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अरुणा आसफ अली


      
              *भारतरत्न*                                                                                                             
     *अरुणा आसफ अली* 

   *जन्म - 16 जुलाई 1909*
                (हरियाणा)
   *मृत्यु - 29 जुलाई 1996*                                    पूरा नाम - अरुणा आसफ़ अली
अन्य नाम - अरुणा गांगुली                
पति - आसफ़ अली
कर्म भूमि - भारत
कर्म-क्षेत्र - स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षक
भाषा - हिन्दी, अंग्रेज़ी
पुरस्कार-उपाधि - 'लेनिन शांति पुरस्कार' (1964), 'जवाहरलाल नेहरू अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार' (1991), 'पद्म विभूषण' (1992), ‘इंदिरा गांधी पुरस्कार’, 'भारत रत्न' (1997)
विशेष योगदान - 1942 ई. के ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’ आंदोलन में विशेष योगदान था।
नागरिकता - भारतीय
अन्य जानकारी - 1998 में इनके नाम पर एक डाक टिकट जारी किया गया। उनके सम्मान में नई दिल्ली की एक सड़क का नाम 'अरुणा आसफ़ अली मार्ग' रखा गया।
अरुणा आसफ़ अली का नाम भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इन्होंने भारत को आज़ादी दिलाने के लिए कई उल्लेखनीय कार्य किये थे। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाने वाली क्रांतिकारी, जुझारू नेता श्रीमती अरुणा आसफ़ अली का नाम इतिहास में दर्ज है। अरुणा आसफ़ अली ने सन 1942 ई. के ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’ आंदोलन में महत्त्वपूर्ण योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता। देश को आज़ाद कराने के लिए अरुणा जी निरंतर वर्षों अंग्रेज़ों से संघर्ष करती रही थीं।
 ♦ *जीवन परिचय*
अरुणा जी का जन्म बंगाली परिवार में 16 जुलाई सन 1909 ई. को हरियाणा, तत्कालीन पंजाब के 'कालका' नामक स्थान में हुआ था। इनका परिवार जाति से ब्राह्मण था। इनका नाम 'अरुणा गांगुली' था। अरुणा जी ने स्कूली शिक्षा नैनीताल में प्राप्त की थी। नैनीताल में इनके पिता का होटल था। यह बहुत ही कुशाग्र बुद्धि और पढ़ाई लिखाई में बहुत चतुर थीं। बाल्यकाल से ही कक्षा में सर्वोच्च स्थान पाती थीं। बचपन में ही उन्होंने अपनी बुद्धिमत्ता और चतुरता की धाक जमा दी थी। लाहौर और नैनीताल से पढ़ाई पूरी करने के बाद वह शिक्षिका बन गई और कोलकाता के 'गोखले मेमोरियल कॉलेज' में अध्यापन कार्य करने लगीं।
👫 *विवाह*
अरुणा जी ने 19 वर्ष की आयु में सन 1928 ई. में अपना अंतर्जातीय प्रेम विवाह दिल्ली के सुविख्यात वकील और कांग्रेस के नेता आसफ़ अली से कर लिया। आसफ़ अली अरुणा से आयु में 20 वर्ष बड़े थे। उनके पिता इस अंतर्जातीय विवाह के विरुद्ध थे और मुस्लिम युवक आसफ़ अली के साथ अपनी बेटी की शादी किसी भी क़ीमत पर करने को राज़ी नहीं थे। अरुणा जी स्वतंत्र विचारों की और स्वतः निर्णय लेने वाली युवती थीं। उन्होंने माता-पिता के विरोध के बाद भी स्वेच्छा से शादी कर ली। विवाह के बाद वह पति के पास आ गईं, और पति के साथ प्रेमपूर्वक रहने लगीं। इस विवाह ने अरुणा के जीवन की दिशा बदल दी। वे राजनीति में रुचि लेने लगीं। वे राष्ट्रीय आन्दोलन में सम्मिलित हो गईं।
🔷 *राजनीतिक और सामाजिक जीवन*
परतंत्रता में भारत की दुर्दशा और अंग्रेज़ों के अत्याचार देखकर विवाह के उपरांत श्रीमती अरुणा आसफ़ अली स्वतंत्रता-संग्राम में सक्रिय भाग लेने लगीं। उन्होंने महात्मा गांधी और मौलाना अबुल क़लाम आज़ाद की सभाओं में भाग लेना प्रारम्भ कर दिया। वह इन दोनों नेताओं के संपर्क में आईं और उनके साथ कर्मठता, से राजनीति में भाग लेने लगीं, वे फिर लोकनायक जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया और अच्युत पटवर्द्धन के साथ कांग्रेस 'सोशलिस्ट पार्टी' से संबद्ध हो गईं।

⛓️ *जेल यात्रा*
अरुणा जी ने 1930, 1932 और 1941 के व्यक्तिगत सत्याग्रह के समय जेल की सज़ाएँ भोगीं। उनके ऊपर जयप्रकाश नारायण, डॉ. राम मनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन जैसे समाजवादियों के विचारों का अधिक प्रभाव पड़ा। इसी कारण 1942 ई. के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में अरुणा जी ने अंग्रेज़ों की जेल में बन्द होने के बदले भूमिगत रहकर अपने अन्य साथियों के साथ आन्दोलन का नेतृत्व करना उचित समझा। गांधी जी आदि नेताओं की गिरफ्तारी के तुरन्त बाद मुम्बई में विरोध सभा आयोजित करके विदेशी सरकार को खुली चुनौती देने वाली वे प्रमुख महिला थीं। फिर गुप्त रूप से उन कांग्रेसजनों का पथ-प्रदर्शन किया, जो जेल से बाहर रह सके थे। मुम्बई, कोलकाता, दिल्ली आदि में घूम-घूमकर, पर पुलिस की पकड़ से बचकर लोगों में नव जागृति लाने का प्रयत्न किया। लेकिन 1942 से 1946 तक देश भर में सक्रिय रहकर भी वे पुलिस की पकड़ में नहीं आईं। 1946 में जब उनके नाम का वारंट रद्द हुआ, तभी वे प्रकट हुईं। सारी सम्पत्ति जब्त करने पर भी उन्होंने आत्मसमर्पण नहीं किया।

⚜️ *कांग्रेस कमेटी की निर्वाचित अध्यक्ष*
दो वर्ष के अंतराल के बाद सन् 1946 ई. में वह भूमिगत जीवन से बाहर आ गईं। भूमिगत जीवन से बाहर आने के बाद सन् 1947 ई. में श्रीमती अरुणा आसफ़ अली दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्षा निर्वाचित की गईं। दिल्ली में कांग्रेस संगठन को इन्होंने सुदृढ़ किया।
       कांग्रेस से सोशलिस्ट पार्टी में
सन 1948 ई. में श्रीमती अरुणा आसफ़ अली 'सोशलिस्ट पार्टी' में सम्मिलित हुयीं और दो साल बाद सन् 1950 ई. में उन्होंने अलग से ‘लेफ्ट स्पेशलिस्ट पार्टी’ बनाई और वे सक्रिय होकर 'मज़दूर-आंदोलन' में जी जान से जुट गईं। अंत में सन 1955 ई. में इस पार्टी का 'भारतीय कम्यनिस्ट पार्टी' में विलय हो गया।
श्रीमती अरुणा आसफ़ अली भाकपा की केंद्रीय समिति की सदस्या और ‘ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस’ की उपाध्यक्षा बनाई गई थीं। सन् 1958 ई. में उन्होंने 'मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी' भी छोड़ दी। सन् 1964 ई. में पं. जवाहरलाल नेहरू के निधन के पश्चात् वे पुनः 'कांग्रेस पार्टी' से जुड़ीं, किंतु अधिक सक्रिय नहीं रहीं।
⭕ *दिल्ली नगर निगम की प्रथम महापौर*
श्रीमती अरुणा आसफ़ अली सन् 1958 ई. में 'दिल्ली नगर निगम' की प्रथम महापौर चुनी गईं। मेयर बनकर उन्होंने दिल्ली के विकास, सफाई, और स्वास्थ्य आदि के लिए बहुत अच्छा कार्य किया और नगर निगम की कार्य प्रणाली में भी उन्हों ने यथेष्ट सुधार किए।

🌀 *संगठनों से सम्बंध*
श्रीमती अरुणा आसफ़ अली ‘इंडोसोवियत कल्चरल सोसाइटी’, ‘ऑल इंडिया पीस काउंसिल’, तथा ‘नेशनल फैडरेशन ऑफ इंडियन वूमैन’, आदि संस्थाओं के लिए उन्होंने बड़ी लगन, निष्ठा, ईमानदारी और सक्रियता से कार्य किया। दिल्ली से प्रकाशित वामपंथी अंग्रेज़ी दैनिक समाचार पत्र ‘पेट्रियट’ से वे जीवनपर्यंत कर्मठता से जुड़ी रहीं।

🏆 *सम्मान और पुरस्कार*
श्रीमती अरुणा आसफ़ अली को सन् 1964 में ‘लेनिन शांति पुरस्कार’, सन् 1991 में 'जवाहरलाल नेहरू अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार', 1992 में 'पद्म विभूषण' और ‘इंदिरा गांधी पुरस्कार’ (राष्ट्रीय एकता के लिए) से सम्मानित किया गया था। 1997 में उन्हें मरणोपरांत भारत के 'सर्वोच्च नागरिक सम्मान' भारत रत्न से सम्मानित किया गया। 1998 में उन पर एक डाक टिकट जारी किया गया। उनके सम्मान में नई दिल्ली की एक सड़क का नाम उनके नाम पर 'अरुणा आसफ़ अली मार्ग' रखा गया।

👩‍💼 *एक संस्मरण*
अरुणा आसफ़ अली की अपनी विशिष्ट जीवनशैली थी। उम्र के आठवें दशक में भी वह सार्वजनिक परिवहन से सफर करती थीं। कहा जाता है कि एक बार अरुणा जी दिल्ली में यात्रियों से भरी बस में सवार थीं। कोई भी जगह बैठने के लिए ख़ाली न थी। उसी बस में आधुनिक जीवन शैली की एक युवा महिला भी सवार थी। एक व्यक्ति ने युवा महिला के लिए अपनी जगह उसे दे दी और उस युवा महिला ने शिष्टाचार के कारण अपनी सीट अरुणा जी को दे दी। ऐसा करने पर वह व्यक्ति बुरा मान गया और युवा महिला से बोला - 'यह सीट तो मैंने आपके लिए ख़ाली की थी बहन।' इसके उत्तर में अरुणा आसफ़ अली तुरंत बोलीं - 'बेटा! माँ को कभी न भूलना, क्योंकि माँ का अधिकार बहन से पहले होता है।' यह सुनकर वह व्यक्ति बहुत शर्मिंदा हुआ और उसने अरुणा जी से माफ़ी मांगी।

🪔 *निधन*
अरुणा आसफ़ अली वृद्धावस्था में बहुत शांत और गंभीर स्वभाव की हो गई थीं। उनकी आत्मीयता और स्नेह को कभी भुलाया नहीं जा सकता। वास्तव में वे महान् देशभक्त थीं। वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी अरुणा आसफ़ अली 87 वर्ष की आयु में दिनांक 29 जुलाई, सन् 1996 को इस संसार को छोड़कर सदैव के लिए दूर-बहुत दूर चली गईं। उनकी सुकीर्ति आज भी अमर है।
                                       
         

नीकेझाकू केनगुरुसे


        *कैप्टन नीकेझाकू केनगुरुसे*
(महावीर चक्र से सन्मानीत सेना अधिकारी)
         *जन्म : 15 जुलाई, 1974*
          (जन्म भूमि - नागालैंड)
        *बलिदान : 28 जून, 1999*
मृत्यु : ब्लेक रॉक, कारगिल, जम्मू और कश्मीर
पिता : नीसेली केंगुरीज      
बटालियन : 2 राजपूताना राइफल्स
रैंक : कैप्टन
सेवा काल : 1998–1999
युद्ध : कारगिल युद्ध, ऑपरेशन विजय
सम्मान : महावीर चक्र
नागरिकता : भारतीय
सेवा नं. : IC-58396
                  कैप्टन नीकेझाकू केनगुरुसे  भारतीय सेना में सैन्य अधिकारी थे जो नागालैंड से थे। उन्हें मरणोपरांत वर्ष 1999 में कारगिल युद्ध में ऑपरेशन के दौरान युद्ध में अनुकरणीय वीरता के लिए भारत के दूसरे सर्वोच्च वीरता पुरस्कार 'महावीर चक्र' से सम्मानित किया गया था।

कैप्टन नीकेझाकू ने करगिल युद्ध के दौरान तोलोलिंग को पाकिस्तानियों से मुक्त कराने के लिए भेजी गई टुकड़ी का नेतृत्व किया था।
सेना अधिकारी कैप्टन नीकेझाकू और उनकी टुकड़ी ने पांच दिन तक चली भीषण लड़ाई में पाकिस्तानी सैनिकों को परास्त कर तोलोलिंग रिजलाइन पर तिरंगा झंडा फहरा दिया था, लेकिन 18 जून 1999 को हुई मोर्टार गोलाबारी में उनकी जान चली गई।
नागालैण्ड की राजधानी कोहिमा निवासी कैप्टन नीकेझाकू को 'महावीर चक्र' से सम्मानित किया गया।                                                                                
        

*वामन कृष्ण तथा बापूसाहेब चोरघडे


    
*वामन कृष्ण तथा बापूसाहेब चोरघडे*                                        (स्वातंत्र्य सैनिक तथा साहित्यिक)                                       *जन्म : १६ जुलै १९१४*
              (नरखेड , जि. नागपूर)
           *मृत्यू : १ डिसेंबर १९९५*
             (धरमपेठ , नागपूर)                                                       धर्म : हिंदू
कार्यक्षेत्र : साहित्य
साहित्य प्रकार : कथा कादंबरी
विषय : मराठी
प्रसिद्ध साहित्यकृती : संपूर्ण चोरघडे
वडील : कृष्णराव देवराव चोरघडे
आई : गंगुबाई कृष्णराव चोरघडे
अपत्ये : सुषमा , श्रीकांत                                             वामन कृष्ण चोरघडे हे लघुकथालेखक होते. कथासंग्रहांशिवाय त्यांनी सुमारे ९२ ललितलेख, चरित्रे, प्रबंध, पाठ्यपुस्तके, इ. लिहिले किंवा त्यांत योगदान दिले.
     *परिचय*                                                                              वामन चोरघडे यांचा जन्म नागपूर जिल्ह्यातील नरखेड येथे झाला. त्यांच्या एकूण बारा भावंडांमधली चार जगली. सर्वात धाकटे म्हणजे बापू ऊर्फ वामन. त्यांच्या शिक्षणाची जबाबदारी मोठय़ा भावाने घेतली, आणि त्यांना काटोल गावातल्या एका प्राथमिक शाळेत घातले. पुढचे शिक्षण नागपुरातील पटवर्धन हायस्कूल या शाळेत, आणि पदवीपर्यंतचे शिक्षण मॉरिस कॉलेजात झाले.
            कॉलेजात असताना चोरघडे त्यांची पहिली लघुकथा कथा 'अम्मा' १९३२ साली प्रसिद्ध केली. त्यांच्या कथा वागीश्वरी, मौज, सत्यकथा या नियतकालिकांमधून प्रसिद्ध होत गेल्या.
            चोरघडे यांनी डॉ. वेणू साठे यांच्याशी विवाह केला. त्यांचे चिरंजीव श्रीकांत चोरघडे हे बालरोगतज्ज्ञ व बालमानसशास्त्रज्ञ आहेत.
            वामन चोरघडे यांनी मराठी साहित्य व अर्थशास्त्र यां विषयांत पदवी मिळवली होती. त्यांनी वर्ध्याच्या आणि नागपूरच्या जी.एस. वाणिज्य महाविद्यालयांत (गोविंदराम सेक्सरिया कॉलेज) अर्थशास्त्राचे अध्यापन केले.
ते दोन वर्षे महाराष्ट्र राज्य पाठ्यपुस्तक मंडळाचे अध्यक्ष होते.
महात्मा गांधींचे अनुयायी असलेल्या चोरघड्यांचा भारतीय स्वातंत्र्यलढ्यात सक्रिय सहभाग होता.   
🇮🇳 *नोकऱ्या आणि स्वातंत्र्यलढा*
एम.ए. झाल्यावर वामन चोरघडे यांना वर्ध्याला शिक्षकाची नोकरी मिळाली. त्यावेळी त्यांनी गांधीजींच्या आवाहनाला साद देऊन स्वातंत्र्यसंग्रामात उडी घेतली. त्यांना दोन वेळा कारावास घडला. कारावासामध्ये दादा धर्माधिकारी, विनोबा भावे, काका कालेलकर, महादेवभाई देसाई अशा व्यक्तींचा परिचय झाला. तुरुंगात त्यांनी खादीचे व्रत घेतले व मृत्यूपर्यंत पाळले. चोरघडे हे नेहमी खादीचा कुडता, पायजमा अशा स्वतः धुतलेल्या स्वच्छ पांढऱ्या वेषातच असत.
                चोरघडेंना हे नियमित व्यायाम करीत असून त्यांची शरीरयष्टी मजबूत होती. त्यांचे उच्चार स्पष्ट होते. चोरघडे हे उत्तम वक्ते मानले जात. भारताला स्वातंत्र्य मिळण्याच्या सुमारास त्यांना बंदिवासातून मुक्ती मिळाली. त्यानंतर ते गांधी विचारांवर स्थापन झालेल्या वर्ध्याच्या गोविंदराम सक्सेरिया वाणिज्य महाविद्यालयात ते प्राध्यापक म्हणून रुजू झाले, इ.स. १९४९ साली त्याच कॉलेजच्या नागपूर शाखेमध्ये उपप्राचार्य झाले आणि तिथूनच चोरघडे प्राचार्य म्हणून १९७४ साली निवृत्त झाले.
🎯 *समाजकार्य*
महाराष्ट्रातचे मंत्री रामकृष्ण पाटील यांनी चोरघड्यांना मानद अन्नपुरवठा अधिकारी हे पद दिले होते. पुढे काँगेसप्रणीत भारतसेवक समाजाच्या नागपूर शाखेची जबाबदारी त्यांनी सांभाळली.
त्यावेळी विविध शिक्षणसंस्थांमधील विद्यार्थ्यांच्या सहकार्याने चोरघडे यांनी श्रमसंस्कार पथक स्थापन केले होते. या विद्यार्थ्यांनी श्रमदानाने नागपूर विद्यापीठाच्या परिसरात ओपन एर थिएटर बांधून घेतले.
📖 *प्रकाशित साहित्य*
असे मित्र अशी मैत्री (बालसाहित्य)
ख्याल
चोरघडे यांची कथा (१९६९)
जडण घडण (आत्मचरित्र, १९८१)
देवाचे काम (बालसाहित्य)
पाथेय (१९५३)
प्रदीप (१९५४)
प्रस्थान
यौवन
वामन चोरघडे यांच्या निवडक कथा, भाग १ आणि २ (संपादक आशा बगे आणि डॉ. श्रीकांत चोरघडे)
संपूर्ण चोरघडे (१९६६)
साद
सुषमा (१९३६)
हवन
⚜️ *गौरव*
अध्यक्ष, मराठी साहित्य संमेलन, चंद्रपूर १९७९
अध्यक्ष विदर्भ साहित्य संघ
  
                                                                                                                        
         

चंद्रशेखर सिंग

                                
 
            *चंद्रशेखर सिंग*
      (८ वे भारतीय पंतप्रधान)
कार्यकाळ : १० नोव्हेंबर, १९९० – २१ जून १९९१
        *जन्म : १ जुलै १९२७*
(इब्राहीमपट्टी, बालिया जिल्हा, उत्तरप्रदेश)
        *मृत्यू : ८ जुलै २००७*
      (नवी दिल्ली, भारत)
राष्ट्रीयत्व : भारतीय
राजकीय पक्ष : जनता दल, समाजवादी जनता पक्ष (राष्ट्रीय)
अपत्ये : नीरज शेखर
गुरुकुल : अलाहाबाद विद्यापीठ
धर्म : हिंदू                  
             चंद्रशेखर हे एक भारतीय राजकारणी होते . ज्यांनी १० नोव्हेंबर १९९० ते २१ जून १९९१ दरम्यान देशाचे आठवे पंतप्रधान म्हणून काम पाहिले. जनता दलाच्या तुटलेल्या अल्पसंख्यांक सरकारचे त्यांनी नेतृत्व केले, भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेसकडून मिळालेल्या बाहेरील पाठिंब्याने. सार्वत्रिक निवडणुका लांबणीवर टाकण्यासाठी ही व्यवस्था होती. ते पहिले भारतीय पंतप्रधान आहेत ज्यांनी कधीही कोणतेही सरकारी कार्यालय सांभाळलेले नाही. त्यांचे सरकार मोठ्या प्रमाणात निव्वळ एक "कठपुतळी" म्हणून पाहिले जात होते आणि लोकसभेतील थोड्याच खासदारांसह सरकार स्थापन केले गेले होते. मूडीज, अमेरिकी आर्थिक सेवा कंपनी, यांनी भारताची ढासळलेली परिस्थिती भाकित केली होती तेव्हा त्यांचे सरकार अर्थसंकल्प पास करू शकले नाही. या स्थिती मुळे जागतिक बँकेने भारतास आर्थिक मदत बंद केली. कर्जाची परतफेड चुकू नये म्हणुन चंद्रशेखर यांनी सोने गहाण करण्यास परवानगी दिली. ही परवानगी निवडणुकीच्या काळातच गुप्तपणे केली गेली म्हणुन विशेष टीका झाली. १९९१ चे भारतीय आर्थिक संकट आणि राजीव गांधी यांच्या हत्येमुळे त्यांचे सरकार संकटात सापडले.

🔮 *पूर्वीचे जीवन*
चंद्रशेखर यांचा जन्म १ जुलै १९२७ रोजी उत्तर प्रदेशमधील इब्राहिमपट्टी या गावात राजपूत गरीब शेतकरी कुटुंबात झाला. सतीशचंद्र पी जी कॉलेज येथे त्यांनी बॅचलर ऑफ आर्ट्स पदवी मिळविली. १९५० मध्ये त्यांनी अलाहाबाद विद्यापीठात राज्यशास्त्र विषयात पदव्युत्तर शिक्षण घेतले.

🎯 *राजकीय जीवन*
चंद्रशेखर समाजवादी चळवळीत सामील झाले आणि बलिया येथील जिल्हा प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पीएसपी)चे सचिव म्हणून निवडले गेले. एका वर्षाच्या आत, ते उत्तर प्रदेशमधील पीएसपीच्या राज्य युनिटचे सहसचिव म्हणून निवडले गेले. १९५५-५६ मध्ये त्यांनी पक्षाच्या सरचिटणीसपदाची सूत्रे स्वीकारली. १९६२ मध्ये उत्तर प्रदेशमधून राज्यसभेवर निवडून गेल्याने त्यांची राष्ट्रीय कारकीर्द सुरू झाली.

🪔 *मृत्यू*
८० व्या वाढदिवसाच्या आठवडाभरानंतर चंद्रशेखर यांचे ८ जुलै २००७ रोजी निधन झाले. काही काळ ते मायलोमा ने ग्रस्त होते आणि मे पासून ते नवी दिल्लीतील अपोलो रुग्णालयात होते. त्याच्या पश्चात दोन मुलं आहेत. भारतीय अनेक पक्षांच्या राजकारण्यांनी त्यांना श्रद्धांजली वाहिली आणि भारत सरकारने सात दिवस राज्य शोक घोषित केले. १० जुलै रोजी यमुना नदीच्या काठी जन्यक स्थळ येथे पारंपारिक अंत्ययात्रेच्या वेळी संपूर्ण राज्य सन्मानाने त्यांच्यावर अंत्यसंस्कार करण्यात आले. ऑगस्टमध्ये त्यांची राख सिरूवाणी नदीत विसर्जित केली गेली.         
     

श्यामा प्रसाद मुखर्जी


    
          *श्यामा प्रसाद मुखर्जी*
  (भारतीय जनसंघ के संस्थापक)

          *जन्म : 6 जुलाई, 1901*
          (जन्म भूमि : कोलकाता)
          *मृत्यु : 23 जून, 1953*
          (मृत्यु स्थान : जम्मू-कश्मीर)
पिता : आशुतोष मुखर्जी माता : जोगमाया देवी मुखर्जी
नागरिकता : भारतीय
प्रसिद्धि : भारतीय जनसंघ के संस्थापक
पार्टी : 'भारतीय जनसंघ'
शिक्षा : एम.ए. (1923), बी.एल. (1924)
विद्यालय : कलकत्ता विश्वविद्यालय, 'लिंकन्स इन' (इंग्लैंड)
भाषा : हिन्दी, अंग्रेज़ी
अन्य जानकारी : डॉ. मुखर्जी 33 वर्ष की आयु में 'कलकत्ता विश्वविद्यालय' में विश्व के सबसे कम उम्र के कुलपति बनाये गए थे।
                 श्यामा प्रसाद मुखर्जी जन्म- 6 जुलाई, 1901, कोलकाता; मृत्यु- 23 जून, 1953) एक महान् शिक्षाविद और चिन्तक होने के साथ-साथ भारतीय जनसंघ के संस्थापक भी थे। उन्हें आज भी एक प्रखर राष्ट्रवादी और कट्टर देशभक्त के रूप में याद किया जाता है। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी सच्चे अर्थों में मानवता के उपासक और सिद्धांतों के पक्के इंसान थे। संसद में उन्होंने सदैव राष्ट्रीय एकता की स्थापना को ही अपना प्रथम लक्ष्य रखा था। संसद में दिए अपने भाषण में उन्होंने पुरजोर शब्दों में कहा था कि "राष्ट्रीय एकता के धरातल पर ही सुनहरे भविष्य की नींव रखी जा सकती है।" भारतीय इतिहास में उनकी छवि एक कर्मठ और जुझारू व्यक्तित्व वाले ऐसे इंसान की है, जो अपनी मृत्यु के इतने वर्षों बाद भी अनेक भारतवासियों के आदर्श और पथप्रदर्शक हैं।
💁🏻‍♂️ *जन्म तथा शिक्षा*
डॉ. मुखर्जी का जन्म 6 जुलाई, 1901 को एक प्रसिद्ध बंगाली परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम जोगमाया देवी मुखर्जी था और पिता आशुतोष मुखर्जी बंगाल के एक जाने-माने व्यक्ति और कुशल वकील थे। डॉ. मुखर्जी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्रथम श्रेणी में 1921 में प्राप्त की थी। इसके बाद उन्होंने 1923 में एम.ए. और 1924 में बी.एल. किया। वे 1923 में ही सीनेट के सदस्य बन गये थे। उन्होंने अपने पिता की मृत्यु के बाद कलकता उच्च न्यायालय में एडवोकेट के रूप में अपना नाम दर्ज कराया। बाद में वे सन 1926 में 'लिंकन्स इन' में अध्ययन करने के लिए इंग्लैंड चले गए और 1927 में बैरिस्टर बन गए।
♦️ *कुलपति का पद*
डॉ. मुखर्जी तैंतीस वर्ष की आयु में कलकत्ता विश्वविद्यालय में विश्व के सबसे कम उम्र के कुलपति बनाये गए थे। इस पद को उनके पिता भी सुशोभित कर चुके थे। 1938 तक डॉ. मुखर्जी इस पद को गौरवान्वित करते रहे। उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान अनेक रचनात्मक सुधार कार्य किए तथा 'कलकत्ता एशियाटिक सोसायटी' में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया। वे 'इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ़ साइंस', बंगलौर की परिषद एवं कोर्ट के सदस्य और इंटर-यूनिवर्सिटी ऑफ़ बोर्ड के चेयरमैन भी रहे।
🔆 *राजनीति में प्रवेश*
कलकत्ता विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व करते हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में बंगाल विधान परिषद के सदस्य चुने गए थे, किंतु उन्होंने अगले वर्ष इस पद से उस समय त्यागपत्र दे दिया, जब कांग्रेस ने विधान मंडल का बहिष्कार कर दिया। बाद में उन्होंने स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा और निर्वाचित हुए। वर्ष 1937-1941 में 'कृषक प्रजा पार्टी' और मुस्लिम लीग का गठबन्धन सत्ता में आया। इस समय डॉ. मुखर्जी विरोधी पक्ष के नेता बन गए। वे फज़लुल हक़ के नेतृत्व में प्रगतिशील गठबन्धन मंत्रालय में वित्तमंत्री के रूप में शामिल हुए, लेकिन उन्होंने एक वर्ष से कम समय में ही इस पद से त्यागपत्र दे दिया। वे हिन्दुओं के प्रवक्ता के रूप में उभरे और शीघ्र ही 'हिन्दू महासभा' में शामिल हो गए। सन 1944 में वे इसके अध्यक्ष नियुक्त किये गए थे।
🚩 *हिन्दू महासभा का नेतृत्व*
राष्ट्रीय एकात्मता एवं अखण्डता के प्रति आगाध श्रद्धा ने ही डॉ. मुखर्जी को राजनीति के समर में झोंक दिया। अंग्रेज़ों की 'फूट डालो व राज करो' की नीति ने 'मुस्लिम लीग' को स्थापित किया था। डॉ. मुखर्जी ने 'हिन्दू महासभा' का नेतृत्व ग्रहण कर इस नीति को ललकारा। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने उनके हिन्दू महासभा में शामिल होने का स्वागत किया, क्योंकि उनका मत था कि हिन्दू महासभा में मदन मोहन मालवीय जी के बाद किसी योग्य व्यक्ति के मार्गदर्शन की ज़रूरत थी। कांग्रेस यदि उनकी सलाह को मानती तो हिन्दू महासभा कांग्रेस की ताकत बनती तथा मुस्लिम लीग की भारत विभाजन की मनोकामना पूर्ण नहीं होती।
🎯 *भारतीय जनसंघ की स्थापना*
महात्मा गांधी की हत्या के बाद डॉ. मुखर्जी चाहते थे कि हिन्दू महासभा को केवल हिन्दुओं तक ही सीमित न रखा जाए अथवा यह जनता की सेवा के लिए एक गैर-राजनीतिक निकाय के रूप में ही कार्य न करे। वे 23 नवम्बर, 1948 को इस मुद्दे पर इससे अलग हो गए। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें अंतरिम सरकार में उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री के रूप में सम्मिलित किया था। डॉ. मुखर्जी ने लियाकत अली ख़ान के साथ दिल्ली समझौते के मुद्दे पर 6 अप्रैल, 1950 को मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया। मुखर्जी जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संघचालक गुरु गोलवलकर जी से परामर्श करने के बाद 21 अक्तूबर, 1951 को दिल्ली में 'भारतीय जनसंघ' की नींव रखी और इसके पहले अध्यक्ष बने। सन 1952 के चुनावों में भारतीय जनसंघ ने संसद की तीन सीटों पर विजय प्राप्त की, जिनमें से एक सीट पर डॉ. मुखर्जी जीतकर आए। उन्होंने संसद के भीतर 'राष्ट्रीय जनतांत्रिक पार्टी' बनायी, जिसमें 32 सदस्य लोक सभा तथा 10 सदस्य राज्य सभा से थे, हालांकि अध्यक्ष द्वारा एक विपक्षी पार्टी के रूप में इसे मान्यता नहीं मिली।
🔰 *भारत विभाजन के विरोधी*
जिस समय अंग्रेज़ अधिकारियों और कांग्रेस के बीच देश की स्वतंत्रता के प्रश्न पर वार्ताएँ चल रही थीं और मुस्लिम लीग देश के विभाजन की अपनी जिद पर अड़ी हुई थी, श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इस विभाजन का बड़ा ही कड़ा विरोध किया। कुछ लोगों की मान्यता है कि आधे पंजाब और आधे बंगाल के भारत में बने रहने के पीछे डॉ. मुखर्जी के प्रयत्नों का ही सबसे बड़ा हाथ है।
⚜️ *संकल्प*
उस समय जम्मू-कश्मीर का अलग झंडा और अलग संविधान था। वहाँ का मुख्यमंत्री भी प्रधानमंत्री कहा जाता था। लेकिन डॉ. मुखर्जी जम्मू-कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने जोरदार नारा भी दिया कि- एक देश में दो निशान, एक देश में दो प्रधान, एक देश में दो विधान नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे। अगस्त, 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि "या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊँगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूंगा।"
🪔 *निधन*
श्यामा प्रसाद मुखर्जी के सम्मान में डाक टिकट
जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करने पर डॉ. मुखर्जी को 11 मई, 1953 में शेख़ अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली सरकार ने हिरासत में ले लिया, क्योंकि उन दिनों कश्मीर में प्रवेश करने के लिए भारतीयों को एक प्रकार से पासपोर्ट के समान एक परमिट लेना पडता था और डॉ. मुखर्जी बिना परमिट लिए जम्मू-कश्मीर चले गए थे, जहाँ उन्हें गिरफ्तार कर नजरबंद कर लिया गया। वहाँ गिरफ्तार होने के कुछ दिन बाद ही 23 जून, 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु का खुलासा आज तक नहीं हो सका है। भारत की अखण्डता के लिए आज़ाद भारत में यह पहला बलिदान था। इसका परिणाम यह हुआ कि शेख़ अब्दुल्ला हटा दिये गए और अलग संविधान, अलग प्रधान एवं अलग झण्डे का प्रावधान निरस्त हो गया। 'धारा 370' के बावजूद कश्मीर आज भारत का अभिन्न अंग बना हुआ है। इसका सर्वाधिक श्रेय डॉ. मुखर्जी को ही दिया जाता है।
♨️ *नेतृत्व क्षमता*
डॉ. मुखर्जी को देश के प्रखर नेताओं में गिना जाता था। संसद में 'भारतीय जनसंघ' एक छोटा दल अवश्य था, किंतु उनकी नेतृत्व क्षमता में संसद में 'राष्ट्रीय लोकतांत्रिक दल' का गठन हुआ था, जिसमें गणतंत्र परिषद, अकाली दल, हिन्दू महासभा एवं अनेक निर्दलीय सांसद शामिल थे। जब संसद में जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय जनसंघ को कुचलने की बात कही, तब डॉ. मुखर्जी ने कहा- "हम देश की राजनीति से इस कुचलने वाली मनोवृत्ति को कुचल देंगे।" डॉ. मुखर्जी की शहादत पर शोक व्यक्त करते हुए तत्कालीन लोक सभा के अध्यक्ष श्री जी.वी. मावलंकर ने कहा- "वे हमारे महान् देशभक्तों में से एक थे और राष्ट्र के लिए उनकी सेवाएँ भी उतनी ही महान् थीं। जिस स्थिति में उनका निधन हुआ, वह स्थिति बड़ी ही दुःखदायी है। यही ईश्वर की इच्छा थी। इसमें कोई क्या कर सकता था? उनकी योग्यता, उनकी निष्पक्षता, अपने कार्यभार को कौशल्यपूर्ण निभाने की दक्षता, उनकी वाक्पटुता और सबसे अधिक उनकी देशभक्ति एवं अपने देशवासियों के प्रति उनके लगाव ने उन्हें हमारे सम्मान का पात्र बना दिया।"

🌀 *विश्लेषण*
डॉ. मुखर्जी भारत के लिए शहीद हुए और भारत ने एक ऐसा व्यक्तित्व खो दिया, जो राजनीति को एक नई दिशा प्रदान कर सकता था। डॉ मुखर्जी इस धारणा के प्रबल समर्थक थे कि सांस्कृतिक दृष्टि से ही सब एक हैं, इसलिए धर्म के आधार पर किसी भी तरह के विभाजन के वे ख़िलाफ़ थे। उनका मानना था कि आधारभूत सत्य यह है कि हम सब एक हैं। हममें कोई अंतर नहीं है। हमारी भाषा और संस्कृति एक है। यही हमारी अमूल्य विरासत है। उनके इन विचारों और उनकी मंशाओं को अन्य राजनीतिक दलों के तात्कालिक नेताओं ने अन्यथा रूप से प्रचारित-प्रसारित किया। लेकिन इसके बावजूद लोगों के दिलों में उनके प्रति अथाह प्यार और समर्थन बढ़ता गया।                                                                                                              
              
         

बाबू जगजीवन राम

                          
        *बाबू जगजीवन राम*
(स्वतंत्रता सेनानी एवं राजनेता)
                                                                                *जन्म : 5 अप्रैल, 1908*
(भोजपुर का 'चंदवा गाँव', बिहार)
*मृत्यु : 6 जुलाई, 1986*
                                                                      अन्य :  नाम बाबूजी                                          पिता : शोभा राम 
संतान : पुत्री- मीरा कुमार
नागरिकता : भारतीय
प्रसिद्धि : दलित वर्ग के मसीहा के रूप में याद किया जाता है।
पार्टी : कांग्रेस और जनता दल
पद : श्रम मंत्री, रेल मंत्री, कृषि मंत्री, रक्षा मंत्री और उप-प्रधानमंत्री आदि पदों पर रहे।
शिक्षा : स्नातक
विद्यालय : कलकत्ता विश्वविद्यालय
भाषा : हिन्दी, अंग्रेज़ी
जेल यात्रा : भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जेल यात्रा की।
अन्य जानकारी : बाबूजी सासाराम क्षेत्र से आठ बार चुनकर संसद में गए और भिन्न-भिन्न मंत्रालय के मंत्री के रूप में कार्य किया। वे 1952 से 1984 ई. तक लगातार सांसद चुने गए।                                                                                                                 जगजीवन राम  आधुनिक भारतीय राजनीति के शिखर पुरुष जिन्हें आदर से 'बाबूजी' के नाम से संबोधित किया जाता था। लगभग 50 वर्षो के संसदीय जीवन में राष्ट्र के प्रति उनका समर्पण और निष्ठा बेमिसाल है। उनका संपूर्ण जीवन राजनीतिक, सामाजिक सक्रियता और विशिष्ट उपलब्धियों से भरा हुआ है। सदियों से शोषण और उत्पीड़ित दलितों, मज़दूरों के मूलभूत अधिकारों की रक्षा के लिए जगजीवन राम द्वारा किए गए क़ानूनी प्रावधान ऐतिहासिक हैं। जगजीवन राम का ऐसा व्यक्तित्व था जिसने कभी भी अन्याय से समझौता नहीं किया और दलितों के सम्मान के लिए हमेशा संघर्षरत रहे। विद्यार्थी जीवन से ही उन्होंने अन्याय के प्रति आवाज़ उठायी। बाबू जगजीवन राम का भारत में संसदीय लोकतंत्र के विकास में महती योगदान है।
🙍🏻‍♂️ *जन्म*
एक दलित के घर में जन्म लेकर राष्ट्रीय राजनीति के क्षितिज पर छा जाने वाले बाबू जगजीवन राम का जन्म बिहार की उस धरती पर हुआ था जिसकी भारतीय इतिहास और राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। बाबू जगजीवन राम का जन्म 5 अप्रैल 1908 को बिहार में भोजपुर के चंदवा गांव में हुआ था। उनका नाम जगजीवन राम रखे जाने के पीछे प्रख्यात संत रविदास के एक दोहे - प्रभु जी संगति शरण तिहारी, जगजीवन राम मुरारी, की प्रेरणा थी। इसी दोहे से प्रेरणा लेकर उनके माता-पिता ने अपने पुत्र का नाम जगजीवन राम रखा था। उनके पिता शोभा राम एक किसान थे, जिन्होंने ब्रिटिश सेना में नौकरी भी की थी।       
📖 *शिक्षा*
इन्होंने स्नातक की डिग्री कलकत्ता विश्वविद्यालय से 1931 में ली।
🇮🇳 *स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग*
जगजीवन राम उस समय महात्मा गाँधी के नेतृत्व में आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाले दल में शामिल हुए, जब अंग्रेज़ अपनी पूरी ताक़त के साथ आज़ादी के सपने को हमेशा के लिए कुचल देना चाहते थे। पृथक् निर्वाचन क्षेत्रों के लिए अंग्रेजों ने अपनी सारी ताक़त झोंक दी थी। मुस्लिम लीग की कमान जिन्ना के हाथ में थी और वे अंग्रेजों के हाथ की कठपुतली बने थे।
         गाँधी जी ने साम्राज्यवादी अंग्रेजों के इरादे को भांप लिया था कि स्वतंत्रता आंदोलन को कमज़ोर करने के लिए अंग्रेज़ों की फूट डालो, राज करो नीति को बाबूजी ने समझा। हिन्दू मुस्लिम विभाजन कर अंग्रेज़ों ने दलितों और सवर्णों के मध्य खाई बनाने प्रारम्भ की, जिसमें वह सफल भी हुए और दलितों के लिए 'निर्वाचन मंडल', 'मतांतरण' और 'अछूतिस्तान' की बातें होने लगीं। महात्मा गांधी ने इसके दूरगामी परिणामों को समझा और आमरण अनशन पर बैठ गए। यह राष्ट्रीय संकट का समय था। इस समय राष्ट्रवादी बाबूजी ज्योति स्तंभ बनकर उभरे। उन्होंने दलितों के सामूहिक धर्म-परिवर्तन को रोका और उन्हें स्वतंत्रता की मुख्यधारा से जोड़ने में राजनीतिक कौशल और दूरदर्शिता का परिचय दिया। इस घटना के बाद बाबूजी दलितों के सर्वमान्य राष्ट्रीय नेता के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। वह बापू के विश्वसनीय और प्रिय पात्र बने और राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आ गए।
💂‍♂️ *अंग्रेज़ों का विरोध*
1936 में 28 साल की उम्र में ही उन्हें बिहार विधान परिषद का सदस्य चुना गया था। 'गवर्मेंट ऑफ इंडिया एक्ट' 1935 के अंतर्गत 1937 में अंग्रेज़ों ने बिहार में कांग्रेस को हराने के लिए यूनुस के नेतृत्व में कठपुतली सरकार बनवाने का निष्फल प्रयत्न किया। इस चुनाव में बाबूजी निर्विरोध निर्वाचित हुए और उनके 'भारतीय दलित वर्ग संघ' के 14 सदस्य भी जीते। उनके समर्थन के बिना वहां कोई सरकार नहीं बन सकती थी। यूनुस ने बाबूजी को मनचाहा मंत्री पद और अन्य प्रलोभन दिये, किंतु बाबूजी ने उस प्रस्ताव को तुरंत ठुकरा दिया। यह देखकर गांधी जी ने 'पत्रिका हरिजन' में इस पर टिप्पणी करते हुए इसे देशवासियों के लिए आदर्श और अनुकरणीय बताया। उसके बाद बिहार में कांग्रेस की सरकार में वह मंत्री बनें किन्तु कुछ समय में ही अंग्रेज़ सरकार की लापरवाही के कारण महात्मा जी के कहने पर कांग्रेस सरकारों ने इस्तीफा दे दिया। बाबूजी इस काम में सबसे आगे रहे। मुंबई में 9 अगस्त 1942 को महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आन्दोलन प्रारम्भ किया तो जगजीवन राम सबसे आगे थे। योजना के अनुसार उन्हें बिहार में आन्दोलन तेज करना था लेकिन दस दिन बाद ही गिरफ्तार कर लिए गये।                                           💠 *राजनीति में सफलता*
बाबूजी के प्रयत्नों से गांव - गांव तक डाक और तारघरों की व्यवस्था का भी विस्तार हुआ। रेलमंत्री के रूप में बाबूजी ने देश को आत्म-निर्भर बनाने के लिए वाराणसी में डीजल इंजन कारख़ाना, पैरम्बूर में 'सवारी डिब्बा कारख़ाना' और बिहार के जमालपुर में 'माल डिब्बा कारख़ाना' की स्थापना की।
सन 1946 में पंडित जवाहरलाल नेहरू की अंतरिम सरकार में शामिल होने के बाद वह सत्ता की उच्च सीढ़ियों पर चढ़ते चले गए और तीस साल तक कांग्रेस मंत्रिमंडल में रहे। पांच दशक से अधिक समय तक सक्रिय राजनीति में रहे बाबू जगजीवन राम ने सामाजिक कार्यकर्ता, सांसद और कैबिनेट मंत्री के रूप में देश की सेवा की। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी कि श्रम, कृषि, संचार, रेलवे या रक्षा, जो भी मंत्रालय उन्हें दिया गया उन्होंने उसका प्रशासनिक दक्षता से संचालन किया और उसमें सदैव सफ़ल रहे। किसी भी मंत्रालय में समस्या का समाधान बड़ी कुशलता से किया करते थे। उन्होंने किसी भी मंत्रालय से कभी इस्तीफ़ा नहीं दिया और सभी मंत्रालयों का कार्यकाल पूरा किया।        
♨️ *श्रम मंत्री*
1946 तक वह गांधी जी के हृदय में उतर गए थे। अब तक अंग्रेज़ों ने भी बाबूजी को भारतीय दलित समाज के सर्वमान्य नेता के रूप में स्वीकार कर लिया। आज़ादी के बाद जो पहली सरकार बनी उसमें उन्हें श्रम मंत्री बनाया गया। यह उनका प्रिय विषय था। वह बिहार के एक छोटे से गांव की माटी की उपज थे, जहां उन्होंने खेतिहर मज़दूरों का त्रासदी से भरा जीवन देखा था। विद्यार्थी के रूप में कोलकाता में मिल - मज़दूरों की दारुण स्थिति से भी उनका साक्षात्कार हुआ था। बाजूजी ने श्रम मंत्री के रूप में मज़दूरों की जीवन स्थितियों में आवश्यक सुधार लाने और उनकी सामाजिक, आर्थिक सुरक्षा के लिए विशिष्ट क़ानूनी प्रावधान किए, जो आज भी हमारे देश की श्रम - नीति का मूलाधार हैं।                              🔹 *मज़दूरों के हितैषी*
बाबूजी सासाराम क्षेत्र से आठ बार चुनकर संसद में गए और भिन्न-भिन्न मंत्रालय के मंत्री के रूप में कार्य किया। वे 1952 से 1984 तक लगातार सांसद चुने गए।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अंग्रेज़ों ने भारत छोड़ा तो उनका प्रयास था कि पाकिस्तान की भांति भारत के कई टुकड़े कर दिए जाएं। शिमला में कैबिनेट मिशन के सामने बाबूजी ने दलितों और अन्य भारतीयों के मध्य फूट डालने की अंग्रेज़ों की कोशिश को नाकाम कर दिया। अंतरिम सरकार में जब बारह लोगों को लार्ड वावेल की कैबिनेट में शामिल होने के लिए बुलाया गया तो उसमें बाबू जगजीवन राम भी थे। उन्हें श्रम विभाग दिया गया। इस समय उन्होंने ऐसे क़ानून बनाए जो भारत के इतिहास में आम आदमी, मज़दूरों और दबे कुचले वर्गों के हित की दिशा में मील के पत्थर माने जाते हैं। उन्होंने 'मिनिमम वेजेज एक्ट', 'इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट्स एक्ट' और 'ट्रेड यूनियन एक्ट' बनाया जिसे आज भी मज़दूरों के हित में सबसे बड़े हथियार के रूप में जाना जाता है। उन्होंने 'एम्प्लाइज स्टेट इंश्योरेंस एक्ट' और 'प्रोवीडेंट फंड एक्ट' भी बनवाया।
🏛️ *संसद में*
भारत की संसद को बाबू जगजीवन राम अपना दूसरा घर मानते थे। 1952 में उन्हें नेहरू जी ने 'संचार मंत्री' बनाया। उस समय संचार मंत्रालय में ही विमानन विभाग भी था। उन्होंने निजी विमानन कंपनियों का राष्ट्रीयकरण किया और गांवों में डाकखानों का नेटवर्क विकसित किया। बाद में नेहरू जी ने उन्हें रेल मंत्री बनाया। उस समय उन्होंने रेलवे के आधुनिकीकरण की बुनियाद डाली और रेलवे कर्मचारियों के लिए कल्याणकारी योजनाएं प्रारम्भ की। उन्हीं के प्रयास से आज रेलवे देश का सबसे बड़ा विभाग है। वे सासाराम क्षेत्र से आठ बार चुनकर संसद में गए और भिन्न-भिन्न मंत्रालय के मंत्री के रूप में कार्य किया। वे 1952 से 1984 तक लगातार सांसद चुने गए।                                    🌀 *संगठन*
उन्हें पद की लालसा बिल्कुल न थी। जब कामराज योजना आई तो उन्होंने संगठन का काम प्रारम्भ किया। शास्त्री जी की मृत्यु के बाद जब इंदिरा जी ने प्रधानमंत्री पद संभाला तो इंदिरा जी ने बाबू जी को अति कुशल प्रशासक के रूप में अपने साथ लिया। वह भारत के लिए बहुत कठिन दिन थे।
🌴 *हरित क्रांति*
1962 में चीन और 1965 में पाकिस्तान से लड़ाई के कारण ग़रीब और किसान भुखमरी से लड़ रहे थे। अमेरिका से पी.एल- 480 के अंतर्गत सहायता में मिलने वाला गेहूं और ज्वार मुख्य साधन था। ऐसी विषम परिस्थिति में डॉ नॉरमन बोरलाग ने भारत आकर 'हरित क्रांति' का सूत्रपात किया। हरित क्रांति के अंतर्गत किसानों को अच्छे औजार, सिंचाई के लिए पानी और उन्नत बीज की व्यवस्था करनी थी। आधुनिक तकनीकी के पक्षधर बाबू जगजीवन राम कृषि मंत्री थे और उन्होंने डॉ नॉरमन बोरलाग की योजना को देश में लागू करने में पूरा राजनीतिक समर्थन दिया। दो ढाई साल में ही हालात बदल गये और अमेरिका से अनाज का आयात रोक दिया गया। भारत 'फूड सरप्लस' देश बन गया था।                                     👮‍♂️ *रक्षा मंत्री के रूप में*
छुआछूत विरोधी एक सम्मेलन में जगजीवन राम ने कहा- सवर्ण हिन्दुओं की इन नसीहतों से कि मांस भक्षण छोड़ दो, मदिरा मत पियो, सफाई के साथ रहो, अब काम नहीं चलेगा। अब दलित उपदेश नहीं, अच्छे व्यवहार की मांग करते हैं और उनकी मांग स्वीकार करनी होगी। शब्दों की नहीं ठोस काम की आवश्यकता है। मुहम्मद अली जिन्ना ने मुसलमानों को अपना अलग देश बनाने के लिए उकसा दिया है। डॉ आम्बेडकर ने अछूतों के लिए पृथक् निर्वाचन मंडल की माग की है। राष्ट्र की रचना हमसे हुई है, राष्ट्र से हमारी नही। राष्ट्र हमारा है। इसे एकताबद्ध करने का प्रयास भारत के लोगों को ही करना है। महात्मा गाँधी ने निर्णय लिया है कि छुआछूत को समाप्त करना होगा। इसके लिए मुझे अपनी कुर्बानी भी देनी पड़े तो मैं पीछे नहीं हटूंगा। देश की आज़ादी की लड़ाई में सभी धर्म और जाति के लोगों को बड़ी संख्या में जोड़ना होगा।
1962 और 1965 की लड़ाई के बाद भूख की समस्या को उन्होंने बहुत बहादुरी और सूझबूझ से परास्त किया। 1971 में बांग्लादेश की स्थापना के पहले भारत और पाकिस्तान की लड़ाई में बाबू जी ने जिस तरह अपनी सेनाओं को राजनीतिक सहयोग दिया वह सैन्य इतिहास में एक उदाहरण है। जब कांग्रेस के तमाम पुराने नेताओं ने इंदिरा गांधी का साथ छोड़ दिया था, बाबू जगजीवन राम हमेशा उनके साथ रहे, किंतु उन्होंने कभी भी मूल्यों से समझौता नहीं किया।
✈️ *संचार और परिवहन मंत्री के रूप में*
इसी प्रकार संचार और परिवहन मंत्री के रूप में उन्होंने विरोध के बाद भी निजी हवाई सेवाओं के राष्ट्रीयकरण की दिशा में सफल प्रयोग किया। फलस्वरूप 'वायु सेवा निगम' बना और 'इंडियन एयर लाइंस' व 'एयर इंडिया' की स्थापना हुई। इस राष्ट्रीयकरण का प्रबल विरोध हुआ, जिसे देखते हुए सरदार पटेल भी इसे कुछ समय के लिए स्थगित करने के पक्ष में थे। बाबूजी ने उनसे कहा था - 'आज़ादी के बाद देश के पुनर्निर्माण के सिवा और काम ही क्या बचा है?' इसी समय बाबूजी के प्रयत्नों से गांव - गांव तक डाक और तारघरों की व्यवस्था का भी विस्तार हुआ। रेलमंत्री के रूप में बाबूजी ने देश को आत्म-निर्भर बनाने के लिए वाराणसी में डीजल इंजन कारख़ाना, पैरम्बूर में 'सवारी डिब्बा कारख़ाना' और बिहार के जमालपुर में 'माल डिब्बा कारख़ाना' की स्थापना की।

बाबूजी ने सरदार पटेल से कहा था - 'आज़ादी के बाद देश के पुनर्निर्माण के सिवा और काम ही क्या बचा है?'
पटना में आयोजित छुआछूत विरोधी सम्मेलन में उन्होंने कहा - सवर्ण हिन्दुओं की इन नसीहतों से कि मांस भक्षण छोड़ दो, मदिरा मत पियो, सफाई के साथ रहो, अब काम नहीं चलेगा। अब दलित उपदेश नहीं, अच्छे व्यवहार की मांग करते हैं और उनकी मांग स्वीकार करनी होगी। शब्दों की नहीं ठोस काम की आवश्यकता है। मुहम्मद अली जिन्ना ने मुसलमानों को अपना अलग देश बनाने के लिए उकसा दिया है। डॉ आम्बेडकर ने अछूतों के लिए पृथक् निर्वाचन मंडल की माग की है। राष्ट्र की रचना हमसे हुई है, राष्ट्र से हमारी नही। राष्ट्र हमारा है। इसे एकताबद्ध करने का प्रयास भारत के लोगों को ही करना है। महात्मा गाँधी ने निर्णय लिया है कि छुआछूत को समाप्त करना होगा। इसके लिए मुझे अपनी कुर्बानी भी देनी पड़े तो मैं पीछे नहीं हटूंगा। देश की आज़ादी की लड़ाई में सभी धर्म और जाति के लोगों को बड़ी संख्या में जोड़ना होगा।                       🔸 *जनता दल में*
आज़ादी के बाद जब पहली सरकार बनी तो वे उसमें कैबिनेट मंत्री के रूप में शामिल हुए और जब तानाशाही का विरोध करने का अवसर आया तो लोकशाही की स्थापना की लड़ाई में शामिल हो गए। 1969 में कांग्रेस के विभाजन के समय इन्होंने श्रीमती इन्दिरा गांधी का साथ दिया तथा कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष चुने गए । 1970 में इन्होनें कांग्रेस पार्टी छोड़ दी और जनता दल में शामिल हो गये थे। सब जानते हैं कि 6 फरवरी 1977 के दिन केंद्रीय मंत्रिमंडल से दिया गया उनका इस्तीफ़ा ही वह ताक़त थी जिसने इमरजेंसी को ख़त्म किया।

🔮 *जीवनी के मुख्य बिन्दु*
जगजीवन राम ने 1928 में कोलकाता के वेलिंगटन स्क्वेयर में एक विशाल मज़दूर रैली का आयोजन किया था जिसमें लगभग 50 हज़ार लोग शामिल हुए।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस तभी भांप गए थे कि जगजीवन राम में एक बड़ा नेता बनने के तमाम गुण मौजूद हैं।
महात्मा गांधी के आह्वान पर भारत छोड़ो आंदोलन में भी जगजीवन राम ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वह उन बड़े नेताओं में शामिल थे जिन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध में भारत को झोंकने के अंग्रेज़ों के फैसले की निन्दा की थी। इसके लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा।
वर्ष 1946 में वह जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार में सबसे कम उम्र के मंत्री बने। भारत के पहले मंत्रिमंडल में उन्हें श्रम मंत्री का दर्जा मिला और 1946 से 1952 तक इस पद पर रहे।
जगजीवन राम 1952 से 1986 तक संसद सदस्य रहे। 1956 से 1962 तक उन्होंने रेल मंत्री का पद संभाला। 1967 से 1970 और फिर 1974 से 1977 तक वह कृषि मंत्री रहे।
इतना ही नहीं 1970 से 1971 तक जगजीवन राम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। 1970 से 1974 तक उन्होंने देश के रक्षामंत्री के रूप में काम किया।
23 मार्च, 1977 से 22 अगस्त, 1979 तक वह भारत के उप प्रधानमंत्री भी रहे।
आपातकाल के दौरान वर्ष 1977 में वह कांग्रेस से अलग हो गए और 'कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी' नाम की पार्टी का गठन किया और जनता गठबंधन में शामिल हो गए। इसके बाद 1980 में उन्होंने कांग्रेस (जे) का गठन किया।                                 🪔 *निधन*
6 जुलाई, 1986 को 78 साल की उम्र में इस महान् राजनीतिज्ञ का निधन हो गया। बाबू जगजीवन राम को भारतीय समाज और राजनीति में दलित वर्ग के मसीहा के रूप में याद किया जाता है। वह स्वतंत्र भारत के उन गिने चुने नेताओं में थे जिन्होंने देश की राजनीति के साथ ही दलित समाज को भी नयी दिशा प्रदान की।
                                            
         

डॉ. अनुग्रह नारायण सिंह


       *डॉ. अनुग्रह नारायण सिंह*  
 (स्वतंत्रता सेनानी/ बिहार विभूती)

      *जन्म : 18 जून 1887*
                  (बिहार)
      *मृत्यु : 5 जुलाई 1957*
                  (पटना)
अन्य नाम : अनुग्रह बाबू                                          नागरिकता : भारतीय
पार्टी : भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
पद : बिहार के प्रथम उप मुख्यमंत्री
कार्य काल : 2 जनवरी, 1946 से 05 जुलाई,1957
शिक्षा : स्नातक, बी. एल., क़ानून में मास्टर डिग्री और डॉक्टरेट
विद्यालय : कलकत्ता विश्वविद्यालय, प्रेसीडेंसी कॉलेज (कलकत्ता)
भाषा हिन्दी,अंग्रेज़ी
पुरस्कार-उपाधि : बिहार विभूति
विशेष योगदान : भारत की स्वतन्त्रता, अहिंसक आन्दोलन, सत्याग्रह

                 अनुग्रह नारायण सिंह भारतीय राजनेता और बिहार के पहले उप मुख्यमंत्री, सह वित्तमंत्री (1946-1957) थे। अनुग्रह बाबू (1887-1957) भारत के स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षक, वकील, राजनीतिज्ञ तथा आधुनिक बिहार के निर्माता रहे थे। उन्हें 'बिहार विभूति' के रूप में जाना जाता था। वह स्वाधीनता आंदोलन के योद्धा थे। स्वाधीनता के बाद राष्ट्र निर्माण व जनकल्याण के कार्यो में उन्होंने सक्रिय योगदान दिया। अनुग्रह बाबू ने महात्मा गांधी एवं डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के साथ राष्ट्रीय आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।

♦️ *आधुनिक बिहार के निर्माता* - *डॉ. अनुग्रह नारायण सिन्हा*                                                                                        मानवतावादी प्रगतिशील विचारक एवं दलितों के उत्थान के प्रबल समर्थक और आधुनिक बिहार के निर्माताओं में से एक थे। उनका जीवन दर्शन देश की अखंड स्वतंत्रता और नवनिर्माण की भावनाआ से सराबोर रहा। उनका सौभ्य, स्निग्ध, शीतल, परोपकारी, अहंकारहीन और दर्पोदीप्त शख़्सियत बिहार के जनगणमन पर अधिकार किए हुए था। वे शरीर से दुर्बल, कृषकाय थे, पर इस अर्थ में महाप्राण कोई संकट उनके ओठों की मुस्कुराहट नहीं छीन सका। उनमें शक्ति और शील एकाकार हो गये थे और इसीलिए वे बुद्धिजीवियों को विशेष प्रिय थे। बिहार के विकास में उनका योगदान अतुलनीय है। राज्य के प्रशासनिक ढांचा को तैयार करने का काम अनुग्रह बाबू ने किया था। इन्होंने राज्य के प्रथम उप मुख्यमंत्री और सह वित्तमंत्री के रूप में 11 वर्षों तक बिहार की अनवरत सेवा की।                                                   💁🏻‍♂️ *प्रारंभिक जीवन*
                  अनुग्रह बाबू का जन्म बिहार के पोईअवा नामक गांव में 18 जून, 1887 को हुआ था। उनके पिता ठाकुर विशेश्वर दयाल सिंह जी अपने इलाके के एक वीर पुरुष थे। पांच बसंत जब वे पार कर गये तो उनकी शिक्षा का श्रीगणेश हुआ। सन्‌ 1900 में औरंगाबाद मिडिल स्कूल, 1904 में गया ज़िला स्कूल और 1908 में पटना कॉलेज में प्रविष्ट हुए। जिस समय ये पटना कॉलेज में आये, उस समय देश के शिक्षित व्यक्तियों के हृदय में परतंत्रता की वेदना का अनुभव होने लगा था। ग़ुलामी की जंजीर में जक़डी हुई मानवता का चित्कार अब उन्हें सुनायी प़डने लगा था। वे उस जंजीर को तोड़ फेंकने के लिए व्याकुल होने लगे थे। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी तथा योगिराज अरविंद जैसी महान् आत्माओं का प्रादुर्भाव हो चुका था। इन महान् आत्माओं के कार्यकलापों तथा व्याख्यानों का समुचित प्रभाव अनुग्रह बाबू के हृदय पर प़डा। उनका हृदय भी भारत माता की सेवा के लिए तड़प उठा और वे उस पावन मार्ग पर अग्रसर हो गये। सर्फूद्दीन के नेतृत्व में ‘बिहारी छात्र सम्मेलन’ नामक संस्था संगठित की गई, जिसमें देशरत्न डॉ. राजेन्द्र बाबू ऐसे मेधावी छात्रों को कार्य करने तथा नेतृत्व करने का सुअवसर प्राप्त हुआ।

🇮🇳 *भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन*
         मेरा परिचय अनुग्रह बाबू से बिहारी छात्र सम्मेलन में ही पहले पहल हुआ था। मैं उनकी संगठन शक्ति और हाथ में आए हुए कार्य में उत्साह देखकर मुग्ध हो गया और वह भावना समय बीतने से कम न होकर अधिक गहरी होती गई। 
- देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद
इन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध चम्पारण से अपना सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया था। अनुग्रह बाबू के हृदय में सेवा की उच्च भावना तो बाल्यकाल से ही था, उसे कार्य रूप में परिणत करने तथा उसे पूर्ण रूप से विकसित करने का सुअवसर भी उन्हें इस संगठन में प्रविष्ट होने पर मिल गया। सन्‌ 1910 में आई ए की परीक्षा भी उन्होंने प्रथम श्रेणी में पास की फिर बीए में प्रवेश किया। उसी वर्ष महामना पोलक साहब जो महात्मा गांधी के सहकर्मी थे, पटना पधारे, अफ़्रीका के प्रवासी भारतीयों के बारे में जो उनका व्याख्यान हुआ। उससे अनुग्रह बाबू बहुत प्रभावित हुए। उसी वर्ष प्रयाग में अखिल भारतीय कांग्रेस अधिवेशन हुआ, जिसमें वे अपनी उत्साही सहपाठियों के साथ गये। उस अधिवेशन में महामना गोखले आदि विद्वान् राष्ट्रभक्तों के भाषणों को सुनने का स्वर्ण अवसर भी इन्हें प्राप्त हुआ, जिससे वे ब़डे प्रभावित हुए। अनुग्रह बाबू विद्यार्थी जीवन में ही संगठनशक्ति तथा कार्य संचालन की काबिलियत हासिल कर ली थी। सन्‌ 1914 में इतिहास से एम.ए. करने के बाद 1915 में बी एल की परीक्षा में भी सफलता प्राप्त की। भागलपुर के तेजनारायण जुविल कॉलेज में इतिहास के एक प्रोफेसर की आवश्यकता हुई। अपने साथियों के परामर्श करने के पश्चात् तुरंत उन्होंने अपना आवेदन पत्र भेज दिया और उस पद पर उनकी नियुक्ति हो गई। वर्ष 1916 में उन्होंने कॉलेज की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और पटना हाईकोर्ट में वकालत प्रारंभ कर दी। वकालत के सिलसिले में सरलता की मूर्ति देशरत्न राजेन्द्र बाबू के संसर्ग में अधिक रहने का सुअवसर भी इन्हें प्राप्त हुआ और उनसे पेशे को उन्नत करने की प्रेरणा भी मिली। कलकत्ते में भी उन्हें राजेन्द्र बाबू के सम्पर्क में रहने का स्वर्ण अवसर मिला था। जिस समय राजेन्द्र बाबू लॉ कॉलेज में अध्यापक थे, उसी समय उसी कॉलेज में वे एक विद्यार्थी थे। इसलिये वे राजेन्द्र बाबू की प्रतिष्ठा किया करते थे।                                🌀 *गांधीजी का सत्याग्रह*
                उन्हें वकालत करते हुए अभी एक वर्ष भी नहीं बीता था कि चम्पारण में नील आंदोलन उठ ख़डा हुआ। इस आंदोलन ने उनके जीवन की धारा ही बदल दी। चम्पारण के किसानों की तबाही का समाचार जब महात्मा गांधी से सुने तो वे करुणा से विचलित हो उठे।

जो देशभक्त जेल में अनुग्रह बाबू के चौके में खाते थे, वे जब जेल से निकले तो यह कहते निकले कि अनुग्रह बाबू सचमुच प्रांत के अर्थमंत्री पद के योग्य हैं। इस काम में उनसे कोई बाज़ी नहीं मार सकता।"- - राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर
मुजफ़्फ़रपुर के कमिश्नर की राय के विरुद्ध गांधीजी चम्पारण गये और जांच कार्य प्रारंभ कर दिया।
           अत्याचारों की जांच प्रारंभ हुई। इसमें कुछ ऐसे वकीलों की आवश्यकता थी, जो निर्भीकता पूर्वक कार्य कर सकें और समय आने पर जेल जाने के लिए भी तैयार रहें। इस विकट कार्य के लिए वृज किशोर बाबू के प्रोत्साहन पर राजेन्द्र बाबू के साथ ही अनुग्रह बाबू भी तत्पर हो गये। उन्होंने इसकी तनिक भी चिंता नहीं की कि उनका पेशा नया है और उन्हें भारी क्षति उठानी प़ड सकती है। एक बार जो त्याग के मार्ग पर आगे ब़ढ चुका है, उसे भला इन तुच्छ चीज़ों का क्या भय हो सकता है। चम्पारण का किसान आंदोलन 45 महीनों तक ज़ोर शोर से चलता रहा। अनुग्रह बाबू बराबर उसमें काम करते रहे और आखिर तक डटे रहे । स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता का पाठ उन्हें गांधीजी के आश्रम में ही रहकर प़ढने का सुअवसर प्राप्त हुआ। अनुग्रह बाबू ने चम्पारण के नील आंदोलन में गांधीजी के साथ लगन और निर्भीकता के साथ काम किया और आंदोलन को सफल बनाकर उनके आदेशानुसार 1917 में पटना आये। बापू के साथ रहने से उन्हें जो आत्मिक बल प्राप्त हुआ, वही इनके जीवन का संबल बना। सन्‌ 1920 के दिसंबर में नागपुर में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हुआ, जिसमें अनुग्रह बाबू ने भी भाग लिया। सन्‌ 1929 के दिसंबर में सरदार पटेल ने किसान संगठन के सिलसिले में मुंगेर आदि शहरों का दौरा किया, तब अनुग्रह बाबू सभी जगह उनके साथ थे। 26 जनवरी 1930 को सारे देश में स्वतंत्रता की घोषणा प़ढी गई। अनुग्रह बाबू को भी कई स्थानों में घोषणा पत्र प़ढना प़ढा। कुछ दिनों के बाद महात्मा गांधी ने नमक सत्याग्रह आंदोलन शुरू कर दिया। उस सिलसिले में उन्हें चम्पारण, मुजफ़्फ़रपुर आदि स्थानों का दौरा करना प़डा। 26 जनवरी, 1933 को जब पटना में घोषणा प़ढ रहे थे, उसी समय उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें पंद्रह मास की सज़ा हुई और उन्हें हज़ारीबाग़ जेल भेज दिया गया। जिस समय वे जेल में थे, बिहार में इतिहास विख्यात प्रलयंकारी भूकंप आया। हृदय विदारक समाचारों को प़ढकर उनका हृदय दर्द से कराह उठा। चहारदीवारी के अंदर बंद रहने के कारण ये कोई राहत कार्य नहीं कर सकते थे। लेकिन सरकार ने तीन हफ्तों के बाद इन्हें छ़ोड दिया। छूटते ही अनुग्रह बाबू राहत कार्य में संलग्न हो गये। राजेन्द्र बाबू के साथ कंधे से कंधा मिलाकर इन्होंने अथक परिश्रम के साथ पीड़ित मानवता की सेवा की। मुजफ़्फ़रपुर, मुंगेर आदि शहरों का दौरा किया। इसके लिये राजेन्द्र बाबू की अध्यक्षता में एक कमेटी बनी, जिसके उपाध्यक्ष अनुग्रह बाबू चुने गये तथा खूब लगन के साथ सेवा कार्य किया। सन्‌ 1940 को मार्च महीने में अखिल भारतीय कांग्रेस का अधिवेशन रामग़ढ में हुआ। अधिवेशन का संपूर्ण भार अनुग्रह बाबू के कंधे पर था। उसमें जो अपनी तत्परता दिखलाई उसके फलस्वरूप ही कांग्रेस का अधिवेशन सफल हुआ। देश की परिस्थिति को देखते हुए जब गांधीजी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह अपनाया तब उनके प्रिय सहयोगी अनुग्रह बाबू कब चूकने वाले थे। फलस्वरूप 1940 को वह गिरफ्तार कर लिये गये और अगस्त 1941 में रिहा हुए।
'मुझे अपने लिए चिंता नहीं है, किंतु देश के लिए मुझे चिंता है।’ बिहार विभूति डॉ. अनुग्रह नारायण सिन्हा
गांधीजी का ‘करो या मरो’ का नारा बुलंद हुआ। 7 अगस्त, 1942 को गांधीजी गिरफ्तार किये गये। सारे देश में एक बार ही बिजली की तरह आंदोलन की आग फैल गई। कांग्रेस कमिटियां जब्त कर ली गई और कांग्रेस नेता जहां के तहां गिरफ्तार कर लिये गये। 10 अगस्त को अनुग्रह बाबू भी जब अपने मित्रों से मिलने गये, एकाएक मार्ग में ही गिरफ्तार कर लिये गये। सन्‌ 1944 में जब सारे कांग्रेसी नेता जेल से मुक्त किये जाने लगे, तो अनुग्रह बाबू भी कारावास की कैद से आज़ाद कर दिये गये।

⚜️ *बिहार के पहले उप मुख्यमंत्री सह वित्त मंत्री*
               1937 में ही बाबू साहब बिहार प्रान्त के वित्त मंत्री बने। अनुग्रह बाबू बिहार विधानसभा में 1937 से लेकर 1957 तक कांग्रेस विधायक दल के उप नेता थे। 1946 में जब दूसरा मंत्रिमंडल बना तब वित्त और श्रम दोनों विभागों के पहले मंत्री बने और उन्होंने अपने मंत्रित्व काल में विशेषकर श्रम विभाग में अपनी न्याय प्रियता लोकतांत्रिक विचारधारा एवं श्रमिकों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का जो परिचय दिया वह सराहनीय ही नहीं अनुकरणीय है। श्रम मंत्री के रूप में अनुग्रह बाबू ने ‘बिहार केन्द्रीय श्रम परामर्श समिति’ के माध्यम से श्रम प्रशासन तथा श्रमिक समस्याओं के समाधान के लिए जो नियम एवं प्रावधान बनाये वे आज पूरे देश के लिये मापदंड के रूप में काम करते हैं। तृतीय मंत्रिमंडल में उन्हें खाद, बीज, मिट्‌टी, मवेशी में सुधार लाने के लिए शोध कार्य करवाए और पहली बार जापानी ढंग से धान उपजाने की पद्धति का प्रचार कराया। पूसा का कृषि अनुसंधान फार्म उनकी ही देन है।             🪔  *निधन*
             इस तेजस्वी महापुरुष का निधन 5 जुलाई, 1957 को उनके निवास स्थान पटना में बीमारी के कारण हुआ। उनके सम्मान मे तत्कालीन मुख्यमंत्री ने सात दिन का राजकीय शोक घोषित किया, उनके अन्तिम संस्कार में विशाल जनसमूह उपस्थित था। अनुग्रह बाबू 2 जनवरी, 1946 से अपनी मृत्यु तक बिहार के उप मुख्यमंत्री सह वित्त मंत्री रहे।                   
    
          🇮🇳 *जयहिंद* 🇮🇳


कैप्टन मनोज कुमार पांडेय


   
         🎖 *परमविर चक्र* 🎖
    *कैप्टन मनोज कुमार पांडेय* 

     *जन्म : 25 जून 1975*
(रुधा गाँव, सीतापुर ज़िला, उत्तर प्रदेश)
    *शहादत : 3 जुलाई 1999*
(कारगिल, जम्मू और कश्मीर, भारत)
अभिभावक : गोपीचन्द्र पांडेय और मोहिनी पांडेय
सेना : भारतीय थल सेना
रैंक : कैप्टन
यूनिट : 1/11 गोरखा राइफ़ल्स
युद्ध : कारगिल युद्ध
सम्मान : परमवीर चक्र
नागरिकता : भारतीय
अन्य जानकारी : मनोज कुमार पांडेय को लम्बे समय तक 19700 फीट ऊँची 'पहलवान चौकी' पर डटे रहने का मौका मिला, जहाँ इन्होंने पूरी हिम्मत और जोश के साथ काम किया।
                    कैप्टन मनोज कुमार पांडेय परमवीर चक्र से सम्मानित भारतीय व्यक्ति है। इन्हें यह सम्मान सन 1999 में मरणोपरांत मिला। पाकिस्तान के साथ कारगिल का युद्ध बहुत से कारणों से विशेष कहा जाता है। एक तो यह युद्ध बेहद कठिन और ऊँची चोटियों पर लड़ा गया, जो बर्फ से ढकी और दुर्गम थीं, साथ ही यह युद्ध पाकिस्तान की लम्बी तैयारी का नतीजा था जिसकी योजना उसके मन में बरसों से पल रही थीं। इसी युद्ध के कठिन मोर्चों में एक मोर्चा खालूबार का था जिसको फ़तह करने के लिए कमर कस कर कैप्टन मनोज कुमार पांडे अपनी 1/11 गोरखा राइफल्स की अगुवाई करते हुए दुश्मन से जूझ गई और जीत कर ही माने। भले ही, इस कोशिश में उन्हें अपने प्राणों का बलिदान देना पड़ा।

💁🏻‍♂️ *जीवन परिचय*
                मनोज कुमार पांडे का जन्म 25 जून 1975 उत्तर प्रदेश राज्य के सीतापुर ज़िले के रुधा गाँव में हुआ था। उनके पिता गोपीचन्द्र पांडे तथा उनकी माँ के नाम मोहिनी था। मनोज की शिक्षा सैनिक स्कूल लखनऊ में हुई और वहीं से उनमें अनुशासन भाव तथा देश प्रेम की भावना संचारित हुई जो उन्हें सम्मान के उत्कर्ष तक ले गई। वह शुरू से ही एक मेधावी छात्र थे और खेल-कूद में भी बड़े उत्साह से भाग लेते थे। दरअसल उसकी इस प्रकृति के मूल में उनकी माँ की प्रेरणा थी। वह इन्हें बचपन से ही वीरता तथा सद्चरित्र की कहानियाँ सुनाया करती थीं और वह मनोज का हौसला बढ़ाती थीं कि वह हमेशा सम्मान तथा यश पाकर लौटें।                                         👮‍♂️ *भारतीय सेना में प्रवेश*
                       मनोज की माँ का आशीर्वाद और मनोज का सपना सच हुआ और वह बतौर एक कमीशंड ऑफिसर ग्यारहवां गोरखा राइफल्स की पहली बटालियन में पहुँच गए। उनकी तैनाती कश्मीर घाटी में हुई। ठीक अगले ही दिन उन्होंने अपने एक सीनियर सेकेंड लेफ्टिनेंट पी. एन. दत्ता के साथ एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी भरा काम पूरा किया। यही पी.एन दत्ता एक आतंकवाडी गुट से मुठभेड़ में शहीद हो गए, और उन्हें अशोक चक्र प्राप्त हुआ जो भारत का युद्ध के अतिरिक्त बहादुरी भरे कारनामे के लिए दिया जाने वाला सबसे बड़ा इनाम है। एक बार मनोज को एक टुकड़ी लेकर गश्त के लिए भेजा गया। उनके लौटने में बहुत देर हो गई। इससे सबको बहुत चिंता हुई। जब वह अपने कार्यक्रम से दो दिन देर कर के वापस आए तो उनके कमांडिंग ऑफिसर ने उनसे इस देर का कारण पूछा, तो उन्होंने जवाब दिया, 'हमें अपनी गश्त में उग्रवादी मिले ही नहीं तो हम आगे चलते ही चले गए, जब तक हमने उनका सामना नहीं कर लिया।' इसी तरह, जब इनकी बटालियन को सियाचिन में तैनात होना था, तब मनोज युवा अफसरों की एक ट्रेनिंग पर थे। वह इस बात से परेशान हो गये कि इस ट्रेनिंग की वजह से वह सियाचिन नहीं जा पाएँगे। जब इस टुकड़ी को कठिनाई भरे काम को अंजाम देने का मौका आया, तो मनोज ने अपने कमांडिंग अफसर को लिखा कि अगर उनकी टुकड़ी उत्तरी ग्लेशियर की ओर जा रही हो तो उन्हें 'बाना चौकी' दी जाए और अगर कूच सेंट्रल ग्लोशियर की ओर हो, तो उन्हें 'पहलवान चौकी' मिले। यह दोनों चौकियाँ दरअसल बहुत कठिन प्रकार की हिम्मत की माँग करतीं हैं और यही मनोज चाहते थे। आखिरकार मनोज कुमार पांडेय को लम्बे समय तक 19700 फीट ऊँची 'पहलवान चौकी' पर डटे रहने का मौका मिला, जहाँ इन्होंने पूरी हिम्मत और जोश के साथ काम किया।

💥 *अंतिम समय*
                 मनोज कुमार पांडेय ने निर्णायक युद्ध के लिए 2-3 जुलाई 1999 को कूच किया जब उनकी 1/11 गोरखा राइफल्स की 'बी कम्पनी को खालूबार को फ़तह करने का जिम्मा सौंपा गया। मनोज पाँचवें नम्बर के प्लाटून कमाण्डर थे और उन्हें इस कम्पनी की अगुवाई करते हुए मोर्चे की ओर बढ़ना था। जैसे ही यह कम्पनी बढ़ी वैसे ही उनकी टुकड़ी को दोनों तरह की पहाड़ियों की जबरदस्त बौछार का सामना करना पड़ा। वहाँ दुश्मन के बंकर बाकायदा बने हुए थे। अब मनोज का पहला काम उन बंकरों को तबाह करना था। उन्होंने तुरंत हवलदार भीम बहादुर की टुकड़ी को आदेश दिया कि वह दाहिनी तरफ के दो बंकरो पर हमला करके उन्हें नाकाम कर दें और वह खुद बाएँ तरफ के चार बंकरों को नष्ट करने का जिम्मा लेकर चल पड़े। मनोज ने निडर होकर बोलना शुरू किया। और एक के बाद एक चार दुश्मन को मार गिराया। इस कार्रवाई में उनके कँधे और टाँगे तक घायल हो गई अब वह तीसरे बंकर पर धावा बोल रहे थे। अपने घावों की परवाह किए बिना वह चौथे बंकर की ओर बढ़े। उन्होंने जोर से गोरखा पल्टन का हल्ला लगाया और चौथे बंकर की ओर एक हैण्ड ग्रेनेड फेंक दिया। तभी दुश्मन की एक मीडियम मशीन गन से छूटी हुई होली उनके माथे पर लगी। उनके हाथ से फेंके हुए ग्रेनेड का निशाना अचूक रहा और ठीक चौथे बंकर पर लगा उसे तबाह कर गया लेकिन मनोज कुमार पांडे भी उसी समय धराशायी हो गए। मनोज कुमार पांडेय की अगुवाई में की गई इस कार्रवाई में दुश्मन के 11 जवान मारे गए और छह बंकर भारत की इस टुकड़ी के हाथ आ गए। उसके साथ ही हथियारों और गोलियों का बड़ा जखीरा भी मनोज की टुकड़ी के कब्जे में आ गया। उसमें एक एयर डिफैस गन भी थी। 6 बंकर कब्जे में आ जाने के बाद तो फ़तह सामने ही थी और खालूबार भारत की सेना के अधिकार में आ गया था। मनोज पांडे की शहादत ने उसके जवानों को इतना उत्तेजित कर दिया था कि वह पूरी दृढ़ता और बहादुरी से दुश्मन पर टूट पड़े थे और विजयश्री हथिया ली थी। मनोज कुमार पांडे 24 वर्ष की उम्र जी देश को अपनी वीरता और हिम्मत का उदाहरण दे गए। भले ही उनके साथी कहते रहे कि उन्होंने कभी बचपन के आनन्द से मुँह नहीं मोड़ा, लेकिन देश के प्रति वह इतना गम्भीर समर्पण जी गए, जिसको कभी भुलाया नहीं जा सकेगा।      
         
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पिंगाली वेंकय्या

      

  *तिरंग्याचे आद्य रचनाकार*
  🇮🇳 *पिंगाली वेंकय्या* 🇮🇳
                 
*जन्म : 2 ऑगस्ट 1876*

[भटलापेनुमारू , मछलीपट्टनम जवळ , मद्रास प्रेसीडेंसी , ब्रिटीश भारत (सध्याचे आंध्र प्रदेश , भारत)]

*मृत्यू : 4 जुलै 1963 (वय 86)*
                   ( भारत )

राष्ट्रीयत्व : भारतीय                                                  प्रसिध्दी : भारतीय राष्ट्रीय ध्वजाची रचना

      भारताचा ध्वज कोणत्या रंगाचा असावा, त्यात किती आणि कोणते रंग असावेत, त्याचा आकार कसा असावा याचा सखोल अभ्यास करून त्यांनी तिरंगा साकारला. ते केवळ तिरंग्याचे निर्माते नव्हते तर जपानी भाषेचे शिक्षक, सिद्धहस्त लेखक आणि जिओफिजिसिस्टही होते. 
         कृष्णा जिल्ह्यातील दिवी तालुक्यातील भटलापेन्नुमारू येथील हनुमंतरायुडू आणि वेंकटरत्नम्मा या दांपत्याच्या पोटी २ ऑगस्ट 1876 रोजी पिंगाली यांचा जन्म झाला. देशभक्तीने भारावलेल्या पिंगाली यांनी वयाच्या १९ व्या वर्षी बोअर युद्धासाठी आपले नाव नोंदवले आणि ते सैन्यात भरती झाले. त्यानंतर आफ्रिकेत असताना त्यांची महात्मा गांधीजींशी भेट झाली आणि त्यांचे ऋणानुबंध जुळले. ते पुढे ५० वर्षे टिकून होते. भारतात परतल्यावर बंगलोर आणि मद्रास येथे त्यांनी रेल्वे गार्ड म्हणून काम केले आणि मग बेल्लारी येथील शासकीय सेवेत प्लेग अधिकारी म्हणून ते रुजू झाले. पण त्यांची देशभक्तीची आस त्यांना स्वस्थ बसू देत नव्हती. शिक्षणाच्या ओढीने त्यांनी थेट लोहरमधील अँग्लोवेदिक महाविद्यालय गाठले आणि प्राध्यापक गोटे यांच्या मार्गदर्शनाखाली जपानी भाषा आणि इतिहासाचे शिक्षण घेतले.
पिंगाली यांनी स्वत:ला नॅशनल स्कूलच्या विकासासाठी वाहून घेतले. या ठिकाणी प्राथमिक सैन्यप्रशिक्षण, घोडेस्वारी, इतिहास आणि शेतीविषयी प्रशिक्षण देण्यात येत असे. ते केवळ पुस्तकी ज्ञानाने समाधानी होणारे नव्हते. त्यांच्या दैनंदिन आचरणातून त्यांचा उदारमतवादीपणा दिसत असे. १९१४ मध्ये आपल्या शेतावर ‘स्वेच्छापुरम’ ही संस्था स्थापन केली.
             १९१६-१९२१ या कालावधीत पिंगाली यांनी सुमारे ३० ध्वजांचा अभ्यास करून पिंगाली यांनी भारतीय ध्वजाची कल्पना मांडली. आपल्या तिरंग्याच्या सध्याच्या रूपाचे डिझाईन तयार करण्याचे श्रेय पिंगाली यांना दिले जात असले तरी भारतीय ध्वजाची पाळेपुळे ‘वंदे मातरम्’ चळवळी पर्यंत जातात. १ ऑगस्ट १९०६ रोजी कलकत्त्यातील पारसी बगान स्क्वेअर (ग्रीन पार्क) येथे पहिले ध्वजारोहण झाले. हा ध्वजही तीन रंगांत होता. वरील भागात लाल, मध्ये पिवळा आणि खालच्या बाजूला हिरवा, अशी या झेंडय़ाची रंगसंगती होती. लाल भागात पांढऱ्या रंगाची आठ कमळाची फुले कोरलेली होती. पिवळ्या भागात निळ्या रंगाने देवनागरी लिपीत ‘बंदे मातरम्’ असे लिहिले होते. मदाम कामा आणि त्यांच्या सहकाऱ्यांनी १९०७ मध्ये पॅरिसमध्ये ध्वजारोहण केले होते. या झेंडय़ाची रंगसंगतीही पहिल्या ध्वजाप्रमाणेच होती. फरक एवढाच की, पहिल्या पट्टीमध्ये केवळ एकच कमळ होते आणि सप्तर्षी दर्शविणारे सात तारे होते. बर्लिनच्या समाजवादी बैठकीत हा ध्वज फडकविण्यात आला. १९१७ मध्ये जेव्हा राजकीय चळवळीने वेग घेतला, त्यावेळी अॕनी बेझंट आणि लोकमान्य बाळ गंगाधर टिळक यांनी ध्वजारोहण केले होते. या ध्वजाच्या डाव्या बाजूच्या कोपऱ्यात युनियन जॅकचा शिक्का होता. त्याचप्रमाणे पांढऱ्या आकाराचे अर्धवर्तुळ आणि ताऱ्याचे चिन्ह होते. त्यावेळच्या जनतेचे उद्दिष्ट दाखविणे हा त्यामागचा संकेत होता आणि सत्ता मिळविण्याची इच्छा प्रदर्शित करण्यासाठी युनियन जॅकचा शिक्का होता. पण त्या ध्वजावरील युनियन जॅकचे अस्तित्त्व ही राजकीय तडजोड असल्याची भावना अनेकांनी व्यक्त केली होती. त्यामुळे या ध्वजाचा स्वीकार करण्यात आला नाही. १९२१ मध्ये स्वातंत्र्याच्या चळवळीचे नेतृत्व महात्मा गांधीजींकडे आले आणि त्याचवेळी तिरंग्याचे पहिले रूप जनतेसमोर आले.
           १९२१ ते १९३१ ही दहा वर्षे पिंगाली यांच्यादृष्टीनेच नव्हे तर आंध्र प्रदेशमधील स्वातंत्र्य चळवळीचा महत्त्वाचा कालावधी ठरला. ३१ मार्च आणि १ एप्रिल १९२१ या दोन दिवशी बेझवाडा येथे एआयसीसीच्या (ऑल इंडिया कॉँग्रेस कमिटीने) ऐतिहासिक परिषदेचे आयोजन करण्यात आले होते. याच वेळी पिंगाली वेंकय्या ध्वज घेऊन गांधीजींकडे गेले. भारतातील दोन प्रमुख धर्म दर्शविणारे लाल आणि हिरवा असे दोन रंग यात होते. अशाप्रकारे राष्ट्रध्वज अस्तित्वात आला, पण ऑल इंडिया कॉँग्रेस कमिटीने तो अधिकृतपणे स्वीकारला नव्हता. गांधीजींनी तो स्वीकारल्यानंतर पुढील प्रत्येक कॉँग्रेस बैठकीमध्ये हा ध्वज फडकविण्यात येत असे. सामान्य माणसाच्या प्रगतीचे प्रतीक असलेल्या चरख्याचा या ध्वजामध्ये अंतर्भाव करण्यात यावा, अशी सूचना जालंधरचे हंसराज यांनी केली. त्यानंतर गांधीजींनी इतर अल्पसंख्यांकांचे अस्तित्व दर्शविणारी पांढरी पट्टी या ध्वजात समाविष्ट केली. १९३१ पर्यंत त्याला लोकमान्यता मिळाली नव्हती. ध्वजामधील रंगांचा अर्थ समजण्यावरूनही त्यावेळी जातीय तणाव निर्माण झाला होता. १९३१ मध्ये कराची येथे भरलेल्या कॉँग्रेसमध्ये यावरील अंतिम तोडगा काढण्यात आला. शौर्य दर्शविणारा भगवा, सत्य आणि शांती दर्शविणारा पांढरा आणि समृद्धी व विश्वास दर्शविणारा हिरवा असा या तीन रंगी ध्वजाचा अर्थ लावण्यात आला. चरखा आणि सूत यांच्याऐवजी ध्वजाच्या मध्यभागी अशोकचक्राचा समावेश करण्यात आला.
राष्ट्रध्वजातील तीन रंगांचा अर्थ समजावताना सर्वपल्ली राधाकृष्णन यांनी सांगितले की, राजकीय नेत्यांनी व्यावहारीक सुखांचा त्याग करणे हे भगवा रंग दर्शवतो, सत्याची वाट दाखवणे हे पांढरा रंग सांगतो तर हिरवा रंग आपले जमिनीशी असलेले नाते दर्शवितो आणि अशोकचक्र हे धर्माचे प्रतीक आहे.
राष्ट्रध्वजाची प्राथमिक कल्पना मांडणारे पिंगाली वेंकय्या यांचे ४ जुलै १९६३ रोजी निधन झाले.

*जाणून तिंरग्याचे रचनाकार पिंगली वेंकैया यांच्याबद्दलच्या १० खास गोष्टी*

♦वयाच्या १९व्या वर्षीच ते ब्रिटीश लष्करात भरती झाले. ते दक्षिण आफ्रिकेमधील अँग्लो बोएर युद्धामध्ये सैनिक म्हणून ब्रिटिशांच्या बाजूने लढले.
🔸याच काळात त्यांची आणि महात्मा गांधींची दक्षिण आफ्रिके मध्ये भेट झाली. त्यानंतर पुढील पन्नास वर्षाहून अधिक काळ हे दोन्ही नेते एकमेकांच्या संपर्कात होते.
🔹पिंगली हे जियोलॉजीमध्ये डॉक्टरेट होते. ते हिरे खाण उत्खन्नातील तज्ञ होते. त्यामुळेच त्यांना डायमंड वेंकैया हे टोपणनाव देण्यात आले होते.त्याचप्रमाणे कापसावरील संशोधनामध्ये त्यांना विशेष स्वारस्य असल्याने त्यांना कॉटन वेंकैया नावानेही ओळखले जायचे.
🔸त्यांना उर्दू तसेच जपानी भाषेबरोबरच इतरही अनेक भाषा अवगत होत्या.
♦३१ मार्च १९२१ मध्ये पिंगली यांनी विजयवाडा येथे झालेल्या काँग्रेस कार्यकारणीच्या बैठकीमध्ये भगव्या आणि हिरव्या रंगाचा झेंडा भारतीय राष्ट्रध्वज म्हणून सादर केला. मूळचे जालंधरच्या असणाऱ्या लाला हंसराज यांनी या झेंड्यावर चरखा असावा असे सांगत चरख्यासहीत हा  झेंडा सादर केला तर गांधीजींनी भगव्या आणि हिरव्या रंगाच्यामध्ये पांढऱ्या रंगाच्या पट्टीचा सल्ला दिला. आणि अशाप्रकारे तिरंग्याचा जन्म झाला.
🔸१५ ऑगस्ट १९४७ रोजी भारत स्वातंत्र्य मिळाल्यानंतर पिंगली यांच्या कल्पनेतून साकारलेल्या तिरंगी झेंड्याला भारताचा राष्ट्रध्वज म्हणून मान्यता मिळाली. भारतीय संविधान समितीने २२ जुलै १९४७ रोजी तिरंगा झेंडा भारताचा राष्ट्रध्वज असल्याचे जाहीर केले.
🔹पिंगली यांची शेवटची इच्छा अपूर्णच राहिली. भारताचा तिरंगा दिल्लीतील लाल किल्ल्यावर फडकताना पाहण्याची त्यांची इच्छा होती. मात्र त्यांच्या कुटुंबाकडे त्यांना दिल्लीला पाठवण्याइतके पैसे नसल्याने त्यांची ही इच्छा पूर्ण होऊ शकली नाही.
♦१९६३ साली पिंगली यांचा मृत्यू झाला. त्यांच्या मृत्यूनंतर काही दशकांनी  २००९ साली भारतीय पोस्ट खात्याने त्यांच्या सन्मानार्थ पोस्टाचे तिकीट जारी केले. स्वातंत्र्य लढ्यातील योगदानाबद्दल त्यांचा सन्मान करण्यासाठी हे तिकीट जारी करण्यात आले होते.
🔹२०११ साली भारतरत्न पुरस्कारासाठी (मरणोत्तर) पिंगली यांच्या नावाची शिफारस करण्यात आली होती.
🔸मागील काही वर्षांपासून त्यांच्या मुलीला सरकारकडून पेन्शन देण्यात येत आहे