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महाराज हरि सिंह


              *महाराज हरि सिंह*

      (जम्मू और कश्मीर के महाराज)

  *जन्म: 21 सितंबर 1895*  (जम्मू)                                                                                                                                 *निधन: 26 अप्रैल 1961* (मुंबई)                                                                                        महाराज हरि सिंह जम्मू और कश्मीर रियासत के अंतिम शासक महाराज थे। वे महाराज रणबीर सिंह के पुत्र और पूर्व महाराज प्रताप सिंह के भाई, राजा अमर सिंह के सबसे छोटे पुत्र थे। इन्हें जम्मू-कश्मीर की राजगद्दी अपने चाचा, महाराज प्रताप सिंह से वीरासत में मिली थी।

पूर्ववर्ती : महाराज प्रताप सिंह

उत्तरवर्ती : कर्ण सिंह(राजप्रमुख के रूप में)

संतान ६: (४ पुत्र, २ पुत्री)

घराना : डोगरा राजवंश


          महा राजा हरि सिंह उन्होंने अपने जीवनकाल में चार विवाह किये। उनकी चौथी पत्नी, महारानी तारा देवी से उन्हें एक बेटा था जिसका नाम कर्ण सिंह है।

               हरि सिंह, डोगरा शासन के अन्तिम राजा थे जिन्होंने जम्मु के रज्य को एक सदी तक जोड़े रखा।जम्मु राज्य ने 1947 तक स्वायत्ता और आंतरिक संपृभुता का मज़ा उठाया। यह राज्य न केवल बहुसांस्कृतिक और बहुधमी॔ था , इसकी दूरगामी सीमाएँ इसके दुर्जेय सैन्य शक्ति तथा अनोखे इतिहास का सबूत हैं।


💁🏻‍♂️ *परिचय*

                 हरि सिंह का जन्म २३ सितम्बर १८९५ को अमर महल में हुआ था। १३ वर्ष की आयु मे उन्हें मयो कालेज , अजमेर भेज दिया गया था। उसके एक साल बाद १९०९ मे उनके पिताजी की मृत्यु हो गयी। इसके बाद मेजर एच. के. बार को उनका संरक्षक घोषित कर दिया गया। २० साल की आयु में उन्हें जम्मू राज्य का मुख्य सेनापति नियुक्त कर दिया गया।


💁🏻‍♂️ *व्यक्तिगत जीवन*

             उन्होने चार विवाह किये। उनकी पहली पत्नी धरम्पुर रानी श्री लाल कुन्वेर्बा साहिबा थी जिनसे उनका विवाह राजकोट में ७ मई १९१३ को हुआ। उनकी अन्तिम पत्नी महारानी तारा देवि से उन्हे एक पुत्र, युवराज कर्ण सिंह था। उन्की दूसरी पत्नी चम्बा रानी साहिबा थी जिनसे उन्होंने ८ नवंबर १९१५ में शादी की। तीसरी पत्नी महारानी धन्वन्त कुवेरी बैजी साहिबा थी जिनसे उन्होंने धरम्पुर में ३० अप्रैल १९२३ को शादी की। चौथी बीवी कानगरा की महारानी तारा देवी साहिबा थी जिनसे उनहे एक पुत्र था।

⚜️ *सेवाकाल*

                   उन्होने अपने राज्य में प्रराम्भिक शिक्षा अनिवार्य कर दिया एवं बाल विवाह के निषेध का कानून शुरु किया।उन्होंने निम्न्वर्गिय लोगों के लिये पूजा करने कि जगह खोल दी। वे मुस्लिम लीग तथा उनके सदस्यों के साम्प्रदयिक सोच के विरुद्ध थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय वे १९४४-१९४६ तक शाही युद्ध मंत्रिमंडल के सदस्य थे। हरि सिंह ने २६ अक्तुबर १९४७ को परिग्रहन के साधन पर हस्ताक्षर किए और इस प्रकार अपने जम्मु राज्य को भारत के अधिराज्य से जोड़ा। उन्होंने नेहरु जी तथा सरदार पटेल के दबाव में आकर १९४९ में अपने पुत्र तथा वारिस युवराज करन सिंह को जम्मु का राज-प्रतिनिधि नियुक्त किया। उन्होंने अपने जीवन के आखरी पल जम्मु में अपने हरि निवास महल में बिताया। उन्की मृत्यु २६ अप्रैल १९६१ को बम्बई में हुई। उनकी इच्छानुसार उनकी राख को जम्मु लाया गया और तवि नदि में बहा दिया गया।                   ♨️ *कश्‍मीर को अलग मुल्‍क बनाना चाहते थे महाराजा हरि सिंह, ऐसे आई धारा 370*

                          भारत को जब ब्रिटिश हुकूमत से आजादी मिली. उस वक्त देश की मौजूदा सरहद में 565 प्रिंसली स्टेट यानी आज़ाद रियासतें थीं. आजादी के बाद इनमें से तीन रियासतों को छोड़कर सभी भारत में विलय को राज़ी हो गईं. ये रियासतें थीं. जम्मू-कश्मीर, जूनागढ़ और हैदराबाद.

                    राजा हरि सिंह ने ही भारत में विलय के वक्त धारा 370 को बनाने की शर्त रखी थी

राजा हरि सिंह ने ही भारत में विलय के वक्त धारा 370 को बनाने की शर्त रखी थी

             हिंदुस्तान और पाकिस्तान को एक दूसरे से अलग करती एक रियासत, जिसने आज़ादी के बाद दोनों ही देशों से मिलने से इनकार कर दिया. क्योंकि उस रियासत के राजा को लगा कि वो अपनी इस सल्तनत को जन्नत से भी खूबसूरत बनाएगा. इतना खूबसूरत की दुनिया इसे देखने के लिए मजबूर हो जाए. मगर जन्नत बनने से पहले ही कुछ लोग उसे जहन्नुम बनाने की साज़िश रचने लगे. तब एक चिट्ठी ने उस जन्नत को जहन्नुम बनने से बचा लिया. जिसे इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन कहा जाता है. मगर इसी इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन में दर्ज थी एक धारा. धारा 370.


🇮🇳 *15 अगस्त 1947*

                  भारत को जब ब्रिटिश हुकूमत से आजादी मिली. उस वक्त देश की मौजूदा सरहद में 565 प्रिंसली स्टेट यानी आज़ाद रियासतें थीं. आजादी के बाद इनमें से 3 रियासतों को छोड़कर सभी भारत में विलय को राज़ी हो गईं. ये रियासतें थीं. जम्मू-कश्मीर, जूनागढ़ और हैदराबाद. उस वक्त सरकार की कोशिशों से जूनागढ़ और हैदराबाद का तो विलय भारत में हो गया. मगर जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह चाहते थे कि उनका कश्मीर स्वतंत्र राज्य रहे.

                  लिहाजा उन्होंने भारत और पाकिस्तान के साथ स्टैंड स्टिल समझौते की पहल की. उस समझौते का मकसद था कि उन्हें भारत या पाकिस्तान में विलय करने के लिए कुछ और वक्त मिल जाए. पाकिस्तान ने तो महाराजा हरि सिंह के साथ ये समझौता कर लिया लेकिन भारत ने उन हालात में इंतजार करना ही बेहतर समझा. दरअसल भारत कश्मीर के विलय का इंतजार कर रहा था और महाराजा हरि सिंह आजाद कश्मीर का सपना पाले हुए थे.


♦️ *24 अक्टूबर 1947*

                पाकिस्तान ने समझौता तोड़ दिया और कबायलियों की आड़ में कश्मीर पर चढ़ाई कर दी. वो किसी भी वक्त राजधानी श्रीनगर पर कब्ज़ा करने वाले थे. और अगर ऐसा हो जाता तो कश्मीर आज पाकिस्तान का हिस्सा होता. मगर महाराजा हरि सिंह ने पाकिस्तान के सामने झुकने के बजाए भारत सरकार से सैन्य मदद मांगना बेहतर समझा. मगर भारत सरकार ने महाराजा हरि सिंह की मदद करने के लिए एक शर्त रख दी. शर्त थी कि भारत में विलय.

                     लिहाज़ा मौके की नज़ाकत को देखते हुए महाराजा हरि सिंह विलय को तैयार हो गए. और अगली ही सुबह सरदार पटेल के करीबी अफसर वीपी मेनन हालात का जायज़ा लेने दिल्ली से कश्मीर रवाना हो गए. मेनन सरदार पटेल के नेतृत्व वाले राज्यों के मंत्रालय के सचिव थे. मेनन जब महाराजा हरि सिंह से श्रीनगर में मिले तब तक हमलावर बारामूला पहुंच चुके थे. ऐसे में उन्होंने महाराजा को तुरंत जम्मू रवाना हो जाने को कहा और वे खुद कश्मीर के प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन को साथ लेकर दिल्ली लौट आए.


♦️ *26 अक्टूबर 1947*

               हालात ऐसे थे कि किसी भी वक्त कश्मीर की राजधानी पर हमलावरों का कब्जा हो सकता था. महाराजा हरी सिंह भारत से मदद की उम्मीद लगाए बैठे थे. ऐसे में लॉर्ड माउंटबेटन ने सरदार पटेल को सलाह दी कि कश्मीर में भारतीय फौज भेजने से पहले हरी सिंह से इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन पर हस्ताक्षर करवा लिया जाए. लिहाज़ा मेनन को एक बार फिर से जम्मू रवाना किया गया. और मेनन ने इसी दिन महाराजा हरी सिंह से इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन पर हस्ताक्षर करवाए और उसे लेकर वे फौरन दिल्ली वापस लौट आए.


♦️ *क्या था इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन*

                हर हिंदुस्तानी के ज़ेहन में ये सवाल अभी भी उठते हैं कि आखिर उस वक्त जम्मू-कश्मीर के इस इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन में था क्या? दरअसल, जम्मू कश्मीर के लिए बने इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन में था कि केंद्र को सिर्फ जम्मू-कश्मीर के रक्षा, विदेश और संचार से संबंधित कानून बनाने का अधिकार होगा. बाकी मसले राज्य खुद देखेगा. इसके क्लॉज 5 में राजा हरि सिंह ने साफ किया था कि इस इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन को किसी भी संशोधन के जरिए बदला नहीं जा सकेगा.

                      इसको बदलने का अधिकार सिर्फ राजा हरि सिंह के पास होगा. और जब तक हरि सिंह कोई दूसरे इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन पर साइन नहीं करते पुराना वाला ही मान्य होगा. भविष्य में भारत का संविधान बनने पर उन्हें उसे स्वीकार करने के लिए प्रतिबद्ध नहीं माना जाएगा. न ही उन्हें भविष्य में बनने वाले संविधान के मुताबिक भारत सरकार के साथ किसी समझौते के लिए कहा जाएगा.


🔸 *27 अक्टूबर 1947*

                    इधर, महाराजा हरि सिंह ने विलय के समझौते पर हस्ताक्षर किए और उधर अगले ही दिन यानी 27 अक्टूबर को उस वक्त आज़ाद भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने भारत की तरफ से समझौते को मंजूरी दे दी. हालांकि कश्मीर जिन हालातों में भारत का हिस्सा बना वो हिंसा का दौर था. और भारत की पॉलिसी ये थी कि विलय करने वाली जिन रियासतों में कुछ भी दिक्कत है. वहां रेफरेंडम यानी जनमत संग्रह करवा कर लोगों की मंशा के मुताबिक विलय हो. न कि राजा की मर्जी से. मगर कश्मीर के मसले पर ऐसा नहीं हो सका था. उस वक्त लॉर्ड माउंटबेटेन ने भी कहा था कि सरकार की ये इच्छा है कि जैसे ही कश्मीर में कानून व्यवस्था बहाल हो जाती है. वैसे ही राज्य को भारत में शामिल करने का फैसला वहां के लोगों के मत के हिसाब से लिया जाएगा.


*27 मई 1949 को पास हुआ था आर्टिकल 370*

                   साल 1948 में भारत सरकार ने जम्मू कश्मीर पर पेश किए गए श्वेत पत्र में लिखा कि भारत में कश्मीर का शामिल होना पूरी तरह से अस्थायी और अल्पकालीन है. जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला को 17 मई 1949 को वल्लभभाई पटेल और एन. गोपालस्वामी आयंगर की सहमति से लिखे एक पत्र में पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी यही बात दोहराई थी. और विलय के वक्त जम्मू-कश्मीर सरकार ने जो ड्राफ्ट तैयार किया था. उस पर सहमति बनाने के लिए करीब पांच महीने तक बातचीत चलती रही. इसके बाद 27 मई 1949 को आर्टिकल 306 A पारित कर दिया गया. जिसे बाद में 370 के नाम से जाना गया.

              संविधान में इस अनुच्छेद को अस्थायी बताया गया है यानि कि इसे कुछ सालों के बाद खत्म होना था लेकिन बाद की सरकारों ने इसे खत्म नहीं किया और ये अनुच्छेद चलता रहा. बल्कि 1954 में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के आदेश से अनुच्छेद 35 ए को अनुच्छेद 370 का हिस्सा बना दिया गया. इसके तहत जम्मू कश्मीर को अपना अलग संविधान बनाने और कुछ धाराओं को छोड़कर भारतीय संविधान को लागू न करने की इजाजत दे दी गई थी.

                तो अब सवाल उठता है कि कश्मीर किस तरह भारत में शामिल हुआ. इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन की मदद से या धारा 370 से? तो इसमें पहला पुल तो इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन ही है. क्योंकि ये 1947 में ही साइन हो गया था. धारा 370 तो 1949 में वजूद में आई. मगर कानूनन अनुच्छेद 370 में जिस अनुच्छेद 1 का उल्लेख है. उसी के जरिए जम्मू कश्मीर को भारत के राज्यों की सूची में शामिल किया गया है.

        जम्मू-कश्मीर को मिले इन्हीं खास अधिकारों को लेकर पिछले 70 सालों से बहस चली आ रही है. और अब 5 अगस्त, 2019 को गृहमंत्री अमित शाह ने इसके दो हिस्से करने की बात कही है. यानी महाराजा हरि सिंह की रियासत-ए-कश्मीर की सवा करोड़ आबादी और सवा दो लाख वर्ग किमी का इलाका अब दो हिस्सों में बंट जाएगा. करगिल और लेह जैसे इलाके अब लद्दाख का हिस्सा होंगे.                                         🌀 *महाराजा हरि सिंह के अपमान का सिलसिला जारी है*

 

              महाराजा हरि सिंह जम्मू कश्मीर के अंतिम शासक थे । उन का नाम राज्य के उन शासकों में आता है जिन्होंने अपने प्रगतिशील दृष्टिकोण के कारण राज्य में अनेक सुधार किये और शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिये अनेक कार्य किये । वे आर्यसमाजी थे इसलिये उन्होंने राज्य में दलित समाज के लिये मंदिरों के दरवाज़े उस समय खोल दिये थे , जब अन्य रियासतों में इसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था । प्रशासन के लोकतंत्रीकरण के लिये उन्होंने रियासत में प्रजा सभा के नाम से विधान सभा की स्थापना कर दी थी ।

                        लेकिन शासन के अंतिम दिनों में जिन से वे सर्वाधिक दुखी व नाराज़ थे वे दो लोग थे । पहले शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला और दूसरे उनके अपने सुपुत्र डॉ. कर्ण सिंह । शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला ने पंडित नेहरु को, जो मूल रूप से कश्मीरी थे, अपने साथ मिला कर महाराजा हरि सिंह को अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । अब्दुल्ला ने अपनी पार्टी नेशनल कान्फ्रेंस के माध्यम से रियासत में से राजशाही को समाप्त करने का आन्दोलन छेड़ रखा था, यह महाराजा के लिये कोई बहुत बड़ा दुख का कारण नहीं था । इतना तो वे समझ ही चुके थे कि अंग्रेज़ों के चले जाने के बाद पूरे देश में एक समान सांविधानिक शासन व्यवस्था लागू करने की मांग ज़ोर पकड़ रही है और देर सवेर राजशाही शासन प्रणाली को जाना ही होगा । उन्होंने तो स्वयं जम्मू कश्मीर को इस नई शासन व्यवस्था में शामिल करने के लिये पहल कर दी थी । देश भर की बाक़ी रियासतों में से भी राजशाही समाप्त हो रही थी और बड़ी रियासतों के शासकों को नई सांविधानिक व्यवस्था के अन्तर्गत अपनी रियासतों का , जिन्हें नई सांविधानिक व्यवस्था में बी श्रेणी के राज्य कहा गया था , राजप्रमुख नियुक्त कर दिया गया था । महाराजा हरि सिंह भी इसी व्यवस्था के तहत जम्मू कश्मीर राज्य के राजप्रमुख बने थे । लेकिन शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला का उद्देश्य तो महाराजा हरि सिंह को अपमानित करना था , उन महाराजा हरि सिंह को , जिन्होंने नेहरु के आग्रह पर बिना कोई चुनाव करवाये शेख़ को रियासत का प्रधानमंत्री बना दिया था ,वह भी उन मेहरचन्द महाजन को हटा कर जिनकी योग्यता की धाक सारे देश में थी ।

लेकिन शेख़ अब्दुल्ला और नेहरु की जोड़ी को महाराजा के इतने अपमान भर से संतोष नहीं हुआ । उन्होंने राज्य के राजप्रमुख को ही राज्य से निष्कासित कर देने का षड्यंत्र रचना शुरु कर दिया । यह महाराजा हरि सिंह के लिये अपमान की पराकाष्ठा थी । लेकिन शेख़ अब्दुल्ला इस के लिये वजिद थे और नेहरु इस गेम में उसके साथी थे । लेकिन इसमें एक ही बाधा थी । उस बाधा को दूर किये बिना महाराजा हरि सिंह को रियासत से निष्कासित करना संभव नहीं था । जब तक महाराजा की गैरहाजिरी में उनका कोई रीजैंट यानि प्रतिनिधि न मिल जाये तब तक उनको रियासत से बाहर नहीं निकाला जा सकता था । यह रीजैंट या प्रतिनिधि उनका बेटा ही हो सकता था । महाराजा हरि सिंह का केवल एक ही बेटा था जिसका नाम कर्ण सिंह था/है , और उसके पिता उसे टाइगर कहा करते थे ।

 

             जीवन में आये इस सबसे बड़े संकट में महाराजा हरि सिंह की पूरी टेक अब अपने बेटे कर्ण सिंह पर ही टिकी हुई थी । यदि कर्ण सिंह रीजैंट बनने से इन्कार देता है तो शेख़ अब्दुल्ला और नेहरु की जोड़ी चाह कर भी महाराजा हरि सिंह को जम्मू कश्मीर से निष्कासित नहीं कर पायेगी । शेख़ अब्दुल्ला और नेहरु भी जानते थे कि तुरप का पत्ता इस समय कर्ण सिंह ही है । कर्ण सिंह यदि अपने पिता महाराजा हरि सिंह के साथ खड़ा हो जाता है तो जीत महाराजा की होगी और कर्ण सिंह यदि शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला के साथ चला जाता है तो जीत नेहरु और शेख़ अब्दुल्ला की जोड़ी की होगी । सारा जम्मू कश्मीर , ख़ास कर जम्मू और लद्दाख के लोग कर्ण सिंह की ओर , साँस रोके टकटकी लगा कर देख रहे थे । लेकिन संकट की उस घड़ी में कर्ण सिंह ने अपने पिता के साथ खड़ा होने की बजाय नेहरु और शेख़ के साथ चले जाने का फ़ैसला किया । उन्होंने रीजैंट बनने के नेहरु के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया । महाराजा हरि सिंह के अपने टाइगर ने उन्हें ज़िन्दगी का सबसे गहरा घाव दिया। यह शायद महाराजा हरि सिंह के जीवन की सबसे बड़ी हार थी जो उसे किसी ओर से नहीं, बल्कि अपने ही सुपुत्र से मिली थी । उसके बाद महाराजा हरि सिंह मुम्बई चले गये और जीवन भर कभी जम्मू कश्मीर में वापिस नहीं आये । कहा जाता है कि उन्होंने कह दिया था कि उनकी मृत देह को भी कर्ण सिंह हाथ न लगाये । शायद भगवान ने ही उनके इस प्रण की रक्षा की । जब उनकी मृत्यु हुई तो कर्ण सिंह विदेश में थे और उनकी गैरहाजिरी में ही महाराजा हरि सिंहका दाह संस्कार हुआ।

                  ध्यान रखना होगा कि महाराज हरि सिंह का शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला से कोई व्यक्तिगत विरोध नहीं था । यदि व्यक्तिगत विरोध होता तो शायद उसका परिणाम कुछ और निकलता । जिन दिनों हरि सिंह राज्य के शासक थे , उन दिनों किसी ने सुझाव दिया कि शेख़ अब्दुल्ला आपका इस प्रकार विरोध कर रहा है, उसका खात्मा क्यों नहीं करवा देते ? राजशाही में , उन दिनों रियासतों में यह आम बात होती थी । हरि सिंह ने उत्तर दिया था , यह मुद्दों की लड़ाई है और इसे इसी धरातल पर लड़ना चाहिये । शेख़ अब्दुल्ला भारत को खंडित करने के प्रयासों में जुटे हुये थे । उनका चिन्तन पंथ निरपेक्ष न होकर , कश्मीर घाटी को मुसलमानों का राज्य बनाने पर आधारित था । वे चाहते थे कि राज्य की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी भारत उठाये और घाटी व्यवहारिक रुप में इस्लामी राज्य बने । इसके विपरीत महाराजा हरि सिंह वर्तमान परिस्थियों में भारत में समान शासन व्यवस्था के पक्षधर थे और इस अभियान में जम्मू कश्मीर को भी शामिल कर चुके थे । इस प्रकार १९४७ में महाराजा हरि सिंह एक पक्ष था , जिसे सरदार पटेल का समर्थन प्राप्त था और शेख़ अब्दुल्ला व नेहरु का दूसरा पक्ष था । जैसा कि उपर लिखा जा चुका है जब निर्णय की घड़ी आई तो कर्ण सिंह , अपने पिता का साथ छोड़ कर नेहरु-शेख़ खेमे में शामिल हो गये । क्योंकि कर्ण सिंह के अनुसार अब महाराजा हरि सिंह भूतकाल थे और नेहरु भविष्यकाल । कर्ण सिंह को अब अपने राजनैतिक जीवन के भविष्यकाल को सुरक्षित करना था । यह महाराजा हरि सिंह पर पहला घातक प्रहार था जो उनके जीवन काल में उन्हीं के सुपुत्र द्वारा किया गया था ।

लेकिन महाराजा हरि सिंह के अपमान की यह गाथा यहीं समाप्त नहीं हुई । यह उनके मरने के बाद भी जारी है । २००८ में महाराजा हरि सिंह के पौत्र और कर्ण सिंह के सुपुत्र अजात शत्रु , अब्दुल्ला परिवार की पार्टी नैशनल कान्फ्रेंस में ही शामिल हो गये । उस नैशनल कान्फ्रेंस में , जिस की अलगाववादी नीतियों के ख़िलाफ़ महाराजा हरि सिंह ने मोर्चा संभाला था । ऐसा नहीं कि नैशनल कान्फ्रेंस इतने लम्बे अरसे में बदल गई थी और उसकी इन बदली हुई नीतियों के कारण अजात शत्रु नैशनल कान्फ्रेंस में शामिल हुये थे । यदि कान्फ्रेंस ने कश्मीर घाटी को लेकर अपना चिन्तन बदल लिया होता , तब उसमें अजात शत्रु शामिल होने पर किसी को क्या एतराज़ हो सकता था ? नैशनल कान्फ्रेंस वहीं खड़ी थी , जहाँ वह महाराजा हरि सिंह के जम्मू कश्मीर छोड़ते वक़्त खड़ी थी । अब भी शेख़ अब्दुल्ला के बेटे फ़ारूक़ अब्दुल्ला राज्य की विधान सभा में आंखों में आंसू भर कर कहते थे कि भारत और पाकिस्तान की लड़ाई में कश्मीर पिस रहा है । वे अब भी अपने बाप की तर्ज़ पर कश्मीर को भारत से अलग तीसरा पक्ष ही मान रहे थे । अजात शत्रु का नेशनल कान्फ्रेंस में शामिल होना राजनैतिक अवसरवादिता की पराकाष्ठा थी या फिर वैचारिक पलायनवादिता का निकृष्टतम उदाहरण, इसका फ़ैसला तो इतिहास ही करेगा  लेकिन दिंवगत महाराजा हरि सिंह की आत्मा पर यह उन्हीं के पौत्र द्वारा किया गया दूसरा प्रहार था ।

कश्मीर घाटी में से नैशनल कान्फ्रेंस को अपदस्थ करने के लिये मुफ़्ती मोहम्मद सैयद ने घाटी में पीपुल्स डैमोक्रेटिक पार्टी या पीडीपी का गठन कर लिया। अब कश्मीर घाटी में सत्ता के दो दावेदार हो गये हैं। पहली नेशनल कान्फ्रेंस और दूसरी पीडीपी। ज़ाहिर है यदि नैशनल कान्फ्रेंस को अपदस्थ करना होगा तो पी.डी.पी को उससे भी ऊंचा नारा देना पड़ेगा। एक सांपनाथ दूसरा नागनाथ । एनसी और पीडीपी में वैचारिक आधार पर शायद ही कोई अन्तर हो। पहला स्वायत्तता के नाम पर और दूसरा सेल्फ़ रुल के नाम पर, महाराजा गुलाब सिंह द्वारा भारत की एकता और अखंडता बनाये रखने के लिये किये गये परिणामों को पलीता लगाने के षड्यंत्रों में लगे रहते हैं। नेहरु वंश की कृपा से जम्मू कश्मीर में सत्ता एक बार नेशनल कान्फ्रेंस और दूसरी बार पीपुल्स डैमोक्रेटिक पार्टी के पास चले जाने की संभावना बनी रहती है। इन्हीं संभावनाओं में अपने सत्ता सुख की संभावनाओं को तलाशते हुये, अब कर्ण सिंह का दूसरा बेटा, विक्रमादित्य कुछ दिन पहले मुफ़्ती मोहम्मद सैयद की पीडीपी में शामिल हो गया। महाराजा हरि सिंह को अपमानित करने का उन्हीं के वंशजों द्वारा यह तीसरा प्रयास है।

             महाराजा गुलाब सिंह ने विदेशी शक्तियों को उखाड़ कर अफ़ग़ानिस्तान के दरवाज़े तक भारत का ध्वज फहरा दिया था । उसी गुलाब सिंह के वंशज महाराजा हरि सिंह ने लंदन की गोलमेज़ कान्फ्रेंस में जाकर अंग्रेज़ी सत्ता को ललकार दिया था । उसका बदला लेने के लिये लार्ड माऊंटबेटन ने नेहरु और शेख़ अब्दुल्ला को साथ लेकर महाराजा हरि सिंह को अपमानित करने का सिलसिला १९४७ में शुरू किया। अपने सत्ता सुख और भौतिक सम्पत्ति की रक्षा के मोह में कर्ण सिंह भी उसी गुट में शामिल हो गये जो हरि सिंह को अपमानित करने में ही आनन्द की अनुभूति ले रहे थे। और आज उनके बेटे भी सत्ता सुख की खोज में उसी परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं। महाराजा हरि सिंह की आत्मा अपने ही परिवार द्वारा किये जा रहे इस विश्वासघात से निश्चय ही छटपटा रही होगी।

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                     

         

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