिलक्षित किया। श्री नारायणन ने कहा कि जब वह उझावूर में विभिन्न धर्मावलम्बियों के साथ रहते हुए बड़े हो रहे थे, तब धार्मिक सहिष्णुता और एकता के साथ हिन्दू एवं क्रिश्चियन लोगों ने उनकी आरम्भिक शिक्षा में मदद की थी। इसी प्रकार ओट्टापासम में निर्वाचन के समय भी सभी जाति एवं धर्म के लोगों ने इनके चुनाव प्रचार में भाग लिया था। इन्होंने कहा कि भारत की एकता और प्रजातांत्रिक व्यवस्था के लिए धार्मिक सहिष्णुता का भाव काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार रहा है। अत: हिन्दुओं को चाहिए कि वे बहुसंख्यक होने के कारण हिन्दुत्व के पारम्परिक मूल्यों के अनुसार सभी धर्मों का सम्मान करें।

🌟 *श्री नारायणन के शब्दों में*
          श्री नारायणन विशेष रूप से कहा-"भारत के राष्ट्रपति के रूप में मैंने बेहद दु:ख और स्वयं को असहाय महसूस किया। ऐसे कई अवसर आए जब मैं देश के नागरिकों के लिए कुछ नहीं कर सका। इन अनुभवों ने मुझे काफ़ी दु:ख पहुँचाया। सीमित शक्तियों के कारण मैं वेदना महसूस करता था। वस्तुत: शक्ति और असहायता के मिश्रण को दुखान्त ही कहना चाहिए।"

🪔 *निधन*
           श्री के. आर. नारायणन का निधन 9 नवम्बर, 2005 को आर्मी रिसर्च एण्ड रैफरल हॉस्पिटल, नई दिल्ली में हुआ। इन्हें न्यूमोनिया की शिकायत थी। फिर गुर्दों के काम न करने के कारण इनकी मृत्यु हो गई। 10 नवम्बर, 2005 को पूर्ण राजकीय सम्मान के साथ सूर्यास्त के समय इनका अन्तिम संस्कार इनके भतीजे डॉ. पी. वी. रामचन्द्रन ने यमुना नदी के किनारे 'एकता स्थल' पर किया। यह स्थान 'शान्ति वन' के निकट है, जहाँ इनके मार्गदर्शक पण्डित नेहरू की स्मृतियाँ जीवित हैं। इनकी पुत्री चित्रा (तुर्की में भारतीय राजदूत), पत्नी उषा, दूसरी पुत्री अमृता तथा परिवार के अन्य सदस्यों को देश-विदेश से कई संवेदना संदेश प्राप्त हुए। पुत्री चित्रा ने कहा कि उनके पिता को राष्ट्र प्रेम, विशिष्ट नैतिक मनोबल तथा साहस के लिए सदैव याद किया जाएगा।

📜 *सम्मान*
                श्री के. आर. नारायणन ने कुछ पुस्तकें भी लिखीं, जिनमें 'इण्डिया एण्ड अमेरिका एस्सेस इन अंडरस्टैडिंग', 'इमेजेस एण्ड इनसाइट्स' और 'नॉन अलाइमेंट इन कन्टैम्परेरी इंटरनेशनल निलेशंस' उल्लेखनीय हैं। इन्हें राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी कई पुरस्कार प्राप्त हुए थे। 1998 में इन्हें 'द अपील ऑफ़ कॉनसाइंस फ़ाउंडेशन', न्यूयार्क द्वारा 'वर्ल्ड स्टेट्समैन अवार्ड' दिया गया। 'टोलेडो विश्वविद्यालय', अमेरिका ने इन्हें 'डॉक्टर ऑफ़ साइंस' की तथा 'आस्ट्रेलिया विश्वविद्यालय' ने 'डॉक्टर ऑफ़ लॉस' की उपाधि दी। इसी प्रकार से राजनीति विज्ञान में इन्हें डॉक्टरेट की उपाधि तुर्की और सेन कार्लोस विश्वविद्यालय द्वारा प्रदान की गई। भारत माता के इस सच्चे सपूत को सदैव याद किया जाएगा जो राष्ट्रपति से ज़्यादा एक बेहतर इंसान थे।
         
         

यशवंतराव होलकर



           *सवाई श्रीमंत*
        *यशवंतराव होलकर*

     *जन्म : 3 दिसेंबर 1776*
(वाफगांव, पुणे, मराठा साम्राज्य
महाराष्ट्र, भारत)

     *निधन : 28 अक्तूबर 1811*
             (भनपुरा, मालवा)

पूरा नाम : हिज हाईनेस महाराजाधिराज राज राजेश्वर सवाई श्रीमंत यशवंतराव होलकर

पिता : तुकोजी राव होलकर

धर्म : हिन्दू

राज्याभिषेक : जनवरी 1799
उत्तरवर्ती : मल्हारराव होलकर 
                    द्वितीय

यशवंतराव होलकर तुकोजीराव होलकर का पुत्र था। वह उद्दंड होते हुए भी बड़ा साहसी तथा दक्ष सेनानायक था। तुकोजी की मृत्यु पर (1797) उत्तराधिकार के प्रश्न पर दौलतराव शिंदे के हस्तक्षेप तथा तज्जनित युद्ध में यशवंतराव के ज्येष्ठ भ्राता मल्हरराव के वध (1797) के कारण, प्रतिशोध की भावना से प्रेरित हो यशवंतराव ने शिंदे के राज्य में निरंतर लूट-मार आरंभ कर दी। अहिल्या बाई का संचित कोष हाथ आ जाने से (1800 ई) उसकी शक्ति और भी बढ़ गई। 1802 में उसने पेशवा तथा शिंदे को सम्मिलित सेना को पूर्णतया पराजित किया जिससे पेशवा ने बसई भागकर अंग्रेजों से संधि की (31 दिसम्बर 1802)। फलस्वरूप द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध छिड़ गया। शिंदे से वैमनस्य के कारण मराठासंघ छोड़ने में यशवंतराव ने बड़ी गलती की क्योंकि भोंसले तथा शिंदे क पराजय के बाद, होलकर को अकेले अंग्रेजों से युद्ध करना पड़ा। पहले ता यशवंतराव ने मॉनसन पर विजय पाई (1804), किंतु, फर्रूखाबाद (नवम्बर 17) तथा डीग (दिसंबर 13) में उसकी पराजय हुई। फलस्वरूप उसे अंग्रेजों से संधि स्थापित करनी पड़ी (24 दिसबंर, 1805) अंत में, पूर्ण विक्षिप्तावस्था में, तीस वर्ष की आयु में उसकी मृत्यु हो गई (28 अक्टूबर 1811)।

एक ऐसा भारतीय शासक जिसने अकेले दम पर अंग्रेजों को नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया था। इकलौता ऐसा शासक, जिसका खौफ अंग्रेजों में साफ-साफ दिखता था। एकमात्र ऐसा शासक जिसके साथ अंग्रेज हर हाल में बिना शर्त समझौता करने को तैयार थे। एक ऐसा शासक, जिसे अपनों ने ही बार-बार धोखा दिया, फिर भी जंग के मैदान में कभी हिम्मत नहीं हारी।

इतना महान था वो भारतीय शासक, फिर भी इतिहास के पन्नों में वो कहीं खोया हुआ है। उसके बारे में आज भी बहुत लोगों को जानकारी नहीं है। उसका नाम आज भी लोगों के लिए अनजान है। उस महान शासक का नाम है - यशवंतराव होलकर। यह उस महान वीरयोद्धा का नाम है, जिसकी तुलना विख्यात इतिहास शास्त्री एन एस इनामदार ने 'नेपोलियन' से की है।

पश्चिम मध्यप्रदेश की मालवा रियासत के महाराज यशवंतराव होलकर का भारत की आजादी के लिए किया गया योगदान महाराणा प्रताप और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से कहीं कम नहीं है। यशवतंराव होलकर का जन्म 1776 ई. में हुआ। इनके पिता थे - तुकोजीराव होलकर। होलकर साम्राज्य के बढ़ते प्रभाव के कारण ग्वालियर के शासक दौलतराव सिंधिया ने यशवंतराव के बड़े भाई मल्हारराव को मौत की नींद सुला दिया।

इस घटना ने यशवंतराव को पूरी तरह से तोड़ दिया था। उनका अपनों पर से विश्वास उठ गया। इसके बाद उन्होंने खुद को मजबूत करना शुरू कर दिया। ये अपने काम में काफी होशियार और बहादुर थे। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1802 ई. में इन्होंने पुणे के पेशवा बाजीराव द्वितीय व सिंधिया की मिलीजुली सेना को मात दी और इंदौर वापस आ गए।

इस दौरान अंग्रेज भारत में तेजी से अपने पांव पसार रहे थे। यशवंत राव के सामने एक नई चुनौती सामने आ चुकी थी। भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद कराना। इसके लिए उन्हें अन्य भारतीय शासकों की सहायता की जरूरत थी। वे अंग्रेजों के बढ़ते साम्राज्य को रोक देना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने नागपुर के भोंसले और ग्वालियर के सिंधिया से एकबार फिर हाथ मिलाया और अंग्रेजों को खदेड़ने की ठानी। लेकिन पुरानी दुश्मनी के कारण भोंसले और सिंधिया ने उन्हें फिर धोखा दिया और यशवंतराव एक बार फिर अकेले पड़ गए।

उन्होंने अन्य शासकों से एकबार फिर एकजुट होकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने का आग्रह किया, लेकिन किसी ने उनकी बात नहीं मानी। इसके बाद उन्होंने अकेले दम पर अंग्रेजों को छठी का दूध याद दिलाने की ठानी। 8 जून 1804 ई. को उन्होंने अंग्रेजों की सेना को धूल चटाई। फिर 8 जुलाई 1804 ई. में कोटा से उन्होंने अंग्रेजों को खदेड़ दिया।

11 सितंबर 1804 ई. को अंग्रेज जनरल वेलेस्ले ने लॉर्ड ल्युक को लिखा कि यदि यशवंतराव पर जल्दी काबू नहीं पाया गया तो वे अन्य शासकों के साथ मिलकर अंग्रेजों को भारत से खदेड़ देंगे। इसी मद्देनजर नवंबर, 1804 ई. में अंग्रेजों ने दिग पर हमला कर दिया। इस युद्ध में भरतपुर के महाराज रंजित सिंह के साथ मिलकर उन्होंने अंग्रेजों को उनकी नानी याद दिलाई। यही नहीं इतिहास के मुताबिक उन्होंने 300 अंग्रेजों की नाक ही काट डाली थी।

अचानक रंजित सिंह ने भी यशवंतराव का साथ छोड़ दिया और अंग्रजों से हाथ मिला लिया। इसके बाद सिंधिया ने यशवंतराव की बहादुरी देखते हुए उनसे हाथ मिलाया। अंग्रेजों की चिंता बढ़ गई। लॉर्ड ल्युक ने लिखा कि यशवंतराव की सेना अंग्रेजों को मारने में बहुत आनंद लेती है। इसके बाद अंग्रेजों ने यह फैसला किया कि यशवंतराव के साथ संधि से ही बात संभल सकती है। इसलिए उनके साथ बिना शर्त संधि की जाए। उन्हें जो चाहिए, दे दिया जाए। उनका जितना साम्राज्य है, सब लौटा दिया जाए। इसके बावजूद यशवंतराव ने संधि से इंकार कर दिया।

वे सभी शासकों को एकजुट करने में जुटे हुए थे। अंत में जब उन्हें सफलता नहीं मिली तो उन्होंने दूसरी चाल से अंग्रेजों को मात देने की सोची। इस मद्देनजर उन्होंने 1805 ई. में अंग्रेजों के साथ संधि कर ली। अंग्रेजों ने उन्हें स्वतंत्र शासक माना और उनके सारे क्षेत्र लौटा दिए। इसके बाद उन्होंने सिंधिया के साथ मिलकर अंग्रेजों को खदेड़ने का एक और प्लान बनाया। उन्होंने सिंधिया को खत लिखा, लेकिन सिंधिया दगेबाज निकले और वह खत अंग्रेजों को दिखा दिया।

इसके बाद पूरा मामला फिर से बिगड़ गया। यशवंतराव ने हल्ला बोल दिया और अंग्रेजों को अकेले दम पर मात देने की पूरी तैयारी में जुट गए। इसके लिए उन्होंने भानपुर में गोला बारूद का कारखाना खोला। इसबार उन्होंने अंग्रेजों को खदेड़ने की ठान ली थी। इसलिए दिन-रात मेहनत करने में जुट गए थे। लगातार मेहनत करने के कारण उनका स्वास्थ्य भी गिरने लगा। लेकिन उन्होंने इस ओर ध्यान नहीं दिया और 28 अक्टूबर 1811 ई. में सिर्फ 35 साल की उम्र में वे स्वर्ग सिधार गए।

इस तरह से एक महान शासक का अंत हो गया। एक ऐसे शासक का जिसपर अंग्रेज कभी अधिकार नहीं जमा सके। एक ऐसे शासक का जिन्होंने अपनी छोटी उम्र को जंग के मैदान में झोंक दिया। यदि भारतीय शासकों ने उनका साथ दिया होता तो शायद तस्वीर कुछ और होती, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और एक महान शासक यशवंतराव होलकर इतिहास के पन्नों में कहीं खो गया और खो गई उनकी बहादुरी, जो आज अनजान बनी हुई है!         
         

कमलादेवी चट्टोपाध्याय


    *कमलादेवी चट्टोपाध्याय*

        *जन्म : 3 एप्रिल 1903*
     (मंगलोर , मद्रास प्रेसिडेन्सी    
    (सध्याच्या कर्नाटकात ), भारत)

  *मृत्यू : 29 ऑक्टोबर 1988*
                 (वय 85)
       (बॉम्बे , महाराष्ट्र , भारत)

गुरुकुल : क्वीन मेरी कॉलेज ,  
             बेडफोर्ड कॉलेज (लंडन)
जोडीदार : कृष्णा राव हरिंद्रनाथ 
                 चट्टोपाध्याय 
मुले : रामकृष्ण चट्टोपाध्याय
पुरस्कार : रॅमन मॅग्सेसे पुरस्कार 
               (1966)
                पद्मभूषण (1955)
                पद्म विभूषण (1987)
कार्यक्षेत्र : स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और समाज सुधारक

इस निर्भीक स्वतंत्रता सेनानी को उन दिनों गांधी जी ने ‘सुप्रीम रोमांटिक हिरोइन’ का खिताब दिया था.

कमलादेवी चट्टोपाध्याय एक समाज सुधारक, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, नारी आन्दोलन की पथ प्रदर्शक तथा भारतीय हस्तकला के क्षेत्र में नव-जागरण लाने वाली गांधीवादी महिला थीं. ये एक सामाजिक कार्यकर्ता, कला और साहित्य की समर्थक भी थीं. जिंदगी की तन्हाई और महात्मा गांधी के आह्वान के चलते वे राष्ट्र सेवा से जुड़ गईं थीं.
देश के हस्तशिल्प और हथकरघा क्षेत्र को एकीकृत करने और उसे राष्ट्रीय स्तर पर एक नई पहचान देने वाली कमलादेवी चट्टोपाध्याय को महात्मा गांधी बहुत मानते थे और इस निर्भीक स्वतंत्रता सेनानी को उन दिनों गांधी जी ने *‘सुप्रीम रोमांटिक हिरोइन’* का खिताब दिया था.
कमलादेवी ब्राह्मण होते हुए भी समाजवादी थीं, बालिका वधू होते हुये भी ये स्त्री अधिकारवादी थीं. ये एक ऐसी राजनेता थीं, जिन्हें कुर्सी की दरकार नहीं थी. राष्ट्रभक्ति का जज्बा ऐसा था कि आजादी के बाद इन्होंने सरकार द्वारा प्रदत्त सम्मान को स्वीकार करने से इनकार कर दिया. देश के विभाजन के बाद उन्होंने शरणार्थियों के पुनर्वास में अपने आप को लगा दिया. वो गांधी जी, जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, सरोजनी नायडू तथा कस्तूरबा गांधी से बहुत प्रभावित थीं.
जब ये लन्दन में थीं तभी से महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन से वर्ष 1923 में जुड़ गईं और भारत लौट आईं. यहां आकर ये सेवादल तथा गांधीवादी संगठनों में अपना योगदान देने लगीं.

💁 *प्रारम्भिक और पारिवारिक जीवन*

कमलादेवी चट्टोपाध्याय का जन्म 3 अप्रैल, 1903 को मंगलोर (कर्नाटक) के एक सम्पन्न ब्राह्मण परिवार में हुआ था. ये अपने माता-पिता की चौथी और सबसे छोटी पुत्री थीं. इनके पिता अनंथाया धारेश्वर मंगलोर के डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर थे. इनकी मां गिरिजाबाई अच्छी पढ़ी-लिखी, संस्कारी और निर्भीक महिला थीं, जो कर्नाटक के एक संपन्न परिवार से ताल्लुक रखती थीं. इनकी दादी स्वयं प्राचीन भारतीय दर्शन की बहुत अच्छी जानकार थीं. इस प्रकार के वातावरण में परवरिश होने के परिणाम स्वरूप ये स्वयं भी तर्कशील और स्वावलंबी थीं, जो उनके जीवन में आगे चलकर काम आया. इन्होंने पहले मंगलोर तथा बाद में दूसरी शादी के बाद लन्दन यूनिवर्सिटी के बेडफ़ोर्ड कॉलेज से समाजशास्त्र में डिप्लोमा प्राप्त किया. इन्होंने प्राचीन भारतीय पारम्परिक संस्कृत ड्रामा कुटीयाअट्टम (केरल) का गहन अध्ययन भी किया था.
जब इनकी उम्र 7 वर्ष की थी तो इनके पिता का स्वर्गवास हो गया. ये बाल विवाह का शिकार हुईं और इनकी पहली शादी अत्यन्त छोटी उम्र यानि 12 वर्ष की अवस्था में कृष्णा राव के साथ वर्ष 1917 में हुई. परन्तु दुर्भाग्यवश दो वर्षों के अंदर ही कृष्णा राव की वर्ष 1919 में मृत्यु हो गयी तथा अपनी स्कूली शिक्षा के दौरान ही ये विधवा हो गईं.
बाद में अपनी पसन्द से वर्ष 1919 में ही सरोजिनी नायडू के छोटे भाई हरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय के साथ पुन: विवाह के बंधन में बंध गईं. हालांकि जात-पात में विश्वास रखने वाले उनके रिश्तेदारों ने इसका घोर विरोध किया.
शादी के कुछ दिनों बाद कमलादेवी हेरेंद्रनाथ के साथ लन्दन चली गयीं. हरेन्द्रनाथ भी कला, संगीत, कविता और साहित्य में रूचि रखने वाले व्यक्ति थे. लेकिन दोनों की विचारधाराओं में मेल नहीं होने के कारण यह संबंध अधिक समय तक नहीं चला और इसकी परिणति तलाक के रूप में हुई. इन्होने  एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम रामकृष्ण चट्टोपाध्याय था.

♻ *महिला आन्दोलन में योगदान*

प्रकृति की दीवानी कमला देवी ने ‘ऑल इंडिया वीमेन्स कांफ्रेंस’ की स्थापना की. ये बहुत दिलेर थीं और पहली ऐसी भारतीय महिला थीं, जिन्होंने 1920 के दशक में खुले राजनीतिक चुनाव में खड़े होने का साहस जुटाया था, वह भी ऐसे समय में जब बहुसंख्यक भारतीय महिलाओं को आजादी शब्द का अर्थ भी नहीं मालूम था. ये गांधी जी के ‘नमक आंदोलन’ (वर्ष 1930) और ‘असहयोग आंदोलन’ में हिस्सा लेने वाली महिलाओं में से एक थीं.
नमक कानून तोड़ने के मामले में बांबे प्रेसीडेंसी में गिरफ्तार होने वाली वे पहली महिला थीं. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान वे चार बार जेल गईं और पांच साल तक सलाखों के पीछे रहीं.

💎 *हस्तशिल्प तथा हथकरघा कला को विकसित करने में योगदान*

इन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में बिखरी समृद्ध हस्तशिल्प तथा हथकरघा कलाओं की खोज की दिशा में अद्भुत एवं सराहनीय कार्य किया. कमला चट्टोपाध्याय पहली भारतीय महिला थीं, जिन्होंने हथकरघा और हस्तशिल्प को न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई.
आजादी के बाद इन्हें वर्ष 1952 में ‘आल इंडिया हेंडीक्राफ्ट’ का प्रमुख नियुक्त किया गया. ग्रामीण इलाकों में इन्होंने घूम-घूम कर एक पारखी की तरह हस्तशिल्प और हथकरघा कलाओं का संग्रह किया. इन्होंने देश के बुनकरों के लिए जिस शिद्दत के साथ काम किया, उसका असर यह था कि जब ये गांवों में जाती थीं, तो हस्तशिल्पी, बुनकर, जुलाहे, सुनार अपने सिर से पगड़ी उतार कर इनके कदमों में रख देते थे. इसी समुदाय ने इनके अथक और निःस्वार्थ मां के समान सेवा की भावना से प्रेरित होकर इनको ‘हथकरघा मां’ का नाम दिया था.

🔮 *देश के प्रमुख सांस्कृतिक और आर्थिक संस्थनों की स्थापना में योगदान*

भारत में आज अनेक प्रमुख सांस्कृतिक संस्थान इनकी दूरदृष्टि और पक्के इरादे के परिणाम हैं. जिनमें प्रमुख हैं- नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा, संगीत नाटक अकेडमी, सेन्ट्रल कॉटेज इंडस्ट्रीज एम्पोरियम और क्राफ्ट कौंसिल ऑफ इंडिया. इन्होंने हस्तशिल्प और को-ओपरेटिव आंदोलनों को बढ़ावा देकर भारतीय जनता को सामाजिक और आर्थिक रूप से विकसित करने में अपना योगदान दिया. हालांकि इन कार्यों को करते समय इन्हें आजादी से पहले और बाद में सरकार से भी संघर्ष करना पड़ा.
इनके द्वारा लिखित पुस्तकें
इन्होंने ‘द अवेकिंग ऑफ इंडियन वोमेन’ वर्ष 1939, ‘जापान इट्स विकनेस एंड स्ट्रेन्थ’ वर्ष 1943, ‘अंकल सैम एम्पायर’ वर्ष 1944, ‘इन वार-टॉर्न चाइना’ वर्ष 1944 और ‘टुवर्ड्स a नेशनल थिएटर’ नामक पुस्तकें भी लिखीं, जो बहुत चर्चित रहीं.

🎖 *पुरस्कार एवं सम्मान*

समाज सेवा के लिए भारत सरकर ने इन्हें नागरिक सम्मान ‘पद्म भूषण’ से वर्ष 1955 में सम्मानित किया.
वर्ष 1987 में भारत सरकर ने अपने दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान ‘पद्म विभूषण’ से इन्हें सम्मानित किया.
सामुदायिक नेतृत्व के लिए वर्ष 1966 में इन्हें ‘रेमन मैग्सेसे’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.
इन्हें संगीत नाटक अकादमी की द्वारा ‘फेलोशिप और रत्न सदस्य’ से सम्मानित किया गया.
संगीत नाटक अकादमी के द्वारा ही वर्ष 1974 में इन्हें ‘लाइफटाइम अचिवेमेंट’ पुरस्कार भी प्रदान किया गया था.
यूनेस्को ने इन्हें वर्ष 1977 में हेंडीक्राफ्ट को बढ़ावा देने के लिए सम्मानित किया था.
शान्ति निकेतन ने अपने सर्वोच्च सम्मान ‘देसिकोट्टम’ से सम्मानित किया.

⌛ *निधन*

वर्ष 29 अक्टूबर, 1988 में वे स्वर्गवासी हो गईं.         
               
          🇮🇳 *जयहिंद* 🇮🇳


स्वामी दयानंद सरस्वती



    *स्वामी दयानंद सरस्वती*
(समाजसुधारक व आर्य समाजाचे संस्थापक)

    *जन्म : १२ फेब्रुवारी १८२४*
   *मृत्यू : ३० ऑक्टोबर १९५६*
पूर्ण नाव : मूलशंकर अंबाशंकर तिवारी
वडील :अंबाशंकर
आई : अमृतबाई
विवाह :  अविवाहित
जन्मस्थान : टंकारा (मोरवी संस्थान, गुजरात)
शिक्षण : शालेय शिक्षणापासून वंचित
                स्वामी दयानंद सरस्वती हे एका युगपुरूषाचे नाव आहे. एकोणीसाव्या शतकातली ती एक महान व्यक्ती नव्हे, शक्ती होती. ते एक महान धर्मसुधारक व समाजसुधारक होते. अंधारात सापडलेल्या व दिशा हरवून बसलेल्या समाजाला व देशाला आधार असतो तो केवळ समोरच्या क्षीतिजावर चमकणाऱ्या ध्रुवताऱ्याचा.

महर्षी दयानंदांचा जन्म गुजरातमधील टंकारा या गावी १८२४ मध्ये झाला होता. त्यांचे मूळ नाव मूळशंकर होते. त्यांचे आई-वडील औदिच्य ब्राह्मण होते. समाजात त्यांना सन्मानाचे स्थान होते. घरची आर्थिक परिस्थिती चांगली होती. घराण्यात ज्ञानाची परंपरा होती. मूळशंकर हा कुशाग्र बुद्धीचा संवेदनशील मुलगा होता. वयाच्या चौदाव्या वर्षी यजुर्वेद त्यांना पूर्ण कंठस्थ होता. तीन प्रसंग असे घडले की त्यामुळे त्यांचे मन अस्वस्थ झाले. पहिला प्रसंग शिवरात्रीच्या दिवशी घडला. शिवमंदिरात व्रत, उपवास करत असता रात्रीच्या सामसूम झालेल्या क्षणी शिवपिंडीवर उंदीर चढला. त्याचा कुठलाच प्रतिकार पिंडीकडून होत नव्हता. वडिलांकडून भगवान शिवाबद्दल बरेच ऐकले होते, तसे होताना दिसले नाही. दुसरे, बहिणीचा मृत्यू व तिसरा प्रसंग चुत्याचा मृत्यू. या प्रसंगांनी खूप दु:ख झाले. मलाही असेच मरण येईल. मृत्यू काय आहे तेही जाणणे आवश्यक वाटून मूलशंकरनी एकेदिवशी गृहत्याग केला व तो पुन्हा कधी घरी परतला नाही. लग्नाच्या बेडीतही अडकला नाही.

🌟 *जीवनाला कलाटणी देणान्या घटना*
एकदा शिवरात्री होती. वडील म्हणाले, “मूलशंकर, आज सर्वांनी उपवास करायचा. रात्रभर देवळात जागायचे आणि शंकराच्या पिंडीची पूजा करायची.”

हे ऐकून मूलशंकरने उपवास केला. दिवस संपला, रात्र झाली. मूलशंकर आणि वडील शंकराच्या देवळात गेले. त्यांनी पूजा केली, पिंडीवर फुले वाहिला. तादळाच्या अक्षता वाहिल्या. रात्रीच बारा वाजल. वाडलाना झाप येऊ लागली पण मूलशंकर जागा राहिला. आपला उपवास निष्फळ होईल या भीतीने तो झोपला नाही. देवळातल्या बिळांतून उंदीर बाहेर आले आणि शंकराच्या पिंडीभोवती फिरू लागले. ते पिंडीवरच्या अक्षता खाऊ लागले. हे दृश्य पाहून जी मूर्ती उंदरापासून स्वतःचे रक्षण करू शकत नाही ती भक्तांचे संकटापासून रक्षण कशी काय करू शकेल, मूर्तीत काहीही सामर्थ्य नसते ; तेव्हा मूर्तिपूजेलाही काही अर्थ नाही, अशा त-हेचे विचार त्यांच्या मनात येऊ लागले.

त्या वेळेपासून त्यांच्या मनात धर्माविषयी जिज्ञासा जागृत झाली. परमेश्वराचे शाश्वत स्वरूप व धर्माचा खरा अर्थ जाणून घेण्याची ओढ त्यांना लागली.

एकदा टंकारा नगरामध्ये कॉलन्याची साथ आली. त्या साधीमध्ये मूलशंकरची चौदा वर्षांची बहीण मरण पावली. या घटनेनंतर तीन वर्षांनी मूलशंकरच्या आवडत्या काकांचाही कॉलन्यामुळे मृत्यू झाला. मूलशंकरला याचा जबरदस्त धक्का बसला. जणू काही त्याचे जीवनसर्वस्वच हरवले.

🏃🏻‍♂️ *गृहत्याग*
कौटुंबिक बंधनाचा त्याग करावा. अशी मूलशंकरच्या मनात इच्छा निर्माण झाली. जीवन काय आहे? मृत्यू काय आहे? या प्रश्नांची उत्तरे सुयोग्य महात्म्याकडून समजवून घ्यावीत, असे त्यांना वाटत होते. या ध्येय प्राप्तीकरिता वयाच्या २१ व्या वर्षीच त्यांनी घरदार सोडले. त्यांच्या घरातील वडीलधान्या मंडळीनी त्यांच्या लग्नाचा चालविलेला विचार हे त्यांच्या निर्णयास निमित्त झाले होते. भौतिक सुखाचा आनंद लुटण्यापेक्षा स्वतःची आध्यात्मिक उन्नती करून घेणे त्यांना अधिक महत्त्वाचे वाटले. त्यासाठी घरादाराचा त्याग करून गुरूचा शोध घेत फिरण्याचा निर्णय त्यांनी घेतला.

🎯 *गुरूचा शोध*
गृहत्याग केल्यानंतर मूलशंकर अहमदाबाद, बड़ौदा, हरिद्वार, काशी, कानपूर या ठिकाणी गुरूंच्या शोधार्थ जंगलातून व पहाडातूनसुद्धा प्रवास करीत राहिले परंतु त्यांना योग्य गुरू मिळाला नाही. याच सुमारास त्या काळचे प्रकांड पंडित आणि संन्यासी स्वामी पूर्णानंद यांची मूलशंकरशी भेट झाली. त्यांचे शिष्यत्व पत्करतो मूळशंकर संन्यास धर्माचा स्वीकार केला। संन्यास धर्माचा स्वीकार केल्यानंतर त्यांनी स्वामी दयानंद सरस्वती हे नाव धारण केले.

पंधरा वर्षापर्यंत सर्वत्र प्रमती केल्यावर स्वामी पूर्णशर्मा नामक साधूच्या म्हणण्यानुसार स्वामी दयानंद मधुरेस येऊन पोहोचले. त्या ठिकाणी त्यांनी स्वामी विरजानंद यांचे शिष्यत्व पत्करून त्यांच्याकडून वेद व इतर हिंदू धर्मग्रंथाचे ज्ञान घेतले.

📜 *वैदिक ज्ञानाचा प्रसार*
स्वामी दयानंदाना येद सर्वश्रेष्ठ आणि पवित्र वाटत होते. मुख्य म्हणजे वेदांमध्ये मूर्तिपूजा नव्हती किया उच्च-ि हा भाव नव्हता. वेदातील ज्ञान है खरेखुरे ईश्वरीय ज्ञान आहे. पवित्र ज्ञान आहे आणि समाजाकरिता अत्यंत उपयुक्त आहे. अशी दयानंदांची अदा होती म्हणूनच त्यानी “वेदाकडे परत जा’ अशी भारतीयांना शिकवण दिली.

आपल्या अम्मलित प्रवचनाद्वारे ते मूर्तिपूजा, जन्मजात उच्च-निचता जातिभेद, यातक रूडी, यज्ञांमध्ये केली जाणारी पशुहत्या यांच्यावर घणाघाती आघात करू लागले.

इ.स. १८६९ मध्ये त्यांनी काशीच्या सनातनी ब्राह्मण पडिताशी शास्यार्थावर वादविवाद केला त्यामुळे त्याचे नाव सर्वत्र गाजले.

🇮🇳 *स्वातंत्र्यप्रेम*
इ.स १८५७ च्या असफलतेपासून तर कॉंग्रेसच्या स्थापनेपर्यंत भारतीयाध्य हृदयामध्ये स्वातंत्र्यप्रेम जागृत ठेवण्याचे कार्य ज्या ज्या महापुरुषांनी केले त्यात दयानंद हे एक होते. भारतात ब्रिटिशांना हाकलण्याकरिता सशस्त्र क्रांती हा एकमेव मार्ग आहे. अशी स्वामी दयानंदाची पक्की खात्री होती. आर्यसमाज आणि गुरुकुल यामध्ये राष्ट्रभक्तांना सशस्त्र क्रांतीकरिता प्रेरणा आणि प्रशिक्षण मिळत असे. स्वामी श्रद्धानंद, लाला लजपतराय आणि लाला हरदयाल इत्यादी. ब्रिटिशांना भारतातून हाकलण्याकरिता उपडपणे लढणारे नेते आर्यसमाजीच होते.

🔘 *शुद्धीकरण*
स्वामी दयानदानी खिस्ती आणि मुसलमान धर्मात गेलेल्या लोकांचे शुद्धीकरण करून त्यांना हिंदू केले.

आर्य समाजाची स्थापना:
समाजाच्या सर्व घटकाना एका सूत्रामध्ये बांधण्याकरिता समान भाषा आवश्यक आहे. अशी त्यांची धारणा होती हिन्दी भाषेला राष्ट्रभाषेचे स्थान मिळावे, असे त्यांचे स्पष्ट मत होते.

स्वामी दयानंद सरस्वतोनी धर्मसुधारणेच्या कार्याची प्रेरणा बायो समाजाकडून घेतली होती. प्रारंभीच्या काळात त्यांच्या सहकायनिच धर्मप्रचाराधे धर्मनुधारणेचे कार्य करीत. तथापि पुढे त्यांनी आपला वेगळा संप्रदाय निर्माण करण्याचे ठरविले. त्यानुसार त्यांनी मुंबई येथे १० एप्रिल १८७५ रोजी आर्य समाजाची स्थापना केली.

आर्य समाजाने धार्मिक व सामाजिक सुधारणांबरोबरच शैक्षणिक सुधारणा केल्या वेदांचे शिक्षण घेणारा तरुण हा निर्भय, तेजस्वी आणि काळाचे आव्हान स्वीकारणारा के होईल से स्वानी दयानंदाना वाटत होते .उत्तर भारतात त्यांनी चालविलेले चोक्षण प्रसाद कार्य अतिशय महत्वपूर्ण ठरले.

🔮 *विचार*
सर्व मानव एक, सर्वाचे देव एक, सर्वांचा धर्म एक, पृथ्वी माता एक हीच जीवनाची चतुःसूत्री आहे.

स्त्रियांना शिक्षण दिले जात नाही, त्यांना अज्ञानात ठेवले जाते, हे भारताच्या अध:पतनाचे एक कारण आहे. ज्याप्रमाणे गाठोड्यात असलेल्या रत्नांचे प्रतिबिंब आरशात पडू शकत नाही त्याप्रमाणे जोपर्यंत स्त्रिया पडदा पद्धतीसारख्या मूर्ख रुढीचे बंधन तोडत नाहीत तोपर्यंत त्यांची प्रगती होणे अशक्य आहे. त्यांनी हा पडदा फेकून दिला पाहिजे. सीता आणि सावित्री चिरस्मरणीय झाल्या ते त्याच्या सद्गुणांमुळे. त्यांच्या पडद्यामुळे नाही.

स्त्रियांना समाजात सन्मानाचे स्थान मिळाले पाहिजे. स्त्री ही कुटुंबाची स्वामिनी असल्याने तिला तिचे अधिकार मिळाले पाहिजेत.

📚 *ग्रंथसंपदा*
‘सत्यार्थ प्रकाश’ हा महान ग्रंथ म्हणजे स्वामी दयानंदांनी आपल्या समाजाला दिलेली अनमोल देणगी होय. या ग्रंथामध्ये पंधरा अध्याय असून त्यामध्ये वेदांचा सत्यार्थ दिलेला आहे. म्हणून या ग्रंथाला ‘सत्यार्थ प्रकाश’ म्हटले आहे. हा ग्रंथ पूर्णपणे वेदांवर आधारलेला आहे.

वेद भाष्य, संस्कार निधी, व्यवहार भानू इत्यादी ग्रंथसुद्धा त्यांनी लिहिले.
               
          🇮🇳 *जयहिंद* 🇮🇳


चित्रपट निर्माते, दिग्दर्शक आणि अभिनेते व्ही शांताराम

चित्रपट निर्माते, दिग्दर्शक आणि अभिनेते व्ही शांताराम
जन्म. १८ नोव्हेंबर १९०१ रोजी कोल्हापूर येथे.
शांताराम राजाराम वणकुद्रे उर्फ व्ही. शांताराम हे भारतीय चित्रपट सृष्टीतलं सुवर्णाक्षरांनी लिहिलं गेलेलं नाव. शांताराम बापू या नावानं सुद्धा ते ओळखले जात. निर्माता, दिग्दर्शक, अभिनेता अशा तिन्ही क्षेत्रांत त्यांनी आपला खोल ठसा उमटवला. दिग्दर्शक म्हणून अनेक नवीन संकल्पना त्यांनी पहिल्यांदा भारतीय चित्रपटसृष्टीत वापरल्या. जवळजवळ सहा दशकं ते चित्रपटसृष्टीत कार्यरत होते. त्यांच्या कारकिर्दीला सुरुवात झाली ती कोल्हापुरातील बाबुराव पेंटर यांच्या मालकीच्या `महाराष्ट्र फिल्म कंपनी'पासून. कंपनीत पडेल ते काम करता करता १९२१ साली निर्माण झालेल्या `सुरेखा हरण' या मूकपटात छोटीशी भूमिका केली. १९२५ साली निर्माण झालेल्या `सावकारी पाश' या सामाजिक चित्रपटात त्यांनी एका तरुण शेतकर्यााची भूमिका केली आणि १९२७ साली त्यांनी `नेताजी पालकर' हा पहिला मूकपट दिग्दर्शित केला.बाबुराव पेंटर यांच्याकडे नऊ वर्षं नोकरी केल्यानंतर त्यांनी दामले, फत्तेलाल, धायबर आणि कुलकर्णी यांच्या भागीदारीत कोल्हापुरात `प्रभात फिल्म्स'ची स्थापना केली. तेथे शांताराम बापूंना आपली कला विकसित करण्याचं पूर्ण स्वातंत्र्य मिळालं. `गोपाळ कृष्ण', `राणी साहेबा', `खुनी खंजर', `उदयकाल' असे एकापेक्षा एक सरस चित्रपट त्यांनी दिले.`प्रभात'चा पहिला मराठी बोलपट `अयोध्येचा राजा' १९३२ साली प्रदर्शित झाला. १९३३ साली त्यांनी `सैरंध्री' हा भारतातला पहिला रंगीत चित्रपट काढण्याचं धाडस केलं. पण चित्रपटाच्या प्रिंट्स नीट डेव्हलप न झाल्यामुळे हा प्रयत्न फसला. `प्रभात'ला खूप मोठे नुकसान सहन करावे लागले. पण त्यातून डगमगून न जाता शांताराम यांनी `अमृतमंथन'ची निर्मिती केली. हा चित्रपट तुफान यशस्वी ठरला. त्यानंतरचा १९३७ साली निर्मिलेला `संत तुकाराम' हा बोलपट भारतीय चित्रपटसृष्टीतील मैलाचा दगड ठरला. भारतात-विशेषत: महाराष्ट्रात-हा चित्रपट धो धो चालला. त्याची कीर्ती सातासमुद्रापार गेली. व्हेनीस चित्रपट महोत्सवात हा चित्रपट दाखविण्यात आला. जरठ विवाहावर टीका करणारा `कुंकू' (दुनिया ना माने), वेश्येच्या पुनरुज्जीवनावर भाष्य करणारा `माणूस'(आदमी) आणि हिंदू-मुस्लीम दंग्यांच्या पार्श्वभूमीवर मैत्रीचा संदेश देणारा शेजारी (पडोसी) हे सामाजिक चित्रपट अफाट गाजले.शांताराम बापूंनी १९४२ साली प्रभात फिल्म कंपनी सोडली. त्यांनी मुंबईत येऊन `राजकमल कला मंदिर' या स्वत:च्या संस्थेची स्थापना केली. `राजकमल'च्या माध्यमातूनही त्यांनी दर्जेदार चित्रपटांची मालिका सुरू ठेवली. `राजकमल'ने १९४६ साली डॉ. कोटणीसांच्या जीवनावर आधारीत `डॉ. कोटणीस की अमर कहानी', १९५१ सालचा होनाजी बाळांचा `अमर भूपाळी', १९५५ सालचा रंगीत `झनक झनक पायल बाजे', १९५७चा १९५९चा `नवरंग' हे चित्रपट विशेष उल्लेखनीय ठरले. `डॉ. कोटणीस' आणि `दो आँखे' या चित्रपटांमध्ये त्यांनी स्वत: नायकाची भूमिका केली होती. १९७२चा `पिंजरा' या चित्रपटाने मराठी चित्रपटांच्या लोकप्रियतेचे सर्व उच्चांक मागे टाकले. `पिंजरा' मराठीतला पहिला संपूर्ण रंगीत चित्रपट होता.शांताराम बापूंना चित्रपट माध्यमाची भाषा उत्तमपणे अवगत होती. बॉलिवूडचे सुप्रसिद्ध निर्माता-निर्देशक-नट चार्ली चॅप्लीन यांनी शांताराम बापू यांच्या दिग्दर्शनाचं कौतुक केलं होतं. शांताराम बापूंना अनेक राष्ट्रीय आणि आंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त झाले. महाराष्ट्राचं अष्टपैलू व्यक्तिमत्त्व असलेल्या आचार्य प्र. के. अत्रेंनी शांताराम बापूंना `चित्रपती' ही पदवी दिली. चित्रपट माध्यमातील व्यक्तींना दिला जाणारा भारतातला सर्वोच्य पुरस्कार `दादासाहेब फाळके पुरस्कार' १९८५ साली शांताराम बापूंना प्रदान करण्यात आला, तर १९९२ साली भारत सरकारने त्यांना `पद्मविभूषण' पुरस्कार देऊन सन्मानीत केले.चित्रपटासाठीच्या विषयाची निवड, त्याचा आशय, कॅमेर्या्चे तंत्र, संकलन या सर्व बाबतीत बापूंचे चित्रपट काळाच्या पुढे असत. चित्रपट हे कलेचं आणि मनोरंजनाचं माध्यम तर आहेच, पण यातून समाजाला योग्य तो संदेशही प्रभावीपणे देता येतो हे त्यांनी जाणले होते. शांताराम बापू अतिशय कडक शिस्तीचे होते. कलाकार आणि तंत्रज्ञांवर त्यांचा वचक असे. भारतीय चित्रपटात पहिल्यांदा ऍनिमेशनचा वापर केला तोही शांताराम बापूंनी (जंबूकाका). `बॅक लिट' प्रोजेक्शनचा वापर करणारे ते पहिले दिग्दर्शक (अमर ज्योती).
शांताराम बापूंनी तीन विवाह केले. त्यांच्या पहिल्या पत्नीचे नाव विमल, दुसरी जयश्री आणि तिसरी संध्या. `शांताराम' हे त्यांचं आत्मवृत्त मराठी आणि हिंदीमध्ये १९८६ साली प्रकाशित झालं आहे. आहे. *व्ही.शांताराम* यांचे ३० ऑक्टोबर १९९० रोजी निधन झाले.

होमी भाभा

भारतीय अणुभौतिकशास्त्रज्ञ  होमी भाभा 
जन्म.३० ऑक्टोबर १९०९
भारतीय संस्कृतीत अनेक मानवतावादी, सुसंस्कृत माणसे तयार झाली. विधायक मनोवृत्ती असलेला एक कुशल इंजिनियर,प्रख्यात शास्त्रज्ञ, कलाप्रेमी व माणूस म्हणून, थोर विचारवंत म्हणून ‘होमी जहागीर भाभा’ यांचे नाव भारतात मोठ्या आदराने व प्रेमाने घेतले जाते. स्वतंत्र भारताला समर्थ व बलवान करण्यासाठी त्यांनी आपल्या जीवाचे रान केले. होमी भाभा यांचे वडील जहांगीर भाभा हे बॅरीस्टर होते. पुस्तकांची आवड असल्यामुळे घरातच खूप पुस्तके गोळा केली होती. त्यात विज्ञान विषयाचीही पुस्तके होती. होमी भाभा यांना या पुस्तकांमुळे विज्ञानात स्वाभाविकपणेच आवड निर्माण झाली. शिवाय त्यांना कवितेचा आणि चित्रकलेचा छंद होता. अतिशय सुंदर, देखणे व्यक्तीमत्त्व लाभालेले होमी भाभा उत्तम वक्ताही होते. त्यांचे प्राथमिक ते पदवी पर्यंतचे शिक्षण मुंबई येथे झाले. होमी यांनी पुढे इंजिनियर व्हावे असे त्यांच्या वडिलांना वाटत होते. पण होमी यांनी वडिलांना आपल्याला गणित आणि भौतिक शास्त्रातच विशेष आवडतात असे ठामपणे सांगितले. वडिलांनी हो-ना करत गणिताचा सखोल अभ्यास करण्यास परवानगी दिली पण आधी प्रथम श्रेणीत इंजिनियरींगची पदवी प्राप्त करण्याची अट घालून दिली. वडिलांनी परवानगी दिल्यावर होमी भाभा केंब्रीज विद्यापिठातून १९३० साली प्रथम श्रेणीत इंजिनियर झाले. तसेच पॉल डिरॅक यांच्या मार्गदर्शनाखाली गणिताचा अभ्यासही करीत राहिले. त्या काळात त्यांना शिष्यवृत्ती आणि अनेक बक्षीसेही मिळाली. १९४० साली भारतात परत आल्यावर काही काळ डॉ. भाभा यांनी भारतीय विज्ञान संस्था, बंगलोर येथे प्रोफेसर म्हणून काम केले. १९४५ साली टाटा मूलभूत संशोधन संस्थेची स्थापना करण्यात मदत केली आणि आपले संशोधन कार्य संभाळून डॉ. भाभा टाटा मूलभूत संशोधन संस्थेचे संचालक झाले. भारताच्या स्वातंत्र्यानंतर १९४८ साली त्यांच्या पुढाकाराने अणु उर्जा आयोगाची स्थापना करण्यात आली. याही संस्थेचे तेच संचालक म्हणून काम पाहू लागले. होमी भाभांनी आपल्या संशोधनाला सुरुवात केली,तेव्हा मुल कण, नवे सिद्धांत नवे तंत्रे उदयास आली होती. त्यात भाभांनी भर टाकली. अंतराळातून येणाऱ्या विश्वकिरणात समुद्रासपाटीला असलेल्या वातावरणातील कवच फेटून इलेक्ट्रान कसे पोहोचतात आणि विश्वकिरणांचा एवढा मोठा वर्षाव कसा होतो,याचा कॉस्केड थिअरीने करण्यात त्यांना यश मिळविले प्रचंड ऊर्जेच्या इलेक्ट्रोनची पदार्थाशी आंतरक्रिया होताच त्यातून गॉमा किरण बाहेर पडतात. त्या किरणांमुळे इलेक्ट्रोन वा  पॉझिट्रौन यांचे विकरण कसे होते, याचा सिद्धांत मांडतांना वेगवान मिझॉन कणांचे आयुर्मान मोजताना अल्बर्ट आईस्टाईच्या सिद्धांतानुसार होणारी कालवृद्धी लक्षात पाहिजे हे त्यांनी दाखवून दिले. त्यांनी अनेक संस्था उभारल्या. तुर्भ,तारापूर अणुशक्ती केंद्रे ही त्यांची खरी स्मारके आहेत. टाटा मुलभूत संशोधन संस्था परमाणु आयोग,ऊर्जा आयोग,अवकाश संशोधन, कॉन्सर संशोधन अशा मानवकल्याणकारी संस्थातून अणुशक्तीचा विधायक कार्यासाठी चांगला उपयोग करता येतो हे त्यांनी जगाला दाखवून दिले. त्यांच्या अथक परिश्रमांमुळेच भारत देशात अणु भट्टी ची स्थापना होऊ शकली. अणुचा वापर शांततेच्या मार्गानेच व्हावा असे ठाम मत संयुक्त राष्ट्रच्या सभेत मांडणारे भाभा हे पहिले वैज्ञानिक. डॉ. भाभा यांनी पाया रचला म्हणूनच भारताने अनेक ठिकाणी अणु भट्या सुरू करून त्यांचा विज निर्मितीसाठी उपयोग केला तसेच १८ मे १९७४ रोजी भारताने पोखरण येथे पहिला अणुस्फोट घडवून आणला. भारत सरकारने १९५४ साली ‘पद्मभूषण’ हा किताब देऊन त्यांचा यथोचित गौरव केला. भारताच्या अणुऊर्जा विकासकार्यक्रमाचा पाया रचण्याच्या कामगिरीमुळे त्यांना भारताच्या अणुऊर्जा व अण्वस्त्र विकासकार्यक्रमाचे प्रणेता मानले जाते. त्यांच्या निधना नंतर ट्रॉम्बे येथील अणु संशोधन केंद्राचे नाव बदलून भाभा अणु संशोधन केंद्र असे ठेवण्यात आले. होमी भाभा यांचे २४ जानेवारी १९६६ रोजी निधन झाले.

जननायक टंट्या मामा भिल


        *भारतीय राॕबीन हुड*
*जननायक टंट्या मामा भिल*

       *जन्म : 1840/1842*
(पूर्व निमार , मध्य प्रदेश , भारत)
   *फांसी : 19 अक्टूबर 1890*
    (जबलपूर , मध्य प्रदेश , भारत)

नाम : संतती भिल
प्रसिद्ध : प्रथम स्वातंत्र्य युद्ध
               खंडवा जिले की पंधाना तहसील के बडदा में 1842 में भाऊसिंह के यहाँ एक बालक ने जन्म लिया, जो अन्य बच्चो से दुबला-पतला था | निमाड में ज्वार के पौधे को सूखने के बाद लंबा, ऊँचा, पतला होने पर ‘तंटा’ कहते है इसीलिए ‘टंट्या’ कहकर पुकारा जाने लगा |
टंट्या की माँ बचपन में उसे अकेला छोड़कर स्वर्ग सिधार गई | भाऊसिंह ने बच्चे के लालन-पालन के लिए दूसरी शादी भी नहीं की | पिता ने टंट्या को लाठी-गोफन व तीर-कमान चलाने का प्रशिक्षण दिया | टंट्या ने धर्नुविद्या में दक्षता हासिल कर ली, लाठी चलाने और गोफन कला में भी महारत प्राप्त कर ली | युवावस्था में उसे पारिवारिक बंधनों में बांध दिया गया | कागजबाई से उनका विवाह कराकर पिता ने खेती-बाड़ी की जिम्मेदारी उसे सौप दी | टंट्या की आयु तीस बरस की हो चली थी, वह गाँव में सबका दुलारा था, युवाओ का अघोषित नायक था | उसका व्यवहार कुशलता और विन्रमता ने उसे लोकप्रिय बना दिया |
        बंजर भूमि में फसल वर्षा पर निर्भर होती है | प्राकृतिक प्रकोप, अवर्षा से बुरे दिन भी देखना पड़ते है | अन्नदाता किसान भी भूखा रहने को मजबूर हो जाता है | टंट्या को भी ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा | पिता भी ऐसे समय नहीं रहे, भूमि का चार वर्ष का लगान भी बकाया हो गया | मालगुजार ने उसे भूमि से बेदखल कर दिया | आपके सम्मुख खाने की दिक्कत हो गयी  | ऐसे वक्त उसे ‘पोखर’ की याद आई जहा उनके पिता भऊसिंह के मित्र शिवा पाटिल रहते थे और जिन्होंने सम्मिलित रूप से जमीन खरीदी थी, जिसकी देखरेख शिवा पाटिल करते थे | शिवा पाटिल ने टंट्या का आदर-सत्कार तो किया परन्तु भूमि पर उसके अधिकार को मंजूर नहीं किया | शिवा के मुकरने के बाद टंट्या बडदा पंहुचा | मकान, बेलगाडी बेचकर कुछ नकद राशि जुटाई | खंडवा न्यायालय में शिवा की धोखाधड़ी के खिलाफ कार्यवाही की, इसमें भी आपको पराजित होना पड़ा | झूठे साक्ष्यो के आधार पर शिवा की विजय हुई |
          टंट्या ने रोद्र रूप धारण कर लिया | लाठी से शिवा के नौकरों की पिटाई करके खेत पर कब्ज़ा कर लिया | उसने पुलिस में टंट्या के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई | पुलिस ने गिरफ्तार करके मुकदमा कायम किया, जिसमे उसे एक वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई गयी | जेल में बंदियों के साथ अमानुषिक व्यवहार होता देख टंट्या विक्षुब्ध हो गया, उसके मन में विद्रोह की भावना बलवती होने लगी| जेल से छूटने के बाद पोखर में मजदूरी करके जीवन निर्वाह करने लगा, किन्तु वहा भी उसे चैन से जीने नहीं दिया गया | कोई भी घटना घटती तो टंट्या को उसमे फसा देने षड्यंत्र रचा जाता | पोखर के बजाय उसने हीरापुर में अपना डेरा जमाया, वहा चोरी के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया | बिजानिया भील और टंट्या ने तलवार से कई सिपाहियों को घायल कर दिया, इस प्रकरण में उसे तीन माह की सजा हुई | बडदा-पोखर के बाद झिरन्या गाँव (खरगोन) में टंट्या रहने लगा | एक अपराधी ने चोरी के मामले में उसका नाम ले लिया, फिर से पुलिस उसे खोजने लगी | टंट्या ने बदला लेने का संकल्प लिया, उसने साहुकारो-मालगुजारो से पीड़ित लोगो का गिरोह बनाया जो लूटपाट और डाका डालता था | 30 जून, 1876 को हिम्मतसिंह जमीदार के यहाँ धावा बोला गया, हिम्मतसिंह को गोली मार दी गई | टंट्या को षडयंत्र में फसाकर उसके विश्वासपात्र साथियों के साथ गिरफ्तार करवा दिया गया| 20 नवम्बर, 1878 को खंडवा की अदालत में दौलिया और बिजौनिया के साथ पेश किया गया |
          टंट्या की शोहरत उस समय बुलंदी पर थी, उसे देखने के लिए सैकडो भील जमा हो गए | हिम्मत पटेल ने टंट्या के खिलाफ गवाही दी, जिसे कोर्ट में टंट्या ने धमकाया | उसे खंडवा जेल में रखा गया, जहा से उसने फरार होने की योजना बनाई | 24 नवम्बर, 1878 की रात में बीस फीट ऊँची दीवार फांदकर वह 12 साथियों के साथ जंगल की दिशा में भाग गया |
          टंट्या एक गाँव से दूसरे गाँव घूमता रहा | लोगो के सुख-दुःख में सहयोगी बनने लगा | गरीबो की सहायता करना, गरीब कन्याओ की शादी कराना, निर्धन व असहाय लोगो की मदद करने से ‘टंट्या मामा’ सबका प्रिय बन गया | वह शोषित-पीड़ित भीलो का रहनुमा बन गया, उसकी पूजा होने लगी |
        राजा की तरह उसका सम्मान होने लगा | सेवा और परोपकार की भावना में उसे ‘जननायक’ बना दिया | उसकी शक्ति निरंतर बढ़ने लगी | युवाओ को उसने संगठित करना शुरू कर दिया | टंट्या का नाम सुनकर साहूकार कांपने लगे |
         पुलिस ने टंट्या को गिरफ्तार करने के लिए विशेष दस्ता बनाया, जिसमे दक्ष पुलिस वालो को रखा गया | ‘टंट्या पुलिस’ ने कई जगह छापे मारे, किन्तु टंट्या पकड़ में नहीं आया | सन 1880 में टंट्या ने अंग्रेजी हुकूमत को हिला दिया, जब उसने चौबीस गाँवों में डाके डाले, भिन्न-भिन्न दिशाओं और गाँवों में डाके डाले जाने से टंट्या की प्रसिद्धि चमत्कारी महापुरुष की तरह हो गई |
         डाके से प्राप्त जेवर, अनाज, कपडे वह गरीबो को दे देता था | पुलिस ने टंट्या के गिरोह को खत्म करने के लिए उसके सहयोगी बिजानिया को पकडकर फांसी दे दी, जिससे टंट्या की ताकत घट गयी |
              टंट्या को गिरफ्तार करने के लिए इश्तिहार छापे गए, जिसमे इनाम घोषित किया गया | टंट्या को पकडने के लिए इंग्लेंड से आए नामी पुलिस अफसर की नाक टंट्या ने काट दी | सन 1888 में टंट्या पुलिस और मालवा भील करपस भूपाल पल्टन ने उसके विरुद्ध सयुक्त अभियान चलाया | टंट्या का प्रभाव मध्यप्रांत, सी-पी क्षेत्र, खानदेश, होशंगाबाद, बैतुल, महाराष्ट्र के पर्वतीय क्षेत्रो के अलावा मालवा के पथरी क्षेत्र तक फ़ैल गया | टंट्या ने अकाल से पीड़ित लोगो को सरकारी रेलगाड़ी से ले जाया जा रहा अनाज लूटकर बटवाया | टंट्या मामा के रहते कोई गरीब भूखा नहीं सोयेगा, यह विश्वास भीलो में पैदा हो गया था |
           टंट्या ने अपने बागी जीवन में लगभग चार सौ डाके डाले और लुट का माल हजारों परिवारों में वितरित किया | टंट्या अनावश्यक हत्या का प्रबल विरोधी था | जो विश्वासघात करते थे, उनकी नाक काटकर दंड देता था | टंट्या का कोप से कुपित अंग्रेजो और होलकर सरकार ने निमाड में विशेष अधिकारियो को पदस्थ किया | जाबाज, बहादुर साथियों-बिजानिया, दौलिया, मोडिया, हिरिया के न रहने से टंट्या का गिरोह कमजोर हो गया |
                पुलिस द्वारा चारो तरफ से उसकी घेराबंदी की गई | भूखे-प्यासे रहकर उसे जंगलो में भागना पड़ा | कई दिनों तक उसे अन्न का एक दाना भी नहीं मिला | जंगली फलो से गुजर करना पड़ा | टंट्या ने इस स्थिति से उबरने के लिए बनेर के गणपतसिंह से संपर्क साधा जिसने उसकी मुलाकात मेजर ईश्वरी प्रसाद से पातालपानी (महू) के जंगल में कराई, किन्तु कोई बात नहीं बनी |
                 11 अगस्त, 1896 को श्रावणमास की पूर्णिमा के पावन पर्व पर जिस दिन रक्षाबंधन मनाया जाता है, गणपत ने अपनी पत्नी से राखी बंधवाने का टंट्या से आग्रह किया | टंट्या अपने छह साथियों के साथ गणपत के घर बनेर गया | आवभगत करके गणपत साथियों को आँगन में बैठाकर टंट्या को घर में ले गया, जहा पहले से ही मौजूद सिपाहियों ने निहत्थे टंट्या को दबोच लिया | खतरे का आभास पाकर साथी गोलिया चलाकर जंगल में भाग गए | टंट्या को हथकड़ीयो और बेड़ियों में जकड दिया गया | कड़े पहरे में उसे खंडवा से इंदौर होते हुए जबलपुर भेजा गया | जहा-जहा टंट्या को ले जाया गया, उसे देखने के लिए अपार जनसमूह उमडा | 19 अक्टूम्बर, 1889 को टंट्या को फांसी की सजा सुनाई गयी |
                     1857 की क्रांति के बाद टंट्या भील अंग्रेजो को चुनौती देने वाला ऐसा जननायक था, जिसने अंग्रेजी सत्ता को ललकारा | पीडितो-शोषितों का यह मसीहा मालवा-निमाड में लोक देवता की तरह आराध्य बना, जिसकी बहादुरी के किस्से हजारों लोगो की जुबान पर थे | बारह वर्षों तक भीलो के एकछत्र सेनानायक टंट्या के कारनामे उस वक्त के अखबारों की सुर्खिया होते थे | गरीबो को जुल्म से बचाने वाले जननायक टंट्या का शव उसके परिजनों को सौपने से भी अंग्रेज डरते थे | टंट्या को फांसी दी गयी या गोली मारी गई, इसका कोई सरकारी प्रमाण नहीं है, किन्तु जनश्रुति है कि पातालपानी के जंगल में उसे गोली मारकर फेक दिया गया था | जहा पर इस ‘वीर पुरुष’ की समाधि बनी हुई है वहा से गुजरने वाली ट्रेन रूककर सलामी देती है | सैकडो वर्षों बाद भी ‘टंट्या भील’ का नाम श्रद्धा से लिया जाता है | अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ बगावत करने वाले टंट्या का नाम इतिहास के पृष्ठों में स्वर्णाक्षरो से अंकित है |

जय आदिवासी भील नायक टंट्या मामा की ....!!!

      

क्रांतिकारी मातंगिनी हाजरा



         *क्रांतिकारी मातंगिनी हाजरा*

*जन्म : 19 अक्टूबर, 1870*
          (होगला, मिदनापुर  
      ज़िला, बंगाल प्रेसिडेन्सी)
*विरगती : 29 सितम्बर,1942*
    (तामलुक, बंगाल प्रेसिडेन्सी,   
                       ब्रिटिश भारत )

उपनाम : गांधी बुढी
मृत्यु कारण : शहादत
नागरिकता : भारतीय
                    मातंगीनी हाज़रा  एक भारतीय क्रांतिकारी थे जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया जब तक कि 29 सितंबर, 1942 को तमलुक पुलिस स्टेशन (पूर्वी मिदनापुर जिले के) के सामने ब्रिटिश भारतीय पुलिस ने उन्हें मार डाला। गांधी बुढी के रूप में उन्हे जाना जाता है l
            मातंगिनी हाजरा का जन्म पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) मिदनापुर जिले के होगला ग्राम में एक अत्यन्त निर्धन परिवार में हुआ था। गरीबी के कारण 12 वर्ष की अवस्था में ही उनका विवाह ग्राम अलीनान के 62 वर्षीय विधुर त्रिलोचन हाजरा से कर दिया गया। इस पर भी दुर्भाग्य उनके पीछे पड़ा रहा। छह वर्ष बाद वह निःसन्तान ही विधवा हो गयीं। पति की पहली पत्नी से उत्पन्न पुत्र उससे बहुत घृणा करता था। अतः मातंगिनी एक अलग झोपड़ी में रहकर मजदूरी से जीवनयापन करने लगीं। गाँव वालों के दुःख-सुख में सदा सहभागी रहने के कारण वे पूरे गाँव में माँ के समान पूज्य हो गयीं।
        1932 में गान्धी जी के नेतृत्व में देश भर में स्वाधीनता आन्दोलन चला। वन्देमातरम् का घोष करते हुए जुलूस प्रतिदिन निकलते थे। जब ऐसा एक जुलूस मातंगिनी के घर के पास से निकला, तो उसने बंगाली परम्परा के अनुसार शंख ध्वनि से उसका स्वागत किया और जुलूस के साथ चल दी। तामलुक के कृष्णगंज बाजार में पहुँचकर एक सभा हुई। वहाँ मातंगिनी ने सबके साथ स्वाधीनता संग्राम में तन, मन, धन से संघर्ष करने की शपथ ली।
        मातंगिनी को अफीम की लत थी; पर अब इसके बदले उनके सिर पर स्वाधीनता का नशा सवार हो गया। 17 जनवरी, 1933 को ‘करबन्दी आन्दोलन’ को दबाने के लिए बंगाल के तत्कालीन गर्वनर एण्डरसन तामलुक आये, तो उनके विरोध में प्रदर्शन हुआ। वीरांगना मातंगिनी हाजरा सबसे आगे काला झण्डा लिये डटी थीं। वह ब्रिटिश शासन के विरोध में नारे लगाते हुई दरबार तक पहुँच गयीं। इस पर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और छह माह का सश्रम कारावास देकर मुर्शिदाबाद जेल में बन्द कर दिया।

🌀 *क्रांतिकारी गतिविधियाँ*
              नसन 1930 के आंदोलन में जब उनके गाँव के कुछ युवकों ने भाग लिया तो मातंगिनी ने पहली बार स्वतंत्रता की चर्चा सुनी। 1932 में उनके गाँव में एक जुलूस निकला। उसमें कोई भी महिला नहीं थी। यह देखकर मातंगिनी जुलूस में सम्मिलित हो गईं। यह उनके जीवन का एक नया अध्याय था। फिर उन्होंने गाँधीजी के 'नमक सत्याग्रह' में भी भाग लिया। इसमें अनेक व्यक्ति गिरफ्तार हुए, किंतु मातंगिनी की वृद्धावस्था देखकर उन्हें छोड़ दिया गया। उस पर मौका मिलते ही उन्होंने तामलुक की कचहरी पर, जो पुलिस के पहरे में थी, चुपचाप जाकर तिरंगा झंडा फहरा दिया। इस पर उन्हें इतनी मार पड़ी कि मुँह से खून निकलने लगा। सन 1933 में गवर्नर को काला झंडा दिखाने पर उन्हें 6 महीने की सज़ा भोगनी पड़ी।

🙋 *भारत छोड़ो आंदोलन में*
                 ,भारत छोड़ो आंदोलन के एक भाग के रूप में, कांग्रेस के सदस्यों ने मिदनापुर जिले के विभिन्न पुलिस स्टेशनों और अन्य सरकारी कार्यालयों को लेने की योजना बनाई। यह जिला में ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंकने और एक स्वतंत्र भारतीय राज्य की स्थापना में एक कदम था। मातंगिनी हजरा, जो 73 वर्ष का थीl
                   उस समय के वर्षों में, तमिलनाडु थाने पर कब्जा करने के उद्देश्य से छह हजार समर्थकों की जुलूस, ज्यादातर महिला स्वयंसेवकों का नेतृत्व किया। जब जुलूस शहर के बाहरी इलाके में पहुंच गया, तो उन्हें क्राउन पुलिस द्वारा भारतीय दंड संहिता की धारा 144 के तहत विस्थापित करने का आदेश दिया गया। जैसे ही वह आगे बढ़े, मातंगीनी हाज़रा को एक बार गोली मार दी गई। जाहिर है, उसने आगे कदम रखा था और पुलिस को अपील की थी कि वह भीड़ पर शूट न करें।
                          भारत छोड़ने के दौरान, मिदनापुर के लोगों ने थाना, अदालत और अन्य सरकारी कार्यालयों पर कब्जा करने के लिए हमले की योजना बनाई थी। मातंगिनी, जो तब 72 वर्ष के थे, ने जुलूस का नेतृत्व किया। पुलिस ने आग लगा दी एक बुलेट ने अपना हाथ मारा निश्चय ही उसने पुलिस को अपील करने के लिए अपने स्वयं के भाइयों पर गोली मारने की कोशिश नहीं की। एक और बुलेट ने उसके माथे को छेड़ा। वह नीचे गिर गई, औपनिवेशिक आंदोलन के प्रतीक, उसके हाथ में स्वतंत्रता का झंडा पकड़ कर। 

🙎 *साहसिक महिला*
              इसके बाद सन 1942 में 'भारत छोड़ो आन्दोलन' के दौरान ही एक घटना घटी। 29 सितम्बर, 1942 के दिन एक बड़ा जुलूस तामलुक की कचहरी और पुलिस लाइन पर क़ब्ज़ा करने के लिए आगे बढ़ा। मातंगिनी इसमें सबसे आगे रहना चाहती थीं। किंतु पुरुषों के रहते एक महिला को संकट में डालने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ। जैसे ही जुलूस आगे बढ़ा, अंग्रेज़ सशस्त्र सेना ने बन्दूकें तान लीं और प्रदर्शनकारियों को रुक जाने का आदेश दिया। इससे जुलूस में कुछ खलबली मच गई और लोग बिखरने लगे। ठीक इसी समय जुलूस के बीच से निकलकर मातंगिनी हज़ारा सबसे आगे आ गईं।

🇮🇳 *शहादत*
               मातंगिनी ने तिरंगा झंडा अपने हाथ में ले लिया। लोग उनकी ललकार सुनकर फिर से एकत्र हो गए। अंग्रेज़ी सेना ने चेतावनी दी और फिर गोली चला दी। पहली गोली मातंगिनी के पैर में लगी। जब वह फिर भी आगे बढ़ती गईं तो उनके हाथ को निशाना बनाया गया। लेकिन उन्होंने तिरंगा फिर भी नहीं छोड़ा। इस पर तीसरी गोली उनके सीने पर मारी गई और इस तरह एक अज्ञात नारी 'भारत माता' के चरणों मे शहीद हो गई।
                इस बलिदान से पूरे क्षेत्र में इतना जोश उमड़ा कि दस दिन के अन्दर ही लोगों ने अंग्रेजों को खदेड़कर वहाँ स्वाधीन सरकार स्थापित कर दी, जिसने 21 महीने तक काम किया।
        दिसम्बर, 1974 में भारत की प्रधानमन्त्री इन्दिरा गान्धी ने अपने प्रवास के समय तामलुक में मांतगिनी हाजरा की मूर्ति का अनावरण कर उन्हें अपने श्रद्धासुमन अर्पित किये।
    🇮🇳 *वंदे मातरम्...!* 🇮🇳
          🇮🇳 *जयहिंद* 🇮🇳


सारंगधर दास


              *सारंगधर दास*  
             (स्वतंत्रता सेनानी)
            *जन्म : 19 अक्टूबर, 1887*
(धेनकनाल रियासत ब्रिटिश भारत)
           *मृत्यु : 18 सितंबर, 1957*
स्मारक : बी.ए.
नागरिकता : भारतीय
धर्म : हिन्दू
आंदोलन : भारत छोड़ो आंदोलन
शिक्षा : रसायन और कृषि में उच्च डिग्री
पार्टी समाजवादी
अन्य जानकारी : 7 1948 में वे समाजवादी पार्टी में सम्मिलित हो गए और लोकसभा के लिए चुन कर वहाँ अपने पार्टी के नेता रहे थे।

          सारंगधर दास स्वतंत्रता सेनानी थे। इन्होंने उड़ीसा में उद्योग स्थापित किया था। सारंगधर दास 'भारत छोड़ो आन्दोलन' में गिरफ्तार हुए थे और 1946 तक जेल में बंद रहे। सारंगधर दास उड़ीसा असेम्बली के सदस्य चुने गए थे। 1948 में वे समाजवादी पार्टी में सम्मिलित हो गए और लोकसभा के सदस्य रहे थे। उन्होंने केंद्र सरकार के कर्मचारियों के संघ की अध्यक्षता भी की।

💁🏻‍♂️ *जन्म एवं शिक्षा*
सारंगधर दास का उड़ीसा की देशी रियासत धेनकनाल में 19 अक्टूबर, 1887 को जन्म हुआ था। इनका जीवन शिक्षा, उद्योग और राजनीति तीनों क्षेत्रों में बड़ा संघर्ष पूर्ण था। कटक से बी.ए. पास करने के बाद आगे के अध्ययन के लिए छात्रवृत्ति लेकर सारंगधर दास जापान गए। वे वर्ष भर टोक्यो के टेकनिकल इंस्टीट्यूट में रह कर अमरीका पहुँचे और कैलिफॉर्निया यूनिवर्सिटी से रसायन और कृषि में उच्च डिग्री प्राप्त की। कुछ वर्षों तक अमेरिका और बर्मा की चीनी मिलों में काम करने के बाद सारंगधर दास भारत वापस आ गए।

🏭 *चीनी मिल की स्थापना*
भारत आकर सारंगधर दास ने अपने गाँव हरिकृष्णपुर के निकट एक चीनी मिल की स्थापना की। उस आदिवासी क्षेत्र की उन्नति के लिए यह वरदान सिद्ध हुई। इससे आदिवासियों की आर्थिक हालत सुधरी और उसके बीच सारंगधर दास का प्रभाव भी बढ़ा। उनके बढ़ते प्रभाव से रियासत धेनकलाल का शासक संकित हो उठा।

♨️ *ब्रिटिश अत्याचारों के ख़िलाफ आवाज़*
1928 में जब सारंगधर दास इलाज के लिए कलकत्ता गए थे, रियासत के शासक ने झूठे अभियोग लगाकर उनकी चीनी मिल के गन्ने के खेतों को जब्त कर के नीलाम करा दिया। लौटने पर इस अन्याय की शिकायत जब उन्होंने रियासत के ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेंट और बिहार-उड़ीसा के गवर्नर से की तो वहाँ भी कोई सुनवाई नहीं हुई थी। इस पर सारंगधर दास ने जनता को संगठित करके रियासत के अत्याचारों का सामना करने का निश्चय किया।

उन्होंने उड़ीसा राज्य में 'प्रजामंडल' बनाया जिस का पहला सम्मेलन 1931 ई. में पट्टाभि सीतारामय्या की अध्यक्षता में हुआ था। इसके बाद प्रांत की अन्य रियासतों पर भी इसका प्रभाव पड़ा और लोग अपने अधिकारों के लिए संगठित होने लगे। कई जगह खुला संघर्ष हुआ और लोगों को पुलिस की गोलियाँ झेलनी पड़ीं। इस प्रकार सारंगधर दास जिन्होंने उड़ीसा में उद्योग स्थापित करने का काम आरंभ किया था, विदेशी सरकार और उसके समर्थक देशी रजवाड़ों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित हो गए। 'भारत छोड़ो आन्दोलन' में वे गिरफ्तार हुए और 1946 तक जेल में बंद रहे थे।

⚜️ *राजनैतिक जीवन*
जेल से छूटने पर सारंगधर दास उड़ीसा असेम्बली के सदस्य चुने गए। 1948 में वे समाजवादी पार्टी में सम्मिलित हो गए और लोकसभा के लिए चुन कर वहाँ अपने पार्टी के नेता रहे। सारंगधर दास ने केंद्र सरकार के कर्मचारियों के संघ की अध्यक्षता भी की थी।

🪔 *निधन*
18 सितंबर, 1957 को सारंगधर दास का देहांत हो गया।
   
         

हिराली चनया दासप्पा


           *एच. सी. दासप्पा*  
       *हिराली चनया दासप्पा*
(स्वतंत्रता सेनानी तथा राजनीतिज्ञ)
    *जन्म : 5 दिसम्बर, 1894*
            ( मैसूर )
     *मृत्यु : 20 अक्टूबर, 1964*
पत्नी : यशोधरम्मा
नागरिकता : भारतीय
प्रसिद्धि : स्वतंत्रता सेनानी तथा राजनीतिज्ञ
जेल यात्रा : ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ सहित चार बार जेल की सज़ा भोगी।
शिक्षा : क़ानून की शिक्षा
विशेष योगदान : हरिजन उत्थान के लिए दासप्पा ने कई क़दम उठाए और हिन्दी के प्रसार के लिए ‘मैसूर रियासत हिन्दी प्रचार समिति’ की स्थापना में भी योगदान दिया।

अन्य जानकारी : दासप्पा वर्ष 1927 से 1938 तक 'मैसूर असेम्बली' के सदस्य रहे थे। भारत की आज़ादी के बाद वे मैसूर मंत्रिमण्डल में वित्त और उद्योग मंत्री भी रहे।
                  हिराली चनया दासप्पा का 'भारतीय स्वतंत्रता संग्राम' और देश के नव-निर्माण में समान योगदान रहा था। दासप्पा वर्ष 1927 से 1938 तक 'मैसूर असेम्बली' के सदस्य रहे थे। भारत की आज़ादी के बाद वे मैसूर मंत्रिमण्डल में वित्त और उद्योग मंत्री भी रहे। गांधीजी के रचनात्मक कामों के प्रति दासप्पा की बड़ी श्रद्धा थी।

💁🏻‍♂️ *जन्म तथा शिक्षा*
एच. सी. दासप्पा का जन्म 5 दिसम्बर, 1894 ई. को मैसूर रियासत के 'मेराकारा' नामक स्थान में हुआ था। उन्होंने मुम्बई से क़ानून की शिक्षा प्राप्त की और वकालत करने लगे। साथ ही सार्वजनिक कार्यों में भी रुचि लेना आरम्भ किया।

💠 *कांग्रेस में प्रवेश*
दासप्पा देशी रियासत में जन-जागृति के लिए गठित ‘प्रजापक्ष’ नामक दल में सम्मिलित हो गए और 1927 से 1938 तक 'मैसूर असेम्बली' के सदस्य रहे। दासप्पा की पत्नी 'यशोधरम्मा' गांधीजी के विचारों से बहुत प्रभावित थीं। स्वतंत्रता के बाद वे मैसूर राज्य में समाज कल्याण मंत्री भी रहीं। पत्नी के प्रभाव से दासप्पा कांग्रेस में सम्मिलित हो गए और ‘प्रजापक्ष’ का भी कांग्रेस में विलय हो गया। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भाग लिया और ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के सहित चार बार जेल की सज़ा भोगी। उनकी इन गतिविधियों के कारण मैसूर सरकार ने उनकी वकालत पर रोक लगा दी।                                          ⚜️ *विभिन्न मंत्री पद*
स्वतंत्रता के बाद दासप्पा मैसूर मंत्रिमण्डल में वित्त और उद्योग मंत्री रहे। इस पद रहते हुए उन्होंने बंगलौर के औद्योगीकरण को बहुत प्रोत्साहित किया। 1954 में दासप्पा राज्य सभा के और 1957 तथा 1962 में लोकसभा के सदस्य चुने गए। 1963 में उन्होंने जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमण्डल में रेल मंत्री का पद सम्भाला। शास्त्रीजी के मंत्रिमण्डल में वे पहले सिंचाई और ऊर्जा मंत्री रहे थे, फिर उद्योग और आपूर्ति मंत्री रहे।

♻️ *प्रशंसनीय कार्य*
दासप्पा ने देश के प्रतिनिधि के रूप में अनेक देशों की यात्राएँ कीं। गांधीजी के रचनात्मक कामों के प्रति दासप्पा की बड़ी श्रद्धा थी। हरिजन उत्थान के लिए कई क़दम उठाए और हिन्दी के प्रसार के लिए ‘मैसूर रियासत हिन्दी प्रचार समिति’ की स्थापना में अग्रणी काम किया।

🪔 *निधन*
20 अक्टूबर, 1964 ई. को एच.सी. दासप्पा का निधन हो गया।

       

वीर बाबुराव पुल्लसुर शेडमाके


   *वीर बाबुराव पुल्लसुर शेडमाके*
   *जन्म :12 मार्च 1833*
 (मोलमपल्ली, अहेरी, गढचिरोली)
*फाँसी :  21 ऑक्टोबर 1858*    (वय 25)
    (चांदा, महाराष्ट्र, ब्रिटिश भारत)
कार्य :  सैन्य नेता
वर्ष सक्रिय : 1857-58
प्रसिद्धी : 1857 के भारतीय विद्रोह के दौरान चांदा (चंद्रपूर-गढचिरोली) जिले में विद्रोह                                                                🤺💥🤺                                      1857 के स्वतंत्रता संग्राम में चंद्रपुर जिले का भी अमूल्य योगदान रहा है। अपने हक की आजादी के लिये चंद्रपुर के माटीपुत्रों ने अपने प्राण हसते हुए न्यौछावर कर दिये और इतिहास में अमर हो गये। उनके नाम, कार्य, बलिदान को भले ही हमारे इतिहासकारों ने कम आंका लेकिन इन वीरों की वीरगति को वे नकार नहीं पाये। न जाने ऐसे कितने ही आदिवासी वीर अपनी जन्मभूमि की लाज को बचाते हुए शहीद हो गये लेकिन इतिहास में उनके नाम भी विरले ही हैं। चंद्रपुर जिले के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अमर शहिद क्रांतिसुर्य बाबुराव शेडमाके का बलिदान विशेष महत्वपूर्ण है, वे क्रांति की मशाल थे। वीर बाबुराव शेडमाके का जन्म मोलमपल्ली (अहेरी) के श्रीमंत शेडमाके जमीनदारी में 12 मार्च 1833 को हुआ, उनकी माता का नाम जुरजायाल (जुरजाकुंवर) था। बाबुराव को 3 साल की उम्र में गोटूल में डाला गया था जहाँ वे मल्लयुद्ध में, तीरकमठा, तलवार, भाला चलाने में प्रशिक्षित हुए। वे अपने साथियों के साथ जंगल में शिकार पर जाते साथ ही शस्त्र चलाने का अभ्यास भी करते। प्राथमिक शिक्षा के लिए ब्रिटिश एज्युकेशन सेंट्रल इंग्लीश मीडियम रायपूर, (मध्यप्रदेश) से चैथी तक की पढ़ाई को पूर्ण कर वे मोलमपल्ली वापस आ गये। उम्र बढने के साथ ही वे सामाजिक नितीमूल्यों को भी सिख गये थे।

धीरे-धीरे वे अपनी जमीनदारी के गांवो के लोगों से संपर्क करने लगे, जिससे उन्हें सावकार, ठेकेदारों द्वारा सामान्य जनता पर किये गये अत्याचार की जानकारी मिली। साथ ही अंग्रेजों के आने के बाद उनके द्वारा दी गई यातनाओं की भी जानकारी उन्हें मिलने लगी। जिससे उनकी समझ और बढ़ती गई। राजपरिवार से होने के बावजूद उनमें जमीनदारी नहीं बल्कि समाज के प्रति सर्मपण का भाव अधिक था जो समय के साथ और परिपक्व होता गया। उनकी शादी आंध्रप्रदेश के आदिलाबाद जिले के चेन्नुर के मड़ावी राजघराणे की बेटी राजकुंवर से हुई। राजकुंवर भी बाबुराव के काम के प्रति उतनी ही समर्पित थी।

उस समय चांदागढ़ और उसके आस-पास के क्षेत्र में गोंड, परधान, हलबी, नागची, माडीया आदिवासियों की संख्या ज्यादा होने के कारण वैष्णवधर्म, इस्लामी, इसाई धर्म का प्रभाव ज्यादा था। 18 दिसंबर 1854 को चांदागड पर आर.एस. एलिस को जिलाधिकारी नियुक्त किया गया, और अंग्रेजों द्वारा गरिबों पर जुल्म ढाने की शुरूआत हो गई। ख्रिश्चन मिशनरी के द्वारा भोलेभाले आदिवासीयों को विकास के नाम पर उनका धर्म परिवर्तण कराकर उन्हें छला जाता था। साथ ही यह क्षेत्र वनसंपत्ती, खनिज संपदा से भरा हुआ था और अंग्रेजों को अपना कामकाज चलाने के लिये इन संपदाओं की जरूरत थी इसीलिये अंग्रेज आदिवासी की जमीनों पर जबरन कब्जा कर रहे थे, ये बात बाबुराव को कतई पसंद नहीं थी। जमीन का हक आदिवासियों का है और वो उन्हें मिलना ही चाहिए। उनका मानना था कि आदिवासी जिस तरह सामुदायीक जीवन पद्धती एवं सांस्कृतिक जीवन शैली में जीते हैं उन्हें वैसे ही जीना चाहिए, और धर्मांतरण कर अपनी असल पहचान नहीं खोनी चाहिए। इस तरह की चीजों ने उनके मन में विद्रोह की ज्वाला प्रज्व्लित कर दी और मरते दम तक अंग्रेजों के खिलाफ लड़कर अपने लोगों की रक्षा करने का उन्होंने संकल्प लिया। इस संकल्प को पूर्ण करने के लिए 24 सितंबर 1857 को उन्होंने ‘जंगोम सेना’ की स्थापना की।

अडपल्ली, मोलमपल्ली, घोट और उसके आसपास की जमीनदारी से 400-500 आदिवासी और रोहिलों की एक फौज बनाकर उन्हें विधिवत् शिक्षण दिया और अंग्रेजों के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। अंग्रेजों को सबक सिखाने के लिए उन्होंने चांदागढ़ से सटे राजगढ़ को चुना, राजगढ़ अंग्रेजों के कब्जे में था जिसकी जिम्मेदारी अंग्रेजों ने रामशाह गेडाम को सौपी थी। 7 मार्च 1858 को बाबुराव ने अपने साथियों समेत राजगढ़ पर हमला कर दिया और संपूर्ण राजगढ़ को अपने अधिकार में कर लिया। राजगढ़ का जमींदार रामजी गेडाम भी इस युद्ध में मारा गया, राजगढ़ में हुई हार से कैप्टेन डब्ल्यु. एच. क्रिक्टन परेशान हो गया और राजगढ़ को वापस पाने के लिये 13 मार्च 1858 को कैप्टेन क्रिक्टन ने अपनी फौज को बाबुराव की सेना को पकडने के लिए भेज दिया। राजगढ़ से 4 कि.मी. दुर नांदगांव घोसरी के पास बाबुराव और अंग्रजों के बीच जम कर लड़ाई हुई। कई लोग मारे गये, इस युद्ध में बाबुराव शेडमाके की जीत हुई।

राजगढ़ की लड़ाई के बाद अडपल्ली-घोट के जमीनदार व्यंकटराव राजेश्वर राजगोंड भी बाबुराव के साथ इस विद्रोह में आकर सम्मिलित हुए। जिससे कैप्टेन क्रीक्टन और परेशान हो गया। उसने अपनी फौज को बाबुराव और उसके साथियों के पिछे लगा दिया, बाबुराव सतर्क थे उन्हें अंग्रेजों की गतिविधीयों का अंदाजा था। वे जानते थे कि क्रिक्टन अपनी फौज को उन्हें खोजने के लिये जरूर भेजेगा, इसिलिये वे गढिचुर्ला के पहाड़ पर पूरी तैयारी के साथ रूके हुए थे। अंग्रेजों को खबर मिलते ही 20 मार्च 1518 को सुबह 4:30 बजे फौज ने पूरे पहाड़ को घेर लिया और फायरिंग कर दी। बाबुराव के सतर्क सैनिकों ने प्रतिकार करते हुए उन पर पत्थर बरसाये, इसमें अंग्रेजों के बंदूक की गोलियां खत्म हो गई पर पत्थरों की बारिश नहीं रूकी, कई अंग्रेज बुरी तरह से घायल हो गये और भाग गये। पहाड से निचे उतर कर बाबुराव की जंगोम सेना ने वहा पडी बंदुके, तोफे जप्त कर ली और अनाज के कोठार को आम लोगों के लिए खोल दिया। इस तरह एक बार फिर से बाबुराव और उनके सैनिकों की जीत हुई।

बाबुराव, व्यंकटराव और उनके साथियों के विद्रोह को खत्म करने के लिये परेशान कैप्टेन क्रीक्टन ने फिर से चांदागड़ से अंग्रेजी फौज को भेजा। 19 अप्रैल 1858 को सगणापुर के पास बाबुराव के साथियों और अंग्रेजी फौज में घनघोर युद्ध हुआ जिसमें एक बार फिर अंग्रेजी फौज हार गई। इसके फलस्वरूप बाबुराव ने 29 अप्रैल 1858 को अहेरी जमीनदारी के चिचगुडी की अंग्रेजी छावणी में हमला कर दिया। कई अंग्रेजी सैनिक घायल हुए वहीं टेलिग्राम ऑपरेटर गार्टलड और हॉल मारे गये। इनका एक साथी पीटर वहां से भागने में कामयाब हो गया उसने कैप्टेन क्रीक्टन को जाकर सारा हवाला दिया। इस हमले के बाद अंग्रेजी फौज में बाबुराव और व्यंकटराव की दहशत बन गई। उन्हें पकडने की अंग्रेजो की सारी योजनाएं विफल हो रही थी, दो-दो टेलिग्राम ऑपरेटर्स की मौत से कैप्टेन क्रिक्टन आग बबूला हो गया था। इस घटना की जानकारी इंग्लैंड की रानी विक्टोरिया को मिलते ही उसने बाबुराव को जिंदा या मुर्दा पकड़ने का फरमान जारी किया और बाबुराव शेडमाके को पकडने के लिये नागपुर के कैप्टेन शेक्सपियर को नियुक्त किया।

कैप्टेन शेक्सपियर ने वीर बाबुराव शेडमाके को पकडने के लिए उनकी बुआ रानी लक्ष्मीबाई जो अहेरी की जमीनदार थी उन्हें अपना माध्यम बनाया और बदले में बाबुराव शेडमाके की जमीनदारी के 24 गांव, और व्यंकटराव राजेश्वर गोंड की जमीनदारी के 67 गांव याने कुल 91 गांव भेट (इनाम) देने का लालच दिया । साथ ही मना करने पर अहेरी की जमीनदारी जप्त करने की धमकी भी दी। रानी लक्ष्मीबाई लालच में आ गई और बाबुराव को पकडने के लिए अंग्रेजों से मिल गई। बाबुराव इस बात से बेखबर थे। बाबुराव अपने साथियों के साथ घोट गांव में पेरसापेन पुजा में आये हुए थे, ये खबर लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों तक पहुंचाई और वे बाबुराव को पकडने के लिए घोट के पास पहुंचे। बाबुराव और अंग्रेजी फौज के बीच में घमासान युद्ध हुआ और एक बार फिर अंग्रेजी फौज उन्हें पकडने में नाकामयाब रही, और बाबुराव वहां से सही सलामत निकल गये। इस हार के बाद शेक्सपियर बौखला गया उसने घोट की जमीनदारी पर कब्जा कर लिया। इधर अचानक से हुए युद्ध में बाबुराव के कई साथी मारे गये, साथ ही आम लोग भी इसकी चपेट में आ गये। बाबुराव के आंदोलन में कई अड़चने आने लगी। उनके और उनके साथियों की जमीने, जमीनदारी जप्त कर ली गई। व्यंकटराव जंगल में छिप गये जंगोम सेना बिखरने लगी, और बाबुराव अकेले पड़ गये।

घोट में हुई हार के बाद अंग्रेजों ने रानी लक्ष्मीबाई पर और दबाव बनाया। लक्ष्मीबाई को बाबुराव के अकेले पड़ने की खबर मिलते ही उसने बाबुराव को पकड़ने के लिए रोहिलों की सेना को भोपालपटनम भेज दिया, बाबुराव वहा कुछ दिन के लिये रूके हुए थे। रात को निंद में रोहिलों ने उन्हें पकड़ लिया उस वक्त बाबुराव ने उन्हें विरोध न करते हुंए उन्हे अपने काम के उद्देश्य को समझाया। और सही समय देखकर चुपके से वहा से निकल गये। बाबुराव लक्ष्मीबाई की सेना से बच निकलने की खबर कैप्टेन को मिलते ही वो झल्ला गया। बाबुराव अहेरी आ गये। इसकी जानकारी रानी लक्ष्मीबाई को मिलते ही उसने बाबुराव को अपने घर पर खाने का निमंत्रण दिया। वे निमंत्रण स्वीकार कर लक्ष्मीबाई के घर पहुंचे इसकी खबर लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों तक पहुंचा दी। खाना खाते समय अंग्रेजों ने लक्ष्मीबाई के घर को घेरा डाल दिया और बाबुराव को बंदी बना लिया। बाबुराव को अंग्रेजों ने पकड़ लिया है ये बात व्यंकटराव तक पहुंची और वे बस्तर चले गये। बाबुराव की गिरफ्तारी के बाद उनके अन्य साथियों को भी पकड़ लिया गया। बाबुराव और उनके साथियों पर क्रिक्टन की अदालत में गार्टलड और हॉल की हत्या एवं अंग्रेज सरकार के खिलाफ कारवाई करने का मुकदमा चलाया गया।                                             21 अक्टूबर सन 1858 को इस कैस में फ़ैसला सुनाया गया, वह कुछ इस प्रकार था -

१. सबूतों के आधार पर क़ैदी (बाबुराव) को अंगरेज़ हुकूमत के ख़िलाफ़ बग़ावत करने, सशस्त्र सेना खड़ी करने, 10 मई सन 1858 को घोट और 27 अप्रैल सन 1858 को बामनपेटा के गांवों में सरकारी सेना का विरोध करने, दो सरकारी सैनिकों को 12 दिन तक बंदी बनाने, उन्हें लूटने, अपने सिपाहियों से 29 अप्रैल सन1858 को चिंचगुंडी में मि.गार्टलैंड और मि.हॉल के कैंप पर हमला करवाने, उनकी लूटी हुई संपत्ति छीनने के आरोपों का दोषी पाया जाता है।

२. अदालत क़ैदी को उपरोक्त आरोपों का दोषी मानते हुए और ये जानते हए कि ज़िले में अशांति फैलाने के लिए उसके पास कोई कारण नहीं था, उसे यह सज़ा सुनाती है।

३. कि तुम्हें, बाबुराव, पूलैसुर बापु के पुत्र, को दोपहर चार बजे चंद्रपुर में जेल के सामने तब तक फ़ांसी पर लटकाया जाए जब तक कि तुम्हारा दम नहीं निकल जाता।

४. क़ैदी की सारी संपत्ति, ज़िले के उपायुक्त तथा ज़िलाधिकारी केप्टैन डब्ल्यू. एच. क्रिस्टन द्वारा ज़ब्त करने का आदेश दिया जाता है।

उसी दिन दोपहर चार बजे चंद्रपुर जेल में बाबुराव शेडमाके को फांसी पर लटका दिया गया।
                                   उन्होंने अपने फैसले में बाबुराव को फांसी और उनके साथीयों को 14 वर्ष कारावास का दण्ड सुनाया। 21 अक्टूबर 1858 को बाबुराव को फांसी की सजा सुनाई गई, 21 तारीख को शाम 4 बजे चांदागढ़ राजमहल, जिसको जेल में परिवर्तित कर दिया गया था, वहां के पीपल के पेड़ पर उन्हें फासी दी गई। उस वक्त कैप्टेन क्रिक्टन उनके दायी ओर और कैप्टेन शेक्सपिसर बायी ओर खड़े थे। बंदुकों की सलामी के साथ दोनो कैप्टेन्स ने भी सलामी दी। मृत्यु की जांच पडताल के बाद उन्हें जेल के परिसर में मिट्टी दी गई। जिस पीपल के पेड़ पर वीर बाबुराव को फांसी दी गई वो पेड़ आज भी चंद्रपुर की जेल में ऐतिहासिक विरासत के रूप में खड़ा है। हर साल 21 अक्टूबर को सारी जनता, समाज पीपल के पेड़ के पास एकत्रित होकर वीर बाबुराव को सम्मानपूर्व श्रद्धांजली अर्पित करते हैं।

वीर बाबुराव शेडमाके के बारे में एक आश्चर्यकारक घटना का जिक्र हमेशा कहने सुनने में आता रहा है कि उन्होंने एक बार ताडोबा के जंगल में बांस का फल जिसे ‘ताडवा’ कहा जाता है उसका सेवन कर लिया था वो फल बहुत जहरिला होता है और जो व्यक्ति उसे पाचन कर लेता है उसका शरीर वज्रदेही हो जाता है। बाबुराव ने उसे प्राशन कर लिया था जिससे वे बेहोश हो गये थे लेकिन कुछ देर बाद उन्हें होश आ गया और उसके बाद उनके शरीर पर किसी भी वार का कोई असर नहीं हो रहा था उनमें एक अद्भूत शक्ति आ गयी थी। वे मीलों तक बिना थके तेजी से भाग सकते थे। लक्ष्मीबाई के घर जब अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ा तो प्रतिकार करने हेतु उन्होंने पानी पीने वाले लोटे से कई सैनिकों को घायल कर दिया जिसमें एक की मौत हो गई। जेल में जब उन्हें फांसी दी गयी तो उनका शरीर पत्थर कि तरह था और गर्दन भी सख्त हो गई थी, जिससे फांसी की रस्सी खुल गई। उन्हें फिर से फांसी पर लटकाया गया लेकिन फिर रस्सी खुल गई। ऐसा तीन बार हुआ चैथी बार फांसी होने के बाद उनकी मौत की पुष्टी की गई लेकिन अंग्रेजों में उनका इतना खौफ था कि मौत की पुष्टी करने के लिए उन्होंने बाबुराव शेडमाके के पार्थिव को खौलती चुना भट्टी में डाल दिया। इस घटना का जिक्र महाराष्ट्र की चांदा डिस्ट्रीक गैज़ेटीर्स में भी है उसमें लिखा गया है कि:-

““This rising in Chandrapur was spontaneous. It practically speared towards the end of the great Revolt. Though un-successful it stands out as a brilliant attempt of the Raj Gond Zamindars to regain their freedom. Many folk tales and songs are current in the Chandrapur area extolling the heroic exploits of the two Gond leaders. Baburao the Zamindar of Molampalli. According to one story had consumed tadava, and as a result of its extraordinary powers, when hanged, managed to break the noose four times. He was finally immersed in quick lime, and killed.”

बाबुराव की फांसी के बाद उनके साथी व्यंकटराव को भी 2 साल बाद अंग्रेजों ने पकड़ लिया और उनपर मुकदमा चलाकर 30 मई 1860 को उन्हें भी आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। बाबुराव को गिरफ्तार कराने वाली लक्ष्मीबाई को बाबुराव और व्यंकटराव की जमीनदारी इनाम में दी गई। जिस जमीनदारी के लालच में लक्ष्मीबाई ने बाबुराव को पकडवाया था उनकी जमींदारी भी सन 1951 में समाप्त कर दि गई। और लक्ष्मीबाई ने जो देशद्रोह कर चंद्रपुर जिले को कलंकित किया था उसके लिए उनकी निंदा की गई।

इस तरह 25 साल की कम उम्र में बाबुराव शेडमाके अपने शौर्य का प्रतिक दिखाते हुए स्वतंत्रता की खातिर बलिदान हो गये। उनके शौर्य और साहस के लिए भारत सरकार ने भारतीय डाक द्वारा 12 मार्च सन 2007 को उनके जन्मदिवस पर उनके नाम का एक स्टॅम्प (टिकीट) जारी किया। ऐसे महान वीर सपुत की याद में चंद्रपुर में उनका एक स्मारक बनाने का प्रयास हमारा आदिवासी समाज कई वर्षों से कर रहा है लेकिन सरकार इस पर आजतक मौन हैं। चांदागढ़ के ऐतिहासिक किले की हालत खस्ता हो रही है इस पर भी शासन मौन है सिर्फ पुरातत्व विभाग का बोर्ड लगा देने से किले की हिफाजत नहीं हो सकती उसकी मरम्मत भी की जानी चाहिए। हर साल वीर बाबुराव शेडमाके बलिदान दिवस पर हजारों की संख्या में आदिवासी सगाजन चंद्रपुर जेल में पीपल के पेड़ के पास एकत्रित होकर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

सन्दर्भ:-
– 1857 चे स्वाधीनता शहीद वीर बाबुराव पुल्लेसुर बापू राजगोंड – पुरूषोत्तम सेडमाके
– भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम में चंद्रपुर – भगवती प्रसाद मिश्र, स्वातंत्र्य संग्राम सेनानी
– आदिवासी संस्कृति, त्यांच्या पुर्वजांचे कार्य व आता नवी दिशा – मधुकर उ. मडावी
– क्रांतीरत्न शहीद वीर बाबुराव पुलेसूरबापू राजगोंड – धिरज सेडमाके
– गोंडवानाचा सांस्कृतिक इतिहास – शेषराव एन. मंडावी
 
        🇮🇳 *जयहिंद* 🇮🇳

अवुल पाकीर जैनुलाबदिन अब्दुल कलाम तथा ए. पी. जे. अब्दुल कलाम

*🇮🇳स्वातंत्र्याचा अमृत महोत्सव 🇮🇳
                 *भारतरत्न*
*अवुल पाकीर जैनुलाबदिन अब्दुल कलाम*
                       तथा  
            *ए. पी. जे. अब्दुल कलाम*
(भारताचे ११ वे राष्ट्रपती, वैज्ञानिक, अभियंता)
       *जन्म : १५ ऑक्टोबर १९३१*
                *(रामेश्वर)*
       *मृत्यू : २७ जुलै २०१५*
                *(शिलाँग)*
सन्मान : भारतरत्न, पद्मभूषण, पद्मविभूषण
                   कलाम यांनी आपले शालेय शिक्षण रामनाथपुरमला पूर्ण केले. लहान वयातच वडिलांचे छत्र गमावल्याने डॉ. कलाम गावात वर्तमानपत्रे विकून, तसेच अन्य 
लहान मोठी कामे करून पैसे कमवीत व घरी मदत करीत होते. त्यांचे बालपण खूप कष्टात गेले. शाळेत असताना गणिताची त्यांना विशेष आवड लागली. नंतर ते तिरुचिरापल्ली येथे सेंट जोसेफ कॉलेजमध्ये दाखल झाले. तेथे बी.एस्‌‍सी. झाल्यानंतर त्यांनी 'मद्रास इन्स्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजीत प्रवेश घेतला. प्रवेशासाठी लागणारे पैसेही त्यांच्याकडे नव्हते. बहिणीने स्वतःचे दागिने गहाण ठेवून त्यांना पैसे दिले. या संस्थेतून एरॉनॉटिक्सचा डिप्लोमा पूर्ण केल्यानंतर, त्यांनी अमेरिकेतील 'नासा' या प्रसिद्ध संशोधन संस्थेत चार महिने एरोस्पेस टेक्नॉलॉजीचे प्रशिक्षण घेतले.

🚀 *कार्य* 🛰
                १९६३ मध्ये ते भारतीय अवकाश संशोधन संस्थेत (इस्रो) क्षेपणास्त्र विकासातील पिएसएलव्ही(सेटेलाइट लॉन्चिंग व्हेईकल) च्या संशोधनात भाग घेऊ लागले.इंदिरा गांधी पंतप्रधान असताना भारताने क्षेपणास्त्र विकासाचा एकात्मिक कार्यक्रम हाती घेतला त्या वेळी डॉ. कलाम पुन्हा डीआरडीओमध्ये वैयक्तिक कामापेक्षा सांघिक कामगिरीवर त्यांचा भर असे व सहकार्‍यांमधील उत्तम गुणांचा देशाच्या वैज्ञानिक प्रगतीसाठी उपयोग करून घेण्याची कला त्यांच्यामध्ये होती. क्षेपणास्त्र विकासकार्यामधील 'अग्नी' क्षेपणास्त्राच्या यशस्वी चाचणीमुळे डॉ. कलाम यांचे जगभरातून कौतुक झाले. पंतप्रधानांचे वैज्ञानिक सल्लागार म्हणून काम करतांना देशाच्या सुरक्षिततेच्या दृष्टीने त्यांनी अनेक प्रभावी धोरणांची आखणी केली. त्यांनी संरक्षण मंत्र्यांचे वैज्ञानिक सल्लागार व डीआरडीओ चे प्रमुख म्हणून त्यांनी अर्जुन हा एम.बी.टी.(मेन बॅटल टँक) रणगाडा व लाइट काँबॅट एअरक्राफ्ट (एलसीए) यांच्या निर्मितीत महत्त्वाची भूमिका पार पाडली.
 📚 *शिक्षण*
             त्यांचे वडील रामेश्वरमला येणार्‍या यात्रेकरूंना होडीतून धनुष्कोडीला नेण्याआणण्याचा व्यवसाय करीत.त्यांचे वडील व लक्ष्मणशास्त्री नावाचे पुजारी घनिष्ठ मित्र होते.त्यांच्यातील अध्यात्मिक चर्चा कलाम ऐकत असत.डॉ. कलाम यांनी आपले शालेय शिक्षण रामनाथपुरम्‌ला पूर्ण केले. लहान वयातच वडिलांचे छत्र गमावल्याने डॉ. कलाम गावात वर्तमानपत्रे विकून, तसेच अन्य लहान मोठी कामे करून पैसे कमवीत व घरी मदत करीत. त्यांचे बालपण खूप कष्टात गेले. शाळेत असताना गणिताची त्यांना विशेष आवड लागली. नंतर ते तिरुचिरापल्ली येथे सेंट जोसेफ कॉलेजमध्ये दाखल झाले. तेथे बी.एस्‌‍सी. झाल्यानंतर त्यांनी 'मद्रास इन्स्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजीत प्रवेश घेतला. प्रवेशासाठी लागणारे पैसेही त्यांच्याकडे नव्हते. बहिणीने स्वतःचे दागिने गहाण ठेवून त्यांना पैसे दिले. या संस्थेतून एरॉनॉटिक्सचा डिप्लोमा पूर्ण केल्यानंतर, त्यांनी अमेरिकेतील 'नासा' या प्रसिद्ध संशोधन संस्थेत चार महिने एरोस्पेस टेक्नॉलॉजीचे प्रशिक्षण घेतले.

 ♦ *स्वभाव* 
    विज्ञानाचा परम भोक्ता असणारे डॉ. कलाम मनाने खूप संवेदनशील व साधे होते. त्यांना रुद्रवीणा वाजण्याचा, मुलांशी गप्पा मारण्याचा छंद होता. भारत सरकारने 'पद्मभूषण', 'पद्यविभूषण' व १९९८ मध्ये 'भारतरत्‍न' हा सर्वोच्च किताब देऊन त्यांचा सन्मान केला. डॉ. कलाम हे अविवाहित व पूर्ण शाकाहारी होते. बालपण अथक परिश्रमांत व्यतीत करून विद्येची अखंड साधना करीत खडतर आयुष्य जगलेले, आणि जगातील सर्वात मोठया लोकशाही राष्ट्राच्या राष्ट्रपतिपदी निवड झालेले डॉ. कलाम, हे युवकांना सदैव प्रेरणा देणारे व्यक्तिमत्त्व होते. पुढील वीस वर्षांत होणार्‍या विकसित भारताचे स्वप्न ते सतत पाहत असत.
 
🥇 *गौरव*
                    अब्दुल कलाम यांचा १५ ऑक्टोबर हा जन्म दिवस जगभरात जागतिक विद्यार्थी दिवस म्हणून पाळला जातो.
भारत सरकारने 'पद्मभूषण', 'पद्मविभूषण' व १९९७ मध्ये 'भारतरत्‍न' हा सर्वोच्च किताब देऊन त्यांचा सन्मान केला.
 
 *निधन*
               ए.पी.जे. अब्दुल कलाम यांची प्रकृती शिलाँग येथील आय.आय.एम.च्या कार्यक्रमात व्याख्यान देताना तबेत बिघडली. शिलाँगमधीलच एका रुग्णालयात त्यांनी २७ जुलै, इ.स. २०१५ रोजी अखेरचा श्वास घेतला.कलाम यांनी केलेल्या कार्याचा उपयोग भारतासाठी विविध कार्यात झाला आहे.
        🇮🇳 *जयहिंद* 🇮🇳

रावबहादुर गोपाळ हरी लोकहितवादी


       रावबहादुर गोपाळ हरी
   देशमुख उर्फ 
महाराष्ट्रीय समाजसुधारक

    *जन्म : १८ फेब्रुवारी १८२३*
    *मृत्यु : ९ आक्टोबर १८९२*
                 ( पुणे, महाराष्ट्र )
     रावबहादुर गोपाळ हरी देशमुख ऊर्फ लोकहितवादी  हे इ.स.च्या एकोणिसाव्या शतकात होऊन गेलेले मराठी पत्रकार, समाजसुधारक व इतिहासलेखक होते. प्रभाकर नावाच्या साप्ताहिकातून लोकहितवादी या टोपणनावाने यांनी समाजसुधारणाविषयक शतपत्रे (वस्तुतः संख्येने १०८) लिहिली. . भाऊ महाजन उर्फ गोविंद विठ्ठल कुटें हे प्रभाकर साप्ताहिकाचे संपादक होते. वर्तमानपत्रात लिहिलेल्या एका ‘शतपत्रांचा इत्यर्थ‘ मथळ्याच्या पत्रात त्यांनी सुधारक विचारांच्या त्यांच्या लेखनाचा हेतू स्पष्ट केला आहे. मुळात संख्येने १०० असलेल्या या निबंधांत त्यांनी ‘संस्कृतविद्या‘, पुनर्विवाह‘, पंडितांची योग्यता‘, ‘खरा धर्म करण्याची आवश्यकता‘, ‘पुनर्विवाह आदी सुधारणा‘ ही पाच आणि अधिक तीन अशा आठ निबंधांची भर घातली.

💁‍♂ *जीवन*
          सरदार गोपाळ हरी देशमुख  यांचे घराणे मूळचे कोकणातले वतनदार होते. घराण्याचे मूळचे आडनाव सिद्धये. त्यांच्या देशमुखी वतनामुळे देशमुख हे आडनाव रूढ झाले. गोपाळराव देशमुखांचे वडील हरिपंत देशमुख हे पुण्यात दुसर्‍या बाजीराव पेशव्यांचे सेनापती बापू गोखले यांचे फडणीस म्हणून काम करीत होते. गोपाळराव देशमुखांना ग्रंथसंग्रहाची व वाचनाची विलक्षण आवड होती. इतिहास हा त्यांचा आवडीचा विषय होता. त्यांनी त्या विषयावर सुमारे दहा पुस्तके लिहिली आहेत.
       इसवी सनाच्या एकोणिसाव्या शतकाच्या सुरुवातीच्या काळात इंग्रजी शिक्षणामुळे घडलेल्या पहिल्या काही नवशिक्षितांपैकी एक म्हणजे गोपाळ हरी होत. त्यांनी मराठी शाळेत शिक्षण घेत असतानाच इंग्रजीचा अभ्यास केला. त्यांच्या वयाच्या २१व्या वर्षी ते न्यायालयात भाषांतरकार झाले. ’सदर अदालती’ची मुन्सिफीची परीक्षा उत्तीर्ण झाल्यावर १८६२पासून ते मुंबई सरकारच्या न्यायखात्यात न्यायाधीश झाले. त्या पदावर त्यांनी अहमदाबाद, नाशिक आणि सातारा येथल्या कोर्टांत काम केले.लोकहितवादीनी कोणाची मजुरी पत्करली नाही.लोकांनी ज्ञानी व्हाव आणि ज्या जुन्या रूढी परंपरा आहेत त्या बाजूला ठेवाव्यात.इग्रंजी भाषेवर प्रभुत्व असावे असे लोकहितवादीना वाटायचे.
         श्रमातून संपत्ती निर्माण होते या सूत्रातून गोपाळराव देशमुखांना दारिद्र्य निर्मूलनासाठी काय करायला पाहिजे याची दिशा समजली. हिंदुस्थानात ज्ञानाबरोबरच तंत्रज्ञान व नाना प्रकारचे उद्योगधंदे वाढावेत ही त्यांची तळमळ होती. स्वदेशात विद्यावृद्धी होऊन स्वभाषेत नवे नवे ज्ञान प्रसारित झाल्याशिवाय हिंदुस्थानला जगातील इतर प्रगत राष्ट्रांच्या बरोबरीचे स्थान मिळणार नाही, असे त्यांना तीव्रपणे वाटे. 

📝 *लेखन*
       रेव्हरंड जी.आर. ग्लीन यांच्या ‘हिस्टरी ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर इन इंडिया‘ या पुस्तकाच्या आधारे गोपाळराव देशमुखांनी इ.स.१८४२मध्ये, म्हणजे वयाच्या एकोणिसाव्या वर्षी हिंदुस्थानचा इतिहास ‘हे पुस्तक लिहिले. पुस्तकाचे प्रकाशन मात्र इ.स.१८७८मध्ये झाले. इ.स. १८४८ पासून त्यांनी मुंबईहून निघणाऱ्या प्रभाकर या साप्ताहिकात (संपादक :भाई महाजन), लोकहितवादी या नावाने लोकहितार्थ लेखन सुरू केले. त्या नावाने त्यांचा पहिला लेख त्या वर्षी १२मार्च रोजी प्रसिद्ध झाला. लेखाचा विषय होता..’इंग्लिश लोकांच्या व्यक्तिमात्राच्या गैरसमजुती’. याशिवाय, लोकहितवादींनी ‘एक ब्राह्मण‘ या नावानेही लिखाण केले आहे. त्या काळी लहान वयातच लग्न करून द्यायची प्रथा होती. लहान वयातील लग्नामुळे काय अडचणी होतात हे त्यांनी प्रभाकरमध्ये पत्र लिहून लोकांच्या नजरेस आणले. पुढील काळात त्यांनी अनेक समस्यांबाबत, विविध विषयांवर पत्रद्वारा लेखन केले.
          इ.स. १८४८ ते इ.स. १८५० या काळात त्यांनी १०८ छोटे छोटे निबंध लिहिले. हेच निबंध लोकहितवादींची शतपत्रे नावाने ओळखले जातात. या शतपत्रांच्या माध्यमातून त्यांनी समाजसुधारणा विषयक विचार समाजासमोर मांडले. ही शतपत्रे प्रभाकर या साप्ताहिकातून प्रसिद्ध झाली. धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजकीय, वाङ्मयीन, ऐतिहासिक इत्यादी विषयांवर त्यांनी लहानमोठे असे सुमारे ३९ ग्रंथ लिहिले, दोन नियतकालिके चालविली, आणि ज्ञानप्रकाश व इंदुप्रकाश ही नियतकालिके काढण्याच्या कामी पुढाकार घेतला. लोकहितवादींनी अनेक उत्कृष्ट इंग्रजी ग्रंथांचे मराठीत भाषांतर केले. त्यांच्या लेखनातून लोकांच्या सर्वांगीण उन्नतीची तळमळ दिसून येते. जातिसंस्था हा देशाच्या उन्नती होण्याच्या मार्गातील मोठा अडसर आहे असे प्रतिपादन त्यांनी आपल्या लेखनातून केले. लोकहितवादी हे एकोणिसाव्या शतकाच्या पूर्वाधातील,म्हणजे रानडेपूर्व पिढीतील हिंदुस्थानातील अर्थशास्त्रज्ञ होते. मराठीतून लेखन करणारेही ते पहिलेच अर्थतज्ञ. ‘लक्ष्मीज्ञान‘ या ग्रंथाद्वारे त्यांनी अ‍ॅडम स्मिथ‘प्रणीत अर्थशास्त्र वाचकांसमोर आणले. "मातृभाषेतून शिक्षण" या तत्त्वाचाही त्यांनी प्रसार केला.

मराठीप्रमाणेच त्यांनी गुजरातीतही लिखाण केले आहे.

📚 *लोकहितवादींचे ग्रंथसाहित्य*
       इतिहास : (एकूण १० पुस्तके)
भरतखंडपर्व (हिंदुस्थानचा संक्षिप्त इतिहास ,१८५१)
पाणिपतची लढाई(काशिराज पंडित यांच्या मूळ फार्सी ग्रंथाच्या इंग्रजी भाषांतरावरून, १८७७.)
ऐतिहासिक गोष्टी भाग १ (१८७७)
ऐतिहासिक गोष्टी भाग २ (१९७८)
ऐतिहासिक गोष्टी भाग ३ (१९८०)
हिंदुस्थानचा इतिहास - पूर्वार्ध (१८७८)
गुजरात देशाचा इतिहास (१८८१)
लंकेचा इतिहास (१८८८)
सुराष्ट्र देशाचा ससाक्ष इतिहास (गुजरातीवरून अनुवादित,१८९१)
उदेपूरचा इतिहास (कर्नल टॉडच्या ‘अ‍ॅनल्स ऑफ राजस्थान‘चे भाषांतर, १८९३)
चरित्रे : (एकूण २ पुस्तके)
पृथ्वीराज चव्हाण यांचा इतिहास (चांद बारदाई यांच्या ‘पृथ्वीराज रासो‘ नावाच्या इ.स.११९१मध्ये मूळ प्राकृत भाषेत लिहिल्या गेलेल्या काव्यावर आधारित, १८८३)
टीप: पृथ्वीराज चव्हाण इ.स. ११९२मध्ये लढाईत मारले गेले. म्हणजे ‘पृथ्वीराज रासो‘ पृथ्वीराजांच्या हयातीत लिहिले गेले होते.
पंडित स्वामी श्रीमद्‌दयानंद सरस्वती (१८८३)
धार्मिक-नैतिक : (एकूण ७ पुस्तके)
खोटी साक्ष आणि खोटी शपथ यांचा निषेध (१८५९)
गीतातत्त्व (१८७८)
सुभाषित अथवा सुबोध वचने (संस्कृत ग्रंथांतील सुभाषितांचे भाषांतर, १८७८)
स्वाध्याय
प्राचीन आर्यविद्यांचा क्रम, विचार आणि परीक्षण (१८८०)
आश्वलायन गृह्यसूत्र (अनुवाद, १८८०)
आगमप्रकाश (गुजराती, १८८४). या ग्रंथाचे मराठी भाषांतर पुढे रघुनाथजी यांनी केले.
निगमप्रकाश (मूळ गुजराती, इ.स. १८८४)
राज्यशास्त्र-अर्थशास्त्र : (एकूण ५ पुस्तके)
लक्ष्मीज्ञान (क्लिफ्टच्या पॉलिटिकल इकॉनॉमी या पुस्तकाचे मराठी रूपांतर, १८४९)
हिंदुस्थानात दरिद्रता येण्याची कारणे आणि त्याचा परिहार, व व्यापाराविषयी विचार (दादाभाई नौरोजी यांच्या ‘पॉव्हर्टी इन इंडिया’ या निबंधाच्या आधारे, १८७६)
स्थानिक स्वराज्य व्यवस्था (१८८३)
ग्रामरचना त्यातील व्यवस्था आणि त्यांची हल्लीची स्थिती (१८८३)
स्वदेशी राज्ये व संस्थाने (१८८३)
समाजचिंतन :(एकूण ५ पुस्तके)
जातिभेद (१८८७)
भिक्षुक (मुंबई आर्यसमाजात दिलेले व्याख्यान, १८७७)
प्राचीन आर्यविद्या व रीती (१८७७)
कलियुग (मुंबई आर्यसमाजात दिलेले व्याख्यान, १८७७)
निबंधसंग्रह (शतपत्रे आणि इतर निबंध, १८६६)
विद्यालहरी 
संकीर्ण : (एकूण ७ पुस्तके)
होळीविषयी उपदेश (१८४७)
महाराष्ट्र देशातील कामगार लोकांशी संभाषण (१८४८)
सरकारचे चाकर आणि सुखवस्तू हिंदुस्थानातील साहेब लोकांशी संभाषण (१८५०)
यंत्रज्ञान “इन्ट्रॉडक्शन टु फिजिकल सायन्सेस‘ ह्या पुस्तकाचा अनुवाद, १८५०)
पदनामा (फार्सी पुस्तकाचा अनुवाद,१८५०)
पुष्पयन(शेख सादीच्या ‘गिलिस्तॊं‘तील आठव्या अध्यायाचा अनुवाद, १८५१)
शब्दालंकार (१८५१)
हस्तलिखित न सापडल्याने प्रसिद्ध करता न आलेली पुस्तके :(एकूण ४ पुस्तके)
आत्मचरित्र
एका दिवसात लिहिलेले पुस्तक
विचारलहरी
हिंदुस्थानातील बालविवाह
लोकहितवादींनी चालवलेली नियतकालिके : (एकूण २ )
लोकहितवादी (डेमी आकारमानाचे वीस पृष्ठांचे मासिक, ऑक्टोबर १८८२पासून १८८७पर्यंत)
लोकहितवादी (ऐतिहासिक ग्रंथ प्रकाशित करणारे त्रैमासिक, एप्रिल१८८३पासून ते १८८७पर्यंत)

🤝 *अन्य सामाजिक कार्य*
         मुंबई प्रांताचे तेव्हाचे गव्हर्नर हेन्‍री ब्राउन यांच्या पुढाकाराने गोपाळरावांनी इ.स. १८४८ साली पुण्यात एक ग्रंथालय काढले. पूना नेटिव जनरल लायब्ररी या नावाने स्थापन झालेले हे ग्रंथालय पुढे पुणे नगरवाचन मंदिर म्हणून प्रसिद्ध झाले . प्रामुख्याने महाराष्ट्रात व गुजरातमध्ये त्यांनी आपल्या सामाजिक कार्याचा ठसा उमटवला.
       त्यांची निस्पृह व निःपक्षपाती म्हणून ख्याती होती. सातार्‍याचे प्रिन्सिपॉल सदर अमीन यांना काही कारणास्तव निलंबित करण्यात आले. त्यांच्या जागी गोपाळरावांची नेमणूक करण्यात आली. सदर अमीन यांची चौकशी चालू झाल्यावर चौकशी प्रमुख म्हणून त्यांनी गोपाळरावांचेच नाव सुचविले. त्यांचा गोपाळरावांच्या निःपक्षपातीपणावर विश्वास होता. इ.स. १८५६ साली गोपाळराव ‘असिस्टंट इनाम कमिशन‘ या पदावर नेमले गेले. इ.स. १८६७ साली त्यांनी अहमदाबाद येथे स्मॉल कॉज कोर्टात जज्ज म्हणून काम करण्यास सुरुवात केली. गुजरातमधील वास्तव्यात त्यांनी विविध उपक्रम कार्यान्वित केले. येथील प्रेमाभाई इन्स्टिट्यूटतर्फे ते दरवर्षी व्याख्यानमाला करवीत आणि स्वतःही अनेक विषयांवर भाषणे देत. तेथे त्यांनी प्रार्थना समाजाची स्थापना केली, तसेच गुजराती पुनर्विवाह मंडळ स्थापन केले. गुजरात व्हर्नाक्युलर सोसायटी ऊर्जितावस्थेत आणली. गुजराती व इंग्लिश भाषा भाषेत हितेच्छु नावाचे साप्ताहिक काढले. त्यांनी गुजरातमध्ये गुजराती वक्तृत्वसभा स्थापन केली. गुजरात मध्ये त्यांनी सुमारे बारा वर्षे वैचारिक उद्‌बोधनाचे कार्य केले. गुजराथमधील अनेक सामाजिक व अन्य संस्थांचे ते पदाधिकारी होते.
             गोपाळरावांना सामाजिक वर्तन व नीती या घटकांना धार्मिक समजुती आणि चालीरीती यांच्या वर्चस्वापासून मुक्त करायचे होते. धर्मसुधारणेची कलमे म्हणून त्यांनी पंधरा तत्त्वांचा उल्लेख या संदर्भात केला होता. धर्माचे काम एका विशिष्ट वर्गाकडे सोपवले गेल्याने हिंदू धर्माला दौर्बल्य आले आहे असा सिद्धान्त त्यांनी मांडला. त्यांचा मूर्तिपूजेला विरोध होता. त्यांनी आर्यसमाज या पंथाचा स्वीकार केला होता. समाजातील बालविवाह, हुंडा, बहुपत्नीकत्व यांसारख्या अनिष्ट प्रथांवर त्यांनी आपल्या लेखनातून आणि भाषणांतून हल्ला चढविला.
इ.स. १८७७ साली दिल्ली दरबारप्रसंगी ब्रिटिश शासनाने रावबहादूर ही पदवी देऊन त्यांना सन्मानित केले होते.

🤝 *समाजकार्य*
         अहमदाबादेत प्रार्थना समाज व पुनर्विवाह मंडळाची स्थापना
हितेच्छू ह्या गुजराती नियतकालिकाच्या स्थापनेत सहाय्य
गरजूंसाठी आपल्याच घरात मोफत दवाखाना
गुजराती वक्तॄत्त्व मंडळाची स्थापना व त्याद्वारे व्याख्यानांचे आयोजन
गरजू विद्यार्थांना आर्थिक व शैक्षणिक मदत
पंढरपूर येथील अनाथबालकाश्रम व सूतिकागृह स्थापनेत सहभाग

🔮 *इतर*
            अध्यक्ष, आर्य समाज मुंबई
अध्यक्ष, थिऑसॉफिकल सोसायटी ऑफ बाँबे
अध्यक्ष, गुजराती बुद्धिवर्धक सभा
१८७८मध्ये ते मुंबई विद्यापीठाचे फेलो झाले.
सन १८८०मध्ये गोपाळराव देशमुख मुंबई कायदे कौन्सिलचे सदस्य झाले.

🎖 *पुरस्कार*
                  ब्रिटिशांनी गोपाळराव देशमुखांना ‘जस्टिस ऑफ पीस‘ या पदवीने आणि १८७७ मध्ये ‘रावबहाद्दूर‘ या पदवीने सन्मानिले.
१८८१मध्ये ब्रिटिश सरकारने त्यांना ‘फर्स्ट क्लास सरदार‘ म्हणून मान्यता दिली.                
          🇮🇳 *जयहिंद* 🇮🇳