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नीरजा भनोट*


 नीरजा भनोट*
               
(विमान परिचारिका- अशोक चक्र से सन्मानीत)
          *जन्म : 7 सितंबर 1963*
             (चंडीगढ़)
          *मृत्यु : 5 सितंबर 1986*
          (कराची, पाकिस्तान)
पिता : हरीश भनोट 
कर्म भूमि : भारत
कर्म-क्षेत्र : विमान परिचारिका (एयर होस्टेस)
पुरस्कार-उपाधि : अशोक चक्र
नागरिकता : भारतीय
अन्य जानकारी : नीरजा भनोट 5 सितंबर 1986 के पैन ऐम उड़ान 73 के अपहृत विमान में यात्रियों की सहायता एवं सुरक्षा करते हुए आतंकवादियों की गोलियों का शिकार हो गईं थीं।
नीरजा भनोट मुंबई में पैन ऐम एअरलाइन्स की विमान परिचारिका थीं। 5 सितंबर, 1986 के पैन ऐम उड़ान 73 के अपहृत विमान में यात्रियों की सहायता एवं सुरक्षा करते हुए वे आतंकवादियों की गोलियों का शिकार हो गईं थीं। नीरजा वास्तव में स्वतंत्र भारत की महानतम वीरांगना थीं। आतंकियों से लगभग 400 यात्रियों की जान बचाते हुए उन्होंने अपना जीवन बलिदान कर दिया था। नीरजा भनोट 'अशोक चक्र' पाने वाली पहली महिला थीं। उनकी कहानी पर आधारित 2016 में एक फ़िल्म भी बनी, जिसमें उनका किरदार सोनम कपूर ने अदा किया था।

💁🏻‍♀️ *परिचय*
नीरजा भनोट का जन्म 7 सितंबर, 1963 को पिता हरीश भनोट और माता रमा भनोट की पुत्री के रूप में चंडीगढ़, पंजाब में हुआ था। उनके पिता बंबई (अब मुंबई) में पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्यरत थे और नीरजा की प्रारंभिक शिक्षा अपने गृहनगर चंडीगढ़ के सैक्रेड हार्ट सीनियर सेकेण्डरी स्कूल में हुई। इसके पश्चात् उनकी शिक्षा मुम्बई के स्कोटिश स्कूल और सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज में हुई। नीरजा का विवाह वर्ष 1985 में संपन्न हुआ और वे पति के साथ खाड़ी देश को चली गयीं; लेकिन कुछ दिनों बाद दहेज के दबाव को लेकर इस रिश्ते में खटास आ गयी और विवाह के दो महीने बाद ही नीरजा वापस मुंबई आ गयीं। इसके बाद उन्होंने पैन एम में विमान परिचारिका की नौकरी के लिये आवेदन किया और चुने जाने के बाद मियामी में ट्रेनिंग के बाद वापस लौटीं।

✈️ *विमान अपहरण की घटना*
हरीश भनोट के यहाँ जब नीरजा भनोट का जन्म हुआ था तो किसी ने भी नहीं सोचा था कि भारत का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान इस बच्ची को मिलेगा। बचपन से ही इस बच्ची को वायुयान में बैठने और आकाश में उड़ने की प्रबल इच्छा थी। नीरजा ने अपनी इच्छा एयर लाइन्स पैन एम ज्वाइन करके पूरी की। 16 जनवरी, 1986 को नीरजा को आकाश छूने वाली इच्छा को वास्तव में पंख लग गये थे। नीरजा पैन एम एयरलाईन में बतौर एयर होस्टेज का काम करने लगीं। 5 सितम्बर, 1986 की वह घड़ी आ गयी थी, जहाँ नीरजा के जीवन की असली परीक्षा की बारी थी। पैन एम 73 विमान कराची, पाकिस्तान के एयरपोर्ट पर अपने पायलेट का इंतजार कर रहा था। विमान में लगभग 400 यात्री बैठे हुये थे। अचानक 4 आतंकवादियों ने पूरे विमान को गन प्वांइट पर ले लिया। उन्होंने पाकिस्तानी सरकार पर दबाव बनाया कि वह जल्द में जल्द विमान में पायलट को भेजे। किन्तु पाकिस्तानी सरकार ने मना कर दिया। तब आतंकियों ने नीरजा और उसकी सहयोगियों को बुलाया कि वह सभी यात्रियों के पासपोर्ट एकत्रित करें ताकि वह किसी अमेरिकन नागरिक को मारकर पाकिस्तान पर दबाव बना सके।

📜 *सम्मान में जारी डाक टिकट*
नीरजा सभी यात्रियों के पासपोर्ट एकत्रित किये और विमान में बैठे 5 अमेरिकी यात्रियों के पासपोर्ट छुपाकर बाकी सभी आतंकियों को सौंप दिये। उसके बाद आतंकियों ने एक ब्रिटिश को विमान के गेट पर लाकर पाकिस्तानी सरकार को धमकी दी कि यदि पायलट नहीं भेजे तो वह उसको मार देगे। किन्तु नीरजा ने उस आतंकी से बात करके उस ब्रिटिश नागरिक को भी बचा लिया। धीरे-धीरे 16 घंटे बीत गये। पाकिस्तान सरकार और आतंकियों के बीच बात का कोई नतीजा नहीं निकला। अचानक नीरजा को ध्यान आया कि विमान में ईंधन किसी भी समय समाप्त हो सकता है और उसके बाद अंधेरा हो जायेगा। जल्दी ही उन्होंने अपनी सहपरिचायिकाओं को यात्रियों को खाना बांटने के लिए कहा और साथ ही विमान के आपातकालीन द्वारों के बारे में समझाने वाला कार्ड भी देने को कहा। नीरजा को पता लग चुका था कि आतंकवादी सभी यात्रियों को मारने की सोच चुके हैं। उन्होंने सर्वप्रथम खाने के पैकेट आतंकियों को ही दिये, क्योंकि उनका सोचना था कि भूख से पेट भरने के बाद शायद वह शांत दिमाग से बात करें।

इसी बीच सभी यात्रियों ने आपातकालीन द्वारों की पहचान कर ली। नीरजा भनोट ने जैसा सोचा था वही हुआ। विमान का ईंधन समाप्त हो गया और चारों ओर अंधेरा छा गया। नीरजा तो इसी समय का इंतजार कर रही थीं। तुरन्त उन्होंने विमान के सारे आपातकालीन द्वार खोल दिये। योजना के अनुरूप ही सारे यात्री तुरन्त उन द्वारों के नीचे कूदने लगे। वहीं आतंकियों ने भी अंधेरे में फायरिंग शुरू कर दी। किन्तु नीरजा ने अपने साहस से लगभग सभी यात्रियों को बचा लिया था। कुछ घायल अवश्य हो गये थे, किन्तु ठीक थे। अब विमान से भागने की बारी नीरजा की थी, किन्तु तभी उन्हें बच्चों के रोने की आवाज सुनाई दी। दूसरी ओर पाकिस्तानी सेना के कमांडो भी विमान में आ चुके थे। उन्होंने तीन आतंकियों को मार गिराया। इधर नीरजा उन तीन बच्चों को खोज चुकी थीं और उन्हें लेकर विमान के आपातकालीन द्वार की ओर बढ़ने लगीं। तभी अचानक बचा हुआ चौथा आतंकवादी उनके सामने आ खड़ा हुआ। नीरजा ने बच्चों को आपातकालीन द्वार की ओर धकेल दिया और स्वयं उस आतंकी से भिड़ गईं। आतंकी ने कई गोलियां उनके सीने में उतार डालीं। नीरजा ने अपना बलिदान दे दिया। उस चौथे आतंकी को भी पाकिस्तानी कमांडों ने मार गिराया किन्तु वो नीरजा को न बचा सके।

⚜️ *सम्मान*
नीरजा भनोट के बलिदान के बाद भारत सरकार ने उनको सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'अशोक चक्र' प्रदान किया तो वहीं पाकिस्तान की सरकार ने भी नीरजा को 'तमगा-ए-इन्सानियत' प्रदान किया। नीरजा वास्तव में स्वतंत्र भारत की महानतम विरांगना थीं। सन 2004 में नीरजा भनोट के सम्मान में डाक टिकट भी जारी हो चुका है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नीरजा का नाम 'हिरोइन ऑफ हाईजैक' के तौर पर मशहूर है। वर्ष 2005 में अमेरिका ने उन्हें 'जस्टिस फॉर क्राइम अवार्ड' दिया।

⏳ *स्मृति शेष*
नीरजा की समृति में मुम्बई के घाटकोपर इलाके में एक चौराहे का नामकरण किया गया है, जिसका उद्घाटन 90 के दशक में हिंदी फ़िल्मों के ख्यातिप्राप्त अभिनेता अमिताभ बच्चन ने किया। इसके अलावा उनकी स्मृति में एक संस्था 'नीरजा भनोट पैन ऍम न्यास' की स्थापना भी हुई है, जो उनकी वीरता को स्मरण करते हुए महिलाओं को अदम्य साहस और वीरता हेतु पुरस्कृत करती है। उनके परिजनों द्वारा स्थापित यह संस्था प्रतिवर्ष दो पुरस्कार प्रदान करती है, जिनमें से एक विमान कर्मचारियों को वैश्विक स्तर पर प्रदान किया जाता है और दूसरा भारत में महिलाओं को विभिन्न प्रकार के अन्याय और अत्याचार के खिलाफ़ आवाज़ उठाने और संघर्ष के लिये। प्रत्येक पुरास्कार की धनराशि 1,50,000 रुपये है और इसके साथ पुरस्कृत महिला को एक ट्रॉफी और स्मृतिपत्र दिया जाता है। महिला अत्याचार के खिलाफ़ आवाज़ उठाने के लिये प्रसिद्ध हुई राजस्थान की दलित महिला भंवरीबाई को भी यह पुरस्कार दिया गया था।

🎞️ *फ़िल्म*
नीरजा के साहसिक कार्य और उनके बलिदान को याद रखने के लिये उन पर फ़िल्म निर्माण की घोषणा वर्ष 2010 में ही हो गयी थी, परन्तु किन्हीं कारणों से यह कार्य टलता रहा। अप्रैल, 2015 में राम माधवानी के निर्देशन में इस फ़िल्म की शूटिंग शुरू हुई। इस फ़िल्म में नीरजा का किरदार अभिनेत्री सोनम कपूर ने अदा किया। यह फ़िल्म 19 फ़रवरी, 2016 को रिलीज हुई थी। इस फ़िल्म के प्रोड्यूसर अतुल काशबेकर हैं।
      
         

*डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन*


               *भारतरत्न*         
    *डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन*
     *जन्म : ५ सप्टेंबर १८८८*
(तिरुत्तनी, तमिळनाडू तील एक छोटे गाव, दक्षिण भारत)
    *मृत्यू : १७ एप्रिल १९७५*                                  *२ रे भारतीय राष्ट्रपती*
कार्यकाळ : १३ मे १९६२ – 
                 १३ मे १९६७
मागील : राजेंद्रप्रसाद
पुढील : झाकीर हुसेन
       *भारतीय उपराष्ट्रपती*
कार्यकाळ : १९५२ – १९६२
   
राजकीय पक्ष : भारतीय राष्ट्रीय 
                       काँग्रेस
पत्नी : सिवाकामुअम्मा
अपत्ये : पाच मुली व एक पुत्र, 
             सर्वपल्ली गोपाल
व्यवसाय : राजनीतिज्ञ, तत्त्वज्ञ, 
                प्राध्यापक
धर्म : वेदान्त (हिंदू)

सर्वेपल्ली राधाकृष्णन हे भारताचे दुसरे राष्ट्रपती व नामांकित शिक्षणतज्‍ज्ञ होते. डॉ. सर्वेपल्ली राधाकृष्णन  हे भारताचे भारताचे पहिले उपराष्ट्रपतीच आणि दुसरे राष्ट्रपती होते. त्यांच्या कार्यकाळ  त्यांचा जन्म दक्षिण भारतात तिरुत्तनी या ठिकाणी झाला. हे गाव चेन्नई (मद्रास) शहरापासून ईशान्येला ६४ किमी अंतरावर आहे. राधाकृष्णन यांचा ५ सप्टेंबर हा जन्मदिवस भारतात शिक्षक-दिन म्हणून साजरा केला जातो.

पाश्चात्त्य जगताला भारतीय चिद्‌वादाचा तात्त्विक परिचय करून देणारा भारतावरच्या ब्रिटिश सत्ताकाळातला महत्त्वाचा विचारवंत म्हणून राधाकृष्णन यांना ओळखले जाते. भारतीय तत्त्वज्ञानाचे भाष्यकार म्हणून ते ऑक्सफर्डमध्ये नावाजले गेले. त्यांच्या कार्याचे महत्त्व जाणून ऑक्सफर्ड विद्यापीठाने त्यांच्या नावाने 'राधाकृष्णन मेमोरियल बिक्वेस्ट' हा पुरस्कार ठेवला आहे.

राधाकृष्णन यांच्या जीवनात तीन प्रमुख प्रश्न होते. पहिला प्रश्न असा की, नीतिमान पण चिकित्सक, विज्ञानोन्मुख पण अध्यात्मप्रवण असा नवा माणूस कसा निर्माण करता येईल? या दृष्टीने शिक्षणाचा काही उपयोग होऊ शकेल का? दुसरा प्रश्न असा होता की, प्राचीन भारतीय तत्त्वचिंतन सर्व जगाला आधुनिक भाषाशैलीत, आधुनिक पद्धतीने कसे समजावून सांगता येईल? भारतीय तत्त्वचिंतनाचे वैभव जगाला नेमकेपणाने कसे सांगावे? कसे पटवून द्यावे? तिसरा प्रश्न असा होता की; मानव जातीचे भवितव्य घडवण्यासाठी सांस्कृतिक संचिताचा उपयोग किती?' कुणाशीही ते याच तीन प्रश्नांच्या अनुरोधाने बोलत, असे नरहर कुरुंदकर लिहितात.

🎖 *पुरस्कार*

१९५४ : 'भारतरत्‍न' पुरस्काराने सन्मानित.

भारताचे माजी राष्ट्रपती डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् यांचा 5 सप्टेंबर रोजी जन्मदिन ‘शिक्षक दिन’ म्हणून साजरा करण्यात येतो. ‘शिक्षक’ हा भावी पिढीचा शिल्पकार असून त्यांच्याकडूनच आपल्याला ज्ञान व जगाकडे पाहण्याची सकारात्मक दृष्टी मिळत असते. आपल्या गुरू, शिक्षकांविषयी कृतज्ञता व्यक्त करण्याचा हा दिवस…. 

डॉ. राधाकृष्ण यांचे शिक्षकांप्रती असलेले प्रेम व आदर पाहून भारत सरकारने त्यांचा जन्मदिन हा ‘शिक्षक दिन’ म्हणून साजरा करण्‍याचा संकल्प केला. ती परंपरा अजूनही सुरू आहे व भविष्‍यातही सुरूच राहिल. 1962 मध्ये डॉ. राधाकृष्णन् यांनी राष्ट्रपती पदाची शपथ घेतली तेव्हा त्यांचा जन्मदिवस हा शिक्षकांचा गौरव दिन म्हणून साजरा करण्याची इच्छा प्रकट केली होती. देशातील शिक्षकांचा गौरव हाच आपला गौरव असल्याचे त्यांनी सांगितले होते.

भारताचे दुसरे राष्ट्रपती डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन याच्या स्मृतीप्रत्यर्थ त्यांचा जन्मदिन संपूर्ण भारतभर शिक्षक दिन म्हणून साजरा करतात. कारण डॉ. राधाकृष्णन यांनी 1909 ते 1948 वर्षं पर्यंत म्हणजे 40 वर्षे शै‍क्षणिक क्षेत्रात शिक्षकाचा कार्यभार सांभाळला .

त्यांचा जन्म 5 सप्टेंबर 1888 साली आंध्र राज्यातील चितुर जिल्ह्यातील तिरूत्तनी या गावी झाला. प्राथमिक शिक्षण त्यांच्या गावी झाले व पुढील शिक्षण तिरुपती या गावी झाले. त्यांचे शिक्षण लुथरम मिशन हायस्कूल मध्ये झाले. नंतर उच्च माध्यमिक शिक्षण मद्रास येथील ख्रिश्चन कॉलेजात. तत्त्वज्ञान विषय घेऊन ते प्रथम क्रमांकाने पास झाले व एम्.ए. साठी नितीशास्त्र विषय घेतला.

मद्रास येथे प्रेसिडेन्सी कॉलेजमध्ये तर्कशास्त्राचे प्राध्यापक म्हणून 1917 पर्यंत कार्य केले. 1939 मध्ये आंध्र विद्यालयाने त्यांना डी. लिट. ही पदवी दिली.

1931साली इंग्लॅडने डॉ. राधाकृष्णन यांना सर ही मानाची पदवी बहाल केली. त्यांच्या वाढत्या गुणांमुळे, प्रगतीमुळे 1946ते 1949 या काळात भारतीय राज्य घटना समितीचे सभापती म्हणून निवड झाली.

1952साली भारताचे पहिली निवडणूक होऊन उपराष्ट्रपती म्हणून निवड झाली. त्याच वेळी ते दिल्ली विद्यापीठाचे कुलपती होते. त्याचप्रमाणे 1939 ते 48 बनारस हिंदू विश्वविद्यालयाचे कुलपती होते.

1957च्या दुसर्‍या सार्वत्रिक निवडणुकीत ते पुन्हा उपराष्ट्रपती झाले. उत्कृष्ट कार्य कर्तृत्त्वामुळे त्यांना 1958 साली भारतरत्न हा पुरस्कार देण्यात आला.

13 मे 1962 साली डॉ. राधाकृष्णन यांची राष्ट्रपती म्हणून निवड करण्यात आली. 1967 साली निवृत्त झाले. त्यानंतर आंध्रराज्यातील तिरूपती या गावी 24 एप्रिल 1975 रोजी वृद्धापकाळाने त्यांचे निधन झाले.

*‘शिक्षक’ भावी पिढीचा शिल्पकार…*

शिक्षक हा समाज परिवर्तन करणारा घटक आहे. भविष्यातले विचारवंत, कलाकार, लेखक, तत्त्वज्ञ, पुढारी, डॉक्टर, प्राध्यापक, इंजिनीयर, शास्त्रज्ञ तयार करण्याचे सामर्थ्य शिक्षकांमध्ये असते. ज्या प्रमाणे मातीच्या गोळ्याला कुंभार आकार देऊन त्यापासून एखादी प्रतिकृती तयार करत असतो, अगदी त्याचप्रमाणे शिक्षक बालकांच्या कोर्‍या मनावर योग्य संस्कार करून त्यातून भविष्यातील जबाबदार नागरिक घडवित असतात. आपल्या आई-वडीलांनंतर शिक्षक हे आपले अप्रत्यक्षरित्या पालकच असतात.

शिक्षक हे आपल्याला केवळ पुस्तकी ज्ञान शिकवित नाहीत तर आपण त्यांच्याकडून जगण्याची कला आत्मसात करत असतो.

आपल्या व्यक्तीमत्त्वावर त्यांच्याकडून संस्कार, संस्कृती, परंपरा, चालीरिती व आदर असे पैलू पाडले जात असतात. त्यामुळे विद्यार्थ्यांनी‍ आपल्या गुरूंचा नेहमी आदरपूर्वक सन्मान केला पाहिजे. त्यांच्याविषयी शिक्षक दिनी कृतज्ञता व्यक्त करून त्याचे ऋण फेडण्याचा प्रयत्न केला पाहिजे.

शिक्षक दिन अर्थात चिंतनाचा दिन
समाज व शिक्षक यांचे नाते अतूट आहे. तसेच ते अमूल्यही आहे. भारतीय तत्त्वज्ञानातील परंपरेमध्ये समाजऋण फेडण्यासाठीचाही उल्लेख आढळतो. शिक्षक म्हणजे समाज घडविणारा सर्जनशील घटक. राष्ट्राची ध्येय-धोरणे बळकट करण्यासाठी व देशाला अधिक बलशाली बनवण्यासाठी जी राष्ट्रीय शैक्षणिक धोरणे आखली जातात त्याची रूजवणं करणारा, ती मूल्ये वृध्दिंगत होण्यासाठी संस्कार करणारा महत्त्वाचा घटक म्हणजे शिक्षक. राष्ट्रउभारणीत शिक्षण व शिक्षकांना महत्त्वाचे स्थान आहे. अशावेळी एखाद्या राष्ट्राच्या जडणघडणीत शिक्षक हा महत्त्वाचा मानला जातो. समाजातील अनेक पिढय़ा त्यांच्या हाताखालून जात असतात. या पिढय़ांना माणूस म्हणून घडवताना राष्ट्रीय चारित्र्यही घडणे अभिप्रेत असते. महात्मा गांधीजींना शिक्षणांची व्याख्या करताना हेच अभिप्रेत होते व ते कालातीतही आहे.

शिक्षकांनी, शिक्षक हा पेशा न मानता ते व्रत समजावे व घेतला वसा टाकू नये, ऊतू नये, मातू तर अजिबात नये. कालौघात शिक्षणक्षेत्रातील आवाहने व शिक्षकांविषयीच्या संकल्पना बदलत आहेत. गुरू, गुरुजी, मास्तर, बाई, सर, ताई आणि आता मॅडम अशी बिरूदे शिक्षकांसाठी पुढे आली आहेत. शिक्षक व विद्यार्थी यातील अंतर कमी झाले आहे. शिक्षकांविषयीची आदरुक्त भीती आता अभावानेच आढळते. गुरुंविषयीचा अभिमान, आदर असणारी ऋषीतुल्य व्यक्तिमत्त्वेही तशीच कमीच होत आहेत. शिक्षकांची जागा तंत्रज्ञानाने घेतली आहे. गुरुची कामं आता यंत्र करत आहे. शाळा, महाविद्यालय ही संकल्पना भविष्यात लयालाही जाईल. ऑनलाइन शिक्षण व ऑनलाइन पदवीही मिळेल. या सगळ्या गदारोळात माणसाच्या सामाजिकीकरण प्रक्रिया मात्र होणार नाही. सहवेदना, सहकार्य, सहानुभूती, त्याग, सोसणे या मानवी भावभावनांचे विकसीकरण कदाचित होणार नाही. सवंगडय़ा सोबत, एका विशिष्टवेळी, विशिष्ट इमारतीत प्रत्यक्ष प्रसंग घडत असताना, प्रत्यक्ष जीवनानुभवातून आपण जे अनुकरणाने, अवलोकनाने, अनुभवातून शिकतो त्याचे काय? हा प्रश्न बाकी असेल. यादृष्टीने विचार करता, मानवाने यंत्रे निर्माण केली. विकसित केली. हीच यंत्रे माणसाची जागा घेत आहेत. पण शिक्षण क्षेत्रात ई-लर्निगची साधने हा शिक्षकांसाठीचा पर्याय होऊ शकत नाही. संस्कार, प्रेम, शिस्त, सृजनांचे रूजवण करण्याचे काम यंत्रे करू शकत नाहीत. हेच खरे.
आज एकविसाव्या शतकाकडे वाटचाल करताना पारंपरिक शिक्षण व आधुनिक शिक्षण असे दोन प्रवाह दिसतात. जीवन कौशल्यावर आधारित किमान कौशल्ये प्राप्त करून देणारे शिक्षण हे भविष्यात उपोगी पडणारे आहे. कुशल मनुष्यबळ हीच आपली आपल्या राष्ट्राची खरी संपत्ती असणार आहे. अगदी आधुनिक पद्धतीच्या शेतीपासून ते अवकाश शास्त्रापर्यंतच तंत्रज्ञानाचा शिक्षणात अंतर्भाव करून राष्ट्राला घडवणारी, राष्ट्राला स्वतंत्र वेगळी ओळख प्राप्त करून देणारी पिढी निर्माण करण्याचे मोठे आव्हान मात्र आपल्या पुढे आहे. शिक्षणाने प्रगती होते, समाज विकसित होतो, देश प्रगत होतो हे खरे; पण आपण मिळवलेले ज्ञान, कौशल्ये हे आपल्या ‘स्व’ सुखापुरते मर्यादित न ठेवता. समाजाभिमुख व्हावे आपण कार्य करतो. समाजासाठी लढतो, उभे राहतो, समाजाला योगदानाच्या रूपात काही देऊ शकतो तेव्हाच हे शक्य आहे व हीच मानसिकता विद्यार्थ्यांमध्ये निर्माण करण्याचे अवघड काम मात्र शिक्षकांना करायचे आहे. धर्म, प्रांत, जात, देश या मर्यादा ओलांडून गेल्याशिवाय ग्लोबलाझेशनच्या खर्‍या अर्थापर्यंत आपण पोहोचू शकणार नाही. म्हणून सर्व थरातील शिक्षणाला व शिक्षकांना आज महत्त्व आहे. माझ्यामधले ‘दि बेस्ट’ देण्याची तळमळ असणारे शिक्षकच हाडाचे शिक्षक ठरतात. समाजभिमुखी पिढी घडवताना विद्यार्थ्यांमध्ये ग्रासलेल्या प्लसची जाणीव, सामर्थ्याची ओळख करून देण्याचे काम होणे आवश्यक आहे. तेव्हाच आपल्याला अभिप्रेत असलेला शिक्षणातून सर्वागिण विकास घडणार आहे. ‘शिक्षक दिन’ म्हणूनच सगळ्यांसाठी चिंतनाचा दिन ठरावा.
मी देशासाठी काय करू शकतो. देशाला काय देऊ शकतो, माझ्या जन्माची सार्थकता कशात आहे, ते इप्सित साध्य करण्याच्या दृष्टीने एक शिक्षक म्हणून आपण कार्यरत असावे. आज काळ बदलला आहे. शिक्षण क्षेत्रातील आव्हाने वाढली आहेत. शिक्षणतज्ज्ञांइतकेच या शिक्षण प्रक्रियेत पालकांनाही महत्त्व आले आहे. समाजाची गरज, विद्यार्थी घडवणे, पालकांची अपेक्षा, आपल्या व्यवसायाची पवित्रता जपणे, प्रतिमा जपणे या सगळ्याचा मेळ घालताना आपले ज्ञानही अद्यावत ठेवणे गरजेचे आहे. या सगळ्याचे संतुलन साधत ह्या व्रताची अवघड वाटचाल करावायची आहे. शिक्षक दिनानिमित्त सर्व गुरुजनांना हार्दिक शुभेच्छा...!

यानिमित्तानं जाणून घेऊया त्यांचे अनमोल आणि प्रेरणादायी विचार...
 
1. भविष्यात येणाऱ्या आव्हानांना सामोरं जाण्यासाठी विद्यार्थ्यांना खऱ्या अर्थानं घडवतो, तो खरा शिक्षक.

2.  मानवतेच्या मूलभूत गोष्टी लक्षात ठेवाव्यात, जेणेकरुन चांगली व्यवस्था आणि स्वातंत्र्य दोन्ही अबाधित राहील.

3. पुस्तकांच्या वाचनानं आपल्याला एकांतात विचार करण्याची सवय आणि खरे सुख लाभते.

7. कवी धर्मामध्ये कोणत्याही निश्चित स्वरुपातील सिद्धांतासाठी कोणतीही जागा नसते.

8. मानव दानव बनणं, हा त्याचा पराभव... मानव महामानव बनणं, हा त्याचा चमत्कार... आणि मनुष्य मानव होणे, हा त्याचा विजय...

9.  कोणतंही स्वातंत्र्य तोपर्यत खरे नसते, जोपर्यंत त्या विचाराचं स्वातंत्र्य प्राप्त होत नाही. सत्याच्या शोधात असताना कोणत्याही धार्मिक श्रद्धा किंवाछ राजकीय सिद्धांतांमध्ये बाधा आणू नये. 

10. धर्माविना एखादी व्यक्ती लगाम नसलेल्या घोड्याप्रमाणे असतो.
          🇮🇳 *जयहिंद* 🇮🇳

🙏 *विनम्र अभिवादन*🙏

          ♾♾♾ *75*छा ♾♾♾
          स्त्रोत ~ WikipediA                                                                                                                                                                                                                                                         ➖➖➖➖➖➖➖➖➖                                          
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हबीब उर रहमान लुधियानवी


        
      *हबीब उर रहमान लुधियानवी*  
               (स्वतंत्रता सेनानी)
पूरा नाम : हबीब उर रहमान लुधियानवी
          *जन्म : 3 जुलाई 1892*
          (लुधियाना, पंजाब)
          *मृत्यु : 2 सितंबर 1956*
अभिभावक : मौलाना शाह अब्दुल क़ादिर लुधियानवी (दादा)
पत्नी : बीबी शफ़तुनिसा
नागरिकता : भारतीय
प्रसिद्धि : भारतीय स्वतंत्रता सेनानी
विशेष योगदान : असेम्बली बमकाण्ड के बाद मौलाना हबीब उर रहमान लुधियानवी ने भगतसिंह के परिवार के सदस्यों को एक महीने तक आश्रय प्रदान किया।
अन्य जानकारी : हबीब उर रहमान लुधियानवी के पंडित नेहरू से तालुक़ात बहुत अच्छे रहे और आज़ादी बाद मुस्लिम दुनिया से भारत के अच्छे तालुक़ात के लिए उन्होंने बहुत मेहनत की। इसके लिए वह 1952 में साऊदी अरब भी गए।
हबीब उर रहमान लुधियानवी भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे। वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए और ख़िलाफ़त आन्दोलन व असहयोग आंदोलन में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। सन 1929 में जब ब्रिटिश अधिकारियों ने लुधियाना के घास मंडी चौक पर हिंदुओं और मुसलमानों के लिए अलग-अलग पानी के बर्तन का इस्तेमाल किया तो हबीब उर रहमान लुधियानवी ने हिंदू, मुस्लिम और सिक्ख कार्यकर्ताओं के सहयोग से इसे ख़त्म किया और एक पर्चा लगवाया ‘सबका पानी एक है’ जिसके लिए उन्हें जेल भेजा गया।

💁🏻‍♂️ *परिचय*
3 जुलाई, 1892 को पंजाब के लुधियाना में पैदा हुए हिन्दुस्तान की आज़ादी के अज़ीम रहनुमा मौलाना हबीब उर रहमान लुधियानवी ने ‘इस्लाम ख़तरे में है’ के नारे के पीछे छिपे हुए स्वार्थ का ख़ुलासा किया था। वो लुधियाना के मशहूर मौलाना शाह अब्दुल क़ादिर लुधियानवी के पोते थे, जिन्होंने 1857 में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ फ़तवा दिया था। दारुल उलूम देवबंद से अपनी तालीम मुकम्मल करने के बाद मौलाना हबीब-उर-रहमान लुधियानवी ने मौलाना अब्दुल अज़ीज़ की बेटी बीबी शफ़तुनिसा से विवाह किया। वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए और ख़िलाफ़त आन्दोलन व असहयोग आंदोलन में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया।

💥 *क्रांतिकारी गतिविधियाँ*
ख़िलाफ़त आन्दोलन और असहयोग आंदोलन के दौरान मौलाना हबीब उर रहमान लुधियानवी ने 1 दिसंबर, 1921 को अपने प्रेरक भाषण से लोगों को ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ विद्रोह के लिए उकसाया और पहली बार गिरफ़्तार किए गए। तब से उन्होंने कई बार कार कोठरी की यातनाओं का सामना किया और देश की विभिन्न जेलों में क़रीब 14 साल बिताए। उनके मित्रों और परिजनों को भी कारावास का सामना करना पड़ा, क्योंकि उन्होंने भी भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लिया था। उनकी पत्नी बीबी शफ़तुनिसा, जो स्वंय भी एक स्वतंत्रता सेनानी थीं, ने अपने परिवार पर ब्रिटिश पुलिस के द्वारा किए गए क्रूर दमन के बावजूद उन्हें समर्थन दिया।

♦️ *विशिष्ट कार्य*
जमियत-उलमा-ए-हिंद में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हबीब उर रहमान लुधियानवी ने 1929 में मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद की सलाह पर मजलिस-ए-अहरार (द सोसायटी ऑफ़ फ़्रीमेन) की स्थापना की। 1929 में भगतसिंह ने केंद्रीय सभा में बम फेंके, उसके बाद से कोई भी उनके परिवार के सदस्यों को शरण देने के लिए आगे नहीं आया था, क्योंकि लोगों को ब्रिटिश दमन का भय था। तब मौलाना हबीब उर रहमान लुधियानवी ने भगतसिंह के परिवार के सदस्यों को एक महीने तक आश्रय प्रदान किया। साथ ही उन्होंने नेताजी सुभाषचंद्र बोस की भी अपने घर पर मेहमान नवाज़ी की थी।

⛓️ *जेलयात्रा*
सन 1929 में जब ब्रिटिश अधिकारियों ने लुधियाना के घास मंडी चौक पर हिंदुओं और मुसलमानों के लिए अलग-अलग पानी के बर्तन का इस्तेमाल किया तो हबीब उर रहमान लुधियानवी ने हिंदू, मुस्लिम और सिक्ख कार्यकर्ताओं के सहयोग से इसे ख़त्म किया और एक पर्चा लगवाया ‘सबका पानी एक है’ जिसके लिए उन्हें जेल भेजा गया। उन्होंने 1931 में शाही जामा मस्जिद के पास लगभग तीन सौ ब्रिटिश अधिकारियों और पुलिस की उपस्थिति में भारतीय ध्वज को फहराया, जिसके लिए उन्हें गिरफ़्तार किया गया। भारत की आज़ादी की ख़ातिर मौलाना हबीब उर रहमान लुधियानवी ने शिमला, मैनवाली, धर्मशाला, मुल्तान, लुधियाना सहीत देश की विभिन्न जेलों में क़रीब 14 साल बिताए।

❌ *विभाजन का विरोध*
हबीब उर रहमान लुधियानवी अंत तक पाकिस्तान बनने का विरोध करते रहे; पर जब राष्ट्र को 1947 में विभाजित किया गया था तो उन्होंने शत्रुतापूर्ण माहौल के कारण अपने दोस्तों की सलाह पर लुधियाना छोड़ दिया और दिल्ली में शरणार्थी शिविरों में शरण ली। इससे लुधियानवी युगल को गंभीर मानसिक आघात हुआ हालांकि उन्हें पाकिस्तान जाने की सलाह दी गई थी, उन्होंने सलाह को अस्वीकार कर दिया और अपने मूल स्थान लुधियाना में रहने का सोचा और वहां भी उन्हें कटु अनुभव का सामना करना पड़ा। हबीब उर रहमान लुधियानवी के पंडित नेहरू से तालुक़ात बहुत अच्छे रहे और आज़ादी बाद मुस्लिम दुनिया से भारत के अच्छे तालुक़ात के लिए उन्होंने बहुत मेहनत की। इसके लिए वह 1952 में साऊदी अरब भी गए।

🪔 *मृत्यु*
2 सितम्बर, 1956 को अपने अंतिम क्षण तक देश और लोगों की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्धता के साथ लड़ते रहने वाले हबीब उर रहमान लुधियानवी का निधन हो गया। उन्हें पंडित नेहरू के निवेदन पर दिल्ली की जामा मस्जिद के पास मौजूद क़ब्रिस्तान में दफ़न किया गया।
           
        

पद्मभूषण ताराबाई मोडक


                    
     *बालशिक्षणाच्या अध्वर्यू* 
   *पद्मभूषण ताराबाई मोडक*

*जन्म: १९ एप्रिल १८९२*
             (इंदूर, भारत)
*मृत्यू: ३१ ऑगस्ट १९७३*
धर्म : हिंदू
वडील : सदाशिव पांडुरंग केळकर
आई : उमाबाई सदाशिव केळकर
पती : के. व्ही. मोडक

               ह्या एक मराठी भाषिक आणि 'भारतातील पहिल्या बालशिक्षणतज्ज्ञ होत्या. त्यांना भारताच्या 'मॉन्टेसरी’ म्हणतात.

🤱🏻 *जन्म आणि बालपण*
             ताराबाईंचा जन्म इंदूरचा आणि बालपणही तिथेच गेले. त्यांचे आई आणि वडील प्रार्थना समाजाचे अनुयायी होते.. त्यामुळे घरात प्रगत वातावरण होते. त्यांचे वडील सदाशिव पांडुरंग केळकर यांनी १९ व्या शतकात ठरवून विधवेशी पुनर्विवाह केला होता. प्रार्थना समाजाचे बळ त्यांच्या पाठीशी होते. अशा या आधुनिक वातावरणात ताराबाई वाढल्या.

💁  *चरित्र*
    केळकर कुटुंब कालांतराने इंदूर सोडून मुंबईला स्थायिक झाले. पण ताराबाई आणि त्यांच्या बहिणीची रवानगी पुण्याच्या हुजूरपागेत झाली (इ.स. १९०२). पुनर्विवाहित आईची मुलगी म्हणून समाजाकडून त्यांना प्रसंगी हेटाळणीही सहन करावी लागली. शाळेच्या वसतिगृहात त्यांना प्रवेश नाकारला गेला. पण ताराबाईंना आपल्या कौटुंबिक पार्श्वभूमीचा कायमच अभिमान वाटत राहिला. शाळेत असताना त्यांनी वाचनालयाच्या ग्रंथपालांकडे भास्कराचार्यांचे ’लीलावती’ आहे का अशी विचारणा केली होती. ग्रंथालयात ते पुस्तक नव्हते, पण ग्रंथपालबाईंना त्यावेळी या मुलीचे खूप कौतुक वाटले होते.
                 याच दरम्यान त्यांच्या वडिलांचे निधन झाले (१९०६) आणि ताराबाई पुणे सोडून मुंबईला आल्या. इथे त्या एका इंग्रजी माध्यमाच्या शाळेत (अलेक्झांड्रा गर्ल्स हायस्कूलमध्ये) जाऊ लागल्या. सुरुवातीला त्या शाळेत जायला ताराबाई नाराज होत्या. बूट घालण्यासारखे रिवाज त्यांना पसंत नव्हते. पण लवकरच त्या शाळेत रुळल्या आणि पाश्चात्य समाजाच्या संपर्कात आल्या. वातावरणातला हा बदल ताराबाईंना खूप शिकवून गेला. पण लवकरच त्यांच्या आईदेखील वारल्या (१९०८). आई आणि वडील या दोघांचाही आधार आता तुटला होता. आर्थिक चणचण दिवसेंदिवस वाढत होती. १९०९साली ताराबाई मॅट्रिक झाल्या.
            ताराबाई मो?  प्रथम मुंबईच्या एल्फिम्स्टन कॉलेजात आणि नंतर विल्सन कॉलेजात शिकू लागल्या. १९१४साली फिलॉसॉफी घेऊन बी.ए. झाल्या. १०१६साली त्या एम.ए.च्या परीक्षेला बसल्या, पण तीत पास होऊ शकल्या नाहीत.
            प्रार्थना समाजामुळे प्रगत विचार आणि जीवनमान ताराबाईंच्या अंगवळणी पडले होते. त्यांच्या या अभिरुचिसंपन्न जीवनशैलीनेच त्यांना प्रतिकूल परिस्थितीत जगण्याचे बळ दिले. एकीकडे शिस्तबद्ध अध्ययन चालू असतानाच त्यांनी विविध छंद जोपासले. टेनिस, बॅडमिंटन तर त्या उत्तम खेळतच पण विविध विषयांवर वैचारिक देवाणघेवाण करण्यात त्यांना विशेष रस होता.
            कॉलेजमध्ये असतानाच त्यांचा परिचय के.व्ही. मोडक यांच्याशी झाला. के.व्ही. हे एल्‍फिन्स्टन कॉलेजचे माजी प्राचार्य वामन मोडक यांचे चिरंजीव. मोडक कुटुंबही प्रार्थना समाजाशी बांधिलकी ठेवून होते. ताराबाई आणि के.व्ही. यांच्या ओळखीचे रूपांतर लवकरच प्रेमात झाले आणि पदवीधर झाल्यावर एका वर्षातच त्या के. व्ही. मोडकांशी विवाहबद्ध झाल्या. के.व्ही. त्या वेळी अमरावती मुक्कामी होते आणि तिथे एक निष्णात वकील म्हणून प्रसिद्ध होते. इ.स. १९१५ साली ताराबाई लग्न करून अमरावतीला आल्या, तेव्हा त्या तिथल्या पहिल्या स्त्री पदवीधर होत्या. के.व्ही. आणि ताराबाई यांचा संसार हा दोन आधुनिक, बुद्धिमान आणि प्रतिभावंतांचा संसार होता. अमरावतीच्या सामाजिक क्षेत्रात दोघांचाही दबदबा होता. सभा, संमेलनांतून उठबस होती. साहित्य, संगीत, नाटके, पाहुण्यांची सरबराई यात दिवस जात होते. याच दरम्यान त्यांच्या आयुष्याने एक वेगळीच कलाटणी घेतली.
            १९१५साली अमरावतीला मुलींसाठी सरकारी हायस्कूल सुरू झाले. तेथे १९१८पर्यंत ताराबाईंनी नोकरी केली. १९२०मध्ये त्यांना मुलगी झाली.
         पुढे काही कारणांनी त्यांचा संसार अपयशी ठरला, त्यांनी विभक्त होण्याचा आणि अमरावती सोडण्याचा निर्णय घेतला. हा निर्णय घेताना मनाचा आत्यंतिक खंबीरपणा त्यांनी दाखवला. ज्या काळात नवऱ्याचे घर सोडणाऱ्या स्त्रीला फक्त परित्यक्ता असेच संबोधले जायचे, त्या काळात ताराबईंनी स्वतंत्र संसार थाटला. सोबत एक वर्षाची कन्या-प्रभा-होती आणि पुढचे भविष्य अंधकारमय होते.
            पण ताराबाईंना स्वावलंबी होण्यासाठीची संधी लवकरच चालून आली (१९२१). राजकोटच्या बार्टन फीमेल ट्रेनिंग कॉलेजमध्ये त्यांना प्राचार्यपदासाठी बोलावणे आले. राजकोटची ही नोकरी उत्तम होती आणि त्यांच्यासाठी एक आव्हान होती. एकतर मुलुख गुजराती होता. त्यामुळे आधी शिकवणी लावून गुजराती शिकावी लागली. प्राचार्यपदाच्या कामात व्यवस्थापनाचा मोठा वाटा होता. त्यासाठी त्यांनी बडोदा, अहमदाबाद येथील ट्रेनिंग कॉलेजना भेट देऊन व्यवस्थापनाचे तंत्रही आत्मसात केले. ताराबाईंनी ही नोकरी जेमतेम दोन वर्षे केली. या वेळी त्यांची नोकरी सोडायला कारण होती त्यांची मुलगी प्रभा! तिच्या त्यांच्या मुलीच्या, प्रभाच्या भविष्याच्या चिंतेखातर, तिची कुचंबणा लक्षात घेऊन ताराबाईंनी राजकोटची नोकरी सोडली. कॉलेजात नोकरीत असताना ताराबाईंनी मानसशास्‍त्रावरील खूप पुस्तके वाचली.
                  याच काळात त्यांनी गिजुभाई बधेका यांच्या भावनगर येथील शिक्षणप्रयोगांविषयी वाचले आणि त्या सौराष्ट्रातील भावनगरला येऊन दाखल झाल्या. गिजुभाई भावनगरमधील ‘दक्षिणामूर्ती’ या संस्थेत मॉन्टेसरी शिक्षणपद्धती नुसार बालशिक्षणात प्रयोग करत होते. त्यांनाही त्यांच्या या कार्यात सहकारी हवाच होता आणि ताराबाईंच्या रूपाने तो मिळाला. ताराबाई स्वत: उच्चशिक्षित, शिकवण्याची कला आणि आवड असलेल्या आणि सर्वांत महत्त्वाचे म्हणजे एखादी गोष्ट स्वीकारली की, तडीस नेण्यासाठी झोकून देणाऱ्या होत्या.
          गिजुभाई आणि ताराबाईंची भेट ऐतिहासिक होती. भारतातल्या बालशिक्षणाची ती नांदी होती. दोघांनी मिळून बालशिक्षणाला मूर्तरूप देण्याचा प्रयत्न केला. ज्या काळात खुद्द शिक्षणालाच फारसे महत्त्व नव्हते आणि प्राथमिक शिक्षण ६ व्याt वर्षापासून सुरू होत होते, त्या काळात बालशिक्षणाचे महत्त्व लोकांना पटवून देणे हा ‘वेडेपणा’ होता. समाजाची ही मानसिकता ताराबाई ओळखून होत्या. त्यामुळे लोकांपर्यंत जायचे तर आपल्या म्हणण्याला शास्त्रीय बैठक असायला हवी हे त्या जाणून होत्या. म्हणूनच ताराबाई आणि गिजुभाईंनी शास्त्राचा आधार असणाऱ्या मॉन्टेसरी शिक्षणपद्धतीचा अभ्यास करून त्यांना भारतीय रूप देण्याचा प्रयत्न केला. तरीही त्यांच्या या प्रयत्नाकडे निव्वळ ‘फॅड’ म्हणून बघणाऱ्यांची संख्या कमी नव्हती. आज बालशिक्षण एक शास्त्र म्हणून उदयाला आले आहे. पण त्याचे बीजारोपण करण्याचे काम गिजुभाईंबरोबर ताराबाईंनी केले. गिजुभाईंना त्यामुळेच ताराबाई गुरुस्थानी मानत आल्या. त्यांच्याकडूनच त्यांनी बालशिक्षणाची संथा घेतली. त्यांच्या प्रत्येक प्रयोगात मनापासून सामील झाल्या.
        भावनगरमधील वास्तव्याने त्यांच्यातील लेखिकेलाही आकार दिला. १९२६ साली नूतन बालशिक्षण संघाची (मॉन्टेसरी संघाची) स्थापना झाली आणि त्याच्यातर्फे ‘शिक्षणपत्रिका’ हे मासिक प्रकाशित होऊ लागले. या नियतकालिकाचे संपादन ताराबाईंनी केले. या मासिकाची हिंदी आणि मराठी आवृत्ती ताराबाईंच्या बळावरच उभी राहिली. इथे असतानाच ताराबाईंनी शंभरच्यावर पुस्तकांचे संपादन केले, काहींचे लेखन केले, बालशिक्षणाच्या प्रसारासाठी मॉन्टेसरी संमेलने भरवली आणि बालशिक्षण हे त्यांचे कार्यक्षेत्रच बनून गेले. ताराबाई भावनगर विषयी म्हणतात, ‘तेथेच मला माझे गुरू, जीवनदिशा आणि जीवनकार्य गवसले’.
          ताराबाई भावनगरला ९ वर्षे होत्या. या काळात त्यांनी फक्त मॉन्टेसोरींच्या तत्त्वांचा अभ्यासच केवळ केला असे नाही, तर ती प्रत्यक्षात आणण्यासाठी भारतीय संदर्भानुसार त्यांत बरेच बदल केले. आपल्याकडे शिक्षणाला पावित्र्याची किनार आहे. याचा विचार करून बालघरांचे रूपांतर बालमंदिरांत केले. बालशिक्षणात भारतीय नृत्यप्रकार, कलाप्रकार, लोकगीते आणि अभिजात संगीत यांचाही समावेश केला. माँटेसोरी तत्त्व बालकांच्या विकासाबरोबरच त्यांच्या स्वातंत्र्याला प्राधान्य देते. ताराबाई प्रयोग करत असलेला काळ गांधीयुगाचा म्हणजे पर्यायाने स्वातंत्र्ययुद्धाचा होता. त्यामुळे व्यक्तिस्वातंत्र्याला, बालस्वातंत्र्याला विशेष अर्थ होता. ताराबाईंनी या सर्व विचारांचा, संकल्पनांचा मेळ आपल्या बालशिक्षणात साधला.
      बालशिक्षणात प्रयोग आणि त्याचा प्रसार करत असतानाच ताराबाईंनी शिक्षकांचे प्रशिक्षण हाती घेतले. त्यापाठोपाठ बालशिक्षण तळागाळापर्यंत जाण्यासाठी पालक आणि शासन यांच्या प्रबोधनाचे कामही केले. इतके सगळे करूनही त्यांना आता ध्यास लागला होता तो खेड्यातील बालशिक्षणाचा!
       खेड्यांमध्ये बालशिक्षणाचा प्रसार करायचा असेल, तर त्यासाठी स्वस्त साधने हवीत, शिवाय स्थानिक पातळीवरही सहज उपलब्ध होतील किंवा बनवून घेता येतील अशीही हवीत. गिजुभाईंनी जेव्हा बालशिक्षण आजूबाजूच्या खेड्यातून नेण्याचा विचार केला, तेव्हा अशी साधने बनवण्याची जबाबदारी ताराबाईंवर सोपवली. हेच खेड्यातील बालशिक्षणाचे धडे ताराबाईंना पुढे कोसबाडला उपयोगी पडले.

🏢 *शाळा*
                पुढील काळात मुंबईला आल्यावर त्यांनी दादरला आपल्या कल्पनांवर आधारित असे शिशुविहार सुरू केले. इथे येऊन त्यांना आपल्या बालशिक्षणाचा पुन्हा श्रीगणेशा करावा लागला. कारण तोपर्यंत बालशिक्षण आणि ताराबाई दोन्हीही महाराष्ट्राला नवखे होते. शिशुविहारची स्थापना त्यांनी इ.स. १९३६ मध्ये केली आणि जसजशा या बालशाळा वाढत जातील, तसतसा त्यांना आवश्यक असणारा प्रशिक्षित शिक्षकवर्गही लागणार या विचाराने शिशुविहारमध्येच त्यांनी बाल अध्यापक विद्यालयाची मंदिराची स्थापना केली. शिशुविहार आणि बालअध्यापक विद्यालय यांचे पुढच्या दहा वर्षांचे नियोजनही त्यांनी व्यवस्थित करून ठेवले. पुढे पुन्हा खेड्यात जाऊन पूर्णवेळ बालशिक्षणाला वाहून घेण्याची भावना मूळ धरू लागली. त्यासाठी त्या ठाणे जिल्ह्यातील बोर्डीला वास्तव्यास आल्या. या वेळी त्यांच्याबरोबर त्यांच्या शिष्या अनुताई वाघ होत्या. बोर्डीला आल्या तेव्हा ताराबाईंच्या आयुष्याची मध्यान्ह केव्हाच उलटून गेली होती आणि बालशिक्षणातही त्या मुरल्या होत्या. अनुताईंचीमात्र ही सुरुवात होती.
         इ.स. १९४५ मध्ये बोर्डीला आल्यावर ताराबाईंनी आपले पूर्ण लक्ष बालशिक्षणावर एकवटले. आता त्यांना त्यांच्या प्रयोगांना ग्रामीण संदर्भांचे परिमाणही द्यायचे होते. कालांतराने कोसबाडला आल्यावर त्यांच्या प्रयोगांना आदिवासींच्या संदर्भांचे परिमाणही मिळाले आणि साऱ्या देशात एकमेव ठरावी अशी सर्वव्यापी बालशिक्षणाची पद्धत अस्तित्वात आली. बोर्डी आणि कोसबाड इथल्या आपल्या अठ्ठावीस वर्षांच्या वास्तव्यात ताराबाईंच्या नेतृत्वाखाली आदिवासींच्या शिक्षणाचा डोलारा कसा उभा राहिला हा इतिहास ग्रंथबद्ध आहे. गिजुभाईंना जशा त्यांच्या आदर्श सहकारी म्हणून ताराबाई मिळाल्या तशाच ताराबाईंना गुरुस्थानी मानून त्यांच्या प्रत्येक प्रयोगात सर्वस्व ओतून काम करणाऱ्या अनुताई मिळाल्या. या दोघींनी हरिजन वाड्यापासून सुरू केलेला प्रवास कुरणशाळा, घंटाशाळा, अंगणवाडी असा होत शेवटी आदिवासी समाजात शिक्षण प्रसार आणि रोजगारनिर्मिती करण्यापर्यंत झाला.

🏅 *पुरस्कार*
           ताराबाईंचे हे योगदान केंद्र सरकारच्या नजरेतूनही सुटले नाही आणि त्यांनी ताराबाईंना इ.स. १९६२ साली ‘पद्मभूषण’ हा प्रतिष्ठेचा नागरी सन्मान बहाल केला
          शिक्षणतज्ज्ञ या नात्याने ताराबाईंनी अनेक पदे भूषवली. त्यांना अनेक मान-सन्मान मिळाले. गिजुभाईंच्या निधनानंतर इ.स. १९३९ पासून नूतन बालशिक्षण संघाची धुरा त्यांच्याचकडे होती. इ.स. १९४६-इ.स. १९५१ अशी पाच वर्षे त्या तत्कालीन मुंबई राज्याच्या विधानसभा सदस्या होत्या. याच राज्यात प्राथमिक शाळा पाठ्यपुस्तक समितीवर त्यांनी अनेक वर्षं काम केले. अखिल भारतीय बालशिक्षण विभागाच्या त्या दोन वेळा अध्यक्षा होत्या. इतर अनेक राज्ये आणि केंद्र सरकारच्या शिक्षण समितीवर त्यांची नेमणूक झाली होती. महात्मा गांधींनी आपल्या बुनियादी शिक्षण पद्धतीचा आराखडा तयार करण्याचे काम त्यांच्याकडे सोपवले होते. १९४९ मध्ये इटलीतील आंतरराष्ट्रीय दादरला परिषदेत भाषण करण्याची संधी त्यांना मिळाली होती.

🪔 *निधन*
               ताराबाईंच्या आयुष्याची चित्तरकथा जितकी विलक्षण आहे, तितकीच ती त्यांच्याविषयीचा आदर दुणावणारी आहे. पावलोपावली भिडणारी प्रतिकूल परिस्थिती त्यांनी संकट म्हणून न स्वीकारता संधी म्हणून स्वीकारली आणि निव्वळ मार्गच काढला नाही, तर त्यातून सुंदर संकल्पना घडवल्या. वैयक्तिक होरपळीचे प्रतिबिंब ना कधी त्यांच्या स्वभावावर, ना व्यक्तिमत्त्वावर आणि ना कधी त्यांच्या कार्यावर पडले.
           ताराबाईंची कर्मभूमी ठाणे जिल्ह्यातली असली, तरी त्यांच्या कार्याने फक्त तेवढ्याच भागाला फायदा झाला नाही, तर त्यांचे कार्य खेड्यातील आणि आदिवासी भागातील बालशिक्षण तंत्राचे एक देशव्यापी ‘मॉडेल’ बनले. पद्मभूषण ताराबाई मोडक यांचे ऑगस्ट ३१ इ.स. १९७३ ला मुंबईत निधन झाले.

🏩 *दादरचे शिशुविहार*
इ.स. १९३६ मध्ये पद्मभूषण ताराबाई मोडक यांनी मुंबईत दादरला शिशुविहार ही संस्था स्थापन केली. महाराष्ट्रातील हे पहिले आदर्श बालमंदिर! आज या संस्थेत मराठी व गुजराती या दोन माध्यमांमधून अध्यापक विद्यालय, अभिनव प्राथमिक (विभाग) शाळा, माध्यमिक विद्यामंदिर, सरलाताई देवधर पूर्व प्राथमिक शिक्षक प्रशिक्षण केंद्र असे विभाग चालतात.
             ' बालदेवो भव ' हे शाळेच ब्रीदवाक्यच आहे. प्रवेशाच्या वेळेस मुलांची मुलाखत घेतली जात नाही. मुले शाळेत रुळेपर्यंत, शाळेचा व शिक्षकांचा परिचय होईपर्यंत पालकांना आठवडाभर मुलांबरोबर बसण्यास मुभा देण्यात येते. मुलांना डबा, पाटीदप्तर, वॉटर बॅग यांचे ओझे आणावे लागत नाही.
                 शाळेच्या इमारतीची रचनाही मुलांचा विचार करूनच केली आहे. प्रत्येक विद्यार्थ्याला मोकळेपणाने फिरता येईल असे मोठे वर्ग आहेत. प्रत्येक वर्गात ३० मुलांसाठी एक प्रशिक्षित, प्रेमळ व मुलांचे मन जाणणारी शिक्षिका आहे. त्यामुळे प्रत्येक मुलाकडे वैयक्तिक लक्ष देता येते. आनंदायी वातावरणात खेळाद्वारे मुले येथे हसत खेळत शिक्षण घेत असतात. त्यांना शाळेचीही गोडी वाटू लागते. ती चटकन् रमतात.
               शरीर तंदुरुस्त तर मन तंदुरस्त हे लक्षात घेऊन मुलांची शारीरिक वाढ योग्य संतुलित होण्यासाठी वातावरणात मुलांच्या वयानुसार योग्य उंचीची झोपाळा, घसरगुंडी, जंगलजीम, डबलबार, सीसॉ इत्यादी साधने आहेत. मुलांना रोज निराळा सकस पौष्टिक आहार दिला जातो.
            लहान मुलांचा आवडीचा खेळ म्हणजे भातुकली. मुलांच्या भावनिक विकासात त्याचे असलेले महत्त्व लक्षात घेऊन बाहुलीघराची योजना आहे. त्यासाठी मुलांच्या उंचीचेच खास कपाट बनवले आहे. वाळूच्या हौदात खेळताना लाडू, डोंगर, बोगदा, किल्ला करतात. येथे वाळू स्वच्छ राहील याची काळजी घेतली जाते.
        मुले अनुकरणप्रिय असतात. त्यांना भाजी चिरणे, किसणे, निवडणे, कुटणे, पीठ चाळणे, दळणे अशी कामे करायला हवी असतात. त्यांच्या वयाचा व शारीरिक कुवतीचा विचार करून लहानसे जाते, खलबत्ता, चाळणी, कमी धारेची सुरी असे देऊन ती कामे करायला देता येतात. आजपर्यंत एकाही मुलाला अशी कामे करताना इजा झालेली नाही. या साधनांवर खेळत असताना स्वच्छता, नीटनेटकेपणा, टापटीप शिकवता येते. मुले स्वावलंबी व्हावी म्हणून नाडी घालणे, बटणे लावणे, वेणी घालणे, पावडर लावणे इ. व्यवसाय दिले जातात.
      कोणतेही ज्ञान ग्रहण करायचे तर त्यासाठी ज्ञानेंदियांचा विकास होणे आवश्यक आहे. त्यासाठी रंग, वास, चव, आकार, स्पर्श, आवाज या संवेदनांसाठी निरनिराळी साधने आहेत. कै. ताराबाई मोडक व शिक्षणतज्ज्ञ कै. शेष नामले यांनी मॅडम मॉन्टेसरीच्या साधनांवर आधारित भारतातील सामाजिक व आर्थिक परिस्थितीला अनुसरून साधनांची निर्मिती केली. प्रत्यक्ष फळे, फुले, धान्य, कागद, कापड, विविध रंगांच्या बाटल्या, खोकी इत्यादींचा उपयोग करून रंग, आकार, वास, चव यासाठी वेळोवेळी नावीन्यपूर्ण साधने बनवून आजचे शिक्षकही त्यात भर घालीत आहेत. बालमंदिरातल्या विविध साधनांवरील खेळांमधून बालकांचा बौद्धिक विकास योजनापूर्वक विकसित केला जातो.
               आजच्या आधुनिक काळाशी सुसंगत अशी साधने देऊन मुलांच्या जिज्ञासावृत्तीला खतपाणी घातले जाते. भिंगातून किड्याचे निरीक्षण करणे, लोहचुंबक विविध वस्तूंना लावून पहाणे, साबणाचे फुगे उडवणे इ. खेळून प्रत्यक्ष अनुभव घेतात. वर्गात कोणत्या साधनांवर खेळायचे याचे मुलांना स्वातंत्र्य असते. जोडीदाराबरोबर सहकाराने खेळणे, इतर मुले खेळत असताना पहाणे इ. क्रिया करताना मुलांमध्ये स्वयंशिस्त येते, संयमाची जाणीव येते व सामाजिकतेची जबाबदारी समजते.
   मुलांना श्रवण, भाषण-संभाषण ही कौशल्ये येण्यासाठी आमच्या शिशू विहारमध्ये रोजच बडबडगीते, बालगीते, समरगीते, भजन इ. गाण्याचे प्रकार ऐकवले जातात. मनोरंजन व भावनिक विकासाबरोबरच मानसिक आरोग्य तंदुरुस्त रहाण्यासाठी याची नितांत आवश्यकता आहे. अनौपचारिक गप्पा, सण व भोवती घडणार्‍या घटनांवर गप्पागोष्टी करणे, सहल, नाट्य, बाहुलीनाट्य असे अपक्रम घेतले जातात. गप्पा मारणे हे तर मुलांच्या आवडीचेच. त्यातूनच आपले विचार योग्य शब्दात मांडणे , सुसंगत बोलणे मुले शिकतात.
                मुलांबरोबर गप्पागोष्टी करणे ही बालशिक्षणाने प्राथमिक शिक्षणाला दिलेली देणगी आहे. प्राथमिक शिक्षणातील परिपाठात याचा उपयोग करून घेतला जातो. प्राणी, पक्षी, वाहने, फळे, फुले, भाज्या, वनस्पतींचे अवयव, फळांचे भाग, ब्रश, पूजेचे सामान, वाद्ये इ.चा परिचय-पाठ देताना प्रत्येक वस्तु दाखवून ओळख दिल्यामुळे ते ज्ञान कायम टिकते. तसेच शब्दांचे अर्थ समजतात, शब्दसंग्रह वाढतो. वर्णन करून गोष्ट सांगणे, चित्रांच्या मदतीने गोष्ट सांगणे, चित्रावरून गोष्ट तयार करणे असे विविध उपक्रम घेतले जातात. पाच वर्षांची मुले चित्रावरून गोष्ट तयार करू शकतात. मुलांना व्याकरणशुद्ध बोलता यावे म्हणून व्याकरणावरील मौखिक खेळ घेतले जातात. एकवचन-अनेकवचन, विशेषण, क्रियाविशेषण, शब्दयोगी अव्यय, उभयान्वयी अव्यय वगैरे मौखिक खेळ खेळाच्या स्वरूपात घेतले जातात. या खेळांसाठी मुलांच्या दैनंदिन परिचयाच्या वस्तूंचा उपयोग केला जातो.
              अक्षरओळख देण्यापूर्वी चित्र किंवा वस्तूमधील साम्य ओळखणे, भेद ओळखणे, काय कमी आहे, काय चूक आहे यासारखे खेळ दिले जातात. त्यामुळे अक्षरे शिकताना अक्षरांमधील सूक्ष्म फरक मुले ओळखतात. अक्षरे शिकता शिकता ती केव्हा वाचायला लागतात हे कळतही नाही. लेखनासाठी बोटाच्या स्नायूंचा विकास व्हावा म्हणून मातीकाम, चित्र रंगवणे, ठसेकाम, चित्रे काढणे इ. खेळ दिले जातात. वाचनासाठी, लेखनासाठी आवश्यक पूर्वतयारी झाली, तर लिहायला वाचायला फारसा वेळ लागत नाही. त्यासाठीची पूर्वतयारीच तर बालमंदिरात या प्रत्येक खेळातून, व्यवहारातून व उपक्रमातून केली जाते.
                     भारतीय संस्कृती जपण्यासाठी सर्वधर्मसमभावाने मुलांच्या सहभागाने निरनिराळे सण साजरे केले जातात. मुलांमध्ये राष्ट्रीय भावना जोपासणे फार महत्त्वाचे! त्यासाठी राष्ट्रीय सण, उत्सव, पुढाऱ्यांचे स्मृतिदिन, राष्ट्रध्वजाचे महत्त्व इत्यादी उपक्रम घेतले जातात.
            दिवाळीपूर्वी मुलांकडून भेटकार्ड तयार करून घेऊन पोस्टऑफिस हे ठिकाण प्रसारासाठी निवडले जाते. प्रत्येकाला आपले कार्ड पोस्टात टाकण्यास मिळते. त्याच वेळेस पोस्टाचाही परिचय दिला जातो. तिथे चाललेली कामे दाखवली जातात. तसेच पेट्रोल पंप, भाजी बाजार, धोबी, इस्त्रीवाला वगैरे ठिकाणी प्रत्यक्ष मुलांना नेऊन ती कामे दाखवली जातात. वर्षअखेरीस साडेचार वर्षांवरील मुलांचे एक दिवसीय निवासी शिबीर घेतले जाते. आकाशदर्शन, शेकोटी, शेकोटीची प्रतिज्ञा, त्याच्याभोवती फेर धरून गाणी म्हणणे, दुसऱ्या दिवशी सकाळी सहल अशी कार्यक्रमांची आखणी केली जाते.
            या शिबिरात संघवृत्ती, खिलाडूवृत्ती, स्वयंशिस्त, स्वावलंबन, जबाबदारीची जाणीव आदि गुणांचा विकास होतो. शारीरिक स्वच्छता, परिसर स्वच्छता यासंबंधीचे प्रात्यक्षिक मुलांना पहायला मिळते. एका वर्षीच्या सहलीत मुलांना गवतावर पडलेले दव पहायला मिळाले. दवाचा आकार, ओलावा, त्याची चमचम असा चित्तथरारक अनुभव मुलांनी घेतला. मित्रांच्या सहवासात अधिक काळ राहायला मिळाल्यामुळे मुले खुश असतात.
              शिशुविहार म्हणजे एक घर आहे. येथे शिक्षक, शिपाई व मुले यांच्यात प्रेमाचे, आपुलकीचे नाते निर्माण झालेले असते. एकदा एक मुलगा रडत असताना त्याने शांत राहावे म्हणून 'तू सारखा रडत असल्याने माझा कान दुखतो,' असे ताईंनी सांगितले. त्यांच्या अवतीभोवती असणाऱ्या एका विद्याथिर्नीने ते ऐकले. दुसऱ्या दिवशी शाळेला निघताना तिने आईजवळ तेलाची बाटली दे, असा हट्ट धरला. आईलाही काही कळेना. मुलीच्या आग्रहाखातर त्या तेलाची बाटली घेऊन आल्या.
            शिशुविहारामध्ये दोन नावीन्यपूर्ण उपक्रम राबवले जातात. मुलांना लहानपणापासून बचतीची सवय लागावी , यासाठी शिशु-बँकेची योजना आहे. ही ऐच्छिक असते. मुलांचे बचत खाते असते. त्यांना पासबुक दिले जाते. मुले आपल्याला मिळणारे बक्षिसाचे पैसे, खाऊचे पैसे त्यात जमा करतात. मुलांनी जमा केलेल्या पैशांवर रीतसर व्याज दिले जाते. हे खाते केव्हाही बंद करण्याची मुभा मुलांना असते. पण जी मुले १० वीपर्यंत यात पैसे साठवतात, त्यांना शाळा सोडून जाताना कॉलेजला जाण्यासाठी आवश्यक असलेल्या फीसाठी एकरकमी हे पैसे मिळू शकतात. कित्येक मुलांनी आजपर्यंत या आमच्या सोयीचा फायदा करून घेतला आहे.
          दुसरा उपक्रम म्हणजे पालकांसाठी. या बालमंदिरात तळागाळातील मुलेही प्रवेश घेतात. त्यातल्या कित्येक मुलांचे पालक निरक्षर असतात. त्यांच्यासाठी बालमंदिरातील शिक्षकांनी साक्षरतेचा वर्ग सुरू करून आपली पालकांची आणि समाजाची असलेली बांधिलकी सिद्ध केली आहे.
📝 *लेखन*

नदीची गोष्ट
बालकांचा हट्ट
बालविकास व शिस्त
बिचारी बालके
सवाई विक्रम

🎯  *चरित्र*

सौ. ललितकला शुक्ल यांनी ताराबाई मोडक यांचे चरित्र लिहिले आहे; ते ललितकला प्रकाशनने प्रसिद्ध केले आहे.
       🇮🇳 *जयहिंद* 🇮🇳 
🙏🌹  *विनम्र अभिवादन* 🙏🌷
                 
          ♾♾♾ *71* ♾♾♾
          स्त्रोत ~ WikipediA                                                                                                                                                                                                                                                         ➖➖➖➖➖➖➖➖➖                                          
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भारतरत्न प्रणव मुखर्जी

            

           *भारतरत्न  प्रणव मुखर्जी*
           (भारताचे १३वे राष्ट्रपती)
         *जन्म : ११ डिसेंबर १९३५*
               (वय : ८५)
          (वीरभूम जिल्हा, ब्रिटीश भारत)  
               (आजचा पश्चिम बंगाल)
           *मृत्यू : ३१ ऑगस्ट २०२०*
                (नवी दिल्ली)
राजकीय पक्ष : भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस (१९८६ पूर्वी, १९८९ - चालू), राष्ट्रीय समाजवादी काँग्रेस (१९८६ - १९८९)
मागील : इतर राजकीय पक्ष
संयुक्त पुरोगामी आघाडी (२००४ - चालू)
*भारताचे १३वे राष्ट्रपती कार्यकाळ*
२५ जुलै २०१२ – २५ जुलै २०१७
पंतप्रधान - मनमोहन सिंग
मागील - प्रतिभा पाटील
पुढील - रामनाथ कोविंद
*भारताचे अर्थमंत्री कार्यकाळ*
२४ जानेवारी २००९ – २६ जून २०१२
पंतप्रधान - मनमोहन सिंग
मागील - मनमोहन सिंग
पुढील - मनमोहन सिंग
           *कार्यकाळ*
१५ जानेवारी १९८२ – ३१ डिसेंबर १९८४
पंतप्रधान - इंदिरा गांधी, राजीव गांधी
मागील - रामस्वामी वेंकटरमण
पुढील - विश्वनाथ प्रताप सिंग
*भारताचे परराष्ट्रमंत्री कार्यकाळ*
१० फेब्रुवारी १९९५ – १६ मे १९९६
पंतप्रधान - नरसिंह राव
मागील - दिनेश सिंग
पुढील - अटल बिहारी वाजपेयी
*भारताचे संरक्षणमंत्री कार्यकाळ*
२२ मे २००४ – २६ ऑक्टोबर २००६
पंतप्रधान - मनमोहन सिंग
मागील - जॉर्ज फर्नान्डिस
पुढील - ए.के. ॲंटनी
             प्रणव मुखर्जी हे  भारतीय प्रजासत्ताकाचे १३वे राष्ट्रपती होते. राष्ट्रीय राजकारणात इ.स. १९६९ पासून सक्रिय असणारे मुखर्जी ह्यापूर्वी अनेक भारतीय केंद्र शासनांमध्ये कॅबिनेट मंत्री होते. राष्ट्रपतीपदाच्या निवडणुकीस उभे राहण्याअगोदर यांनी काँग्रेस पक्षामधून राजीनामा दिला.  भारतीय राजकारणामधील अमूल्य सेवेसाठी त्यांना भारत सरकारने इ.स. २००८ साली पद्मविभूषण पुरस्कार दिला. भारत सरकारने ८ ऑगस्ट २०१९ रोजी त्यांना राष्ट्रपती रामनाथ कोविंद यांच्या हस्ते भारतरत्न पुरस्कार प्रदान केला.                                            💁🏻‍♂️ *जन्म*
भारताचे तेरावे राष्ट्रपती प्रणव मुखर्जी यांचा जन्म पश्चिम बंगाल मधील वीरभूम जिल्ह्यातील मीराती गावामध्ये बंगाली कुळाच्या परिवारात झाला. ११ डिसेंबर १९३५ अशी प्रणव मुखर्जी यांची जन्मतारीख आहे. प्रणव मुखर्जी यांच्या घरामध्ये राजनैतिक माहोल होता. त्यांचे वडील कामदा किंकर मुखर्जी देखील राजकारणात होते. ते बंगालच्या विधानसभेत एक सदस्य म्हणून कार्यरत होते. ते ब्रिटिशांविरुद्ध लढा देत होते त्यासाठी त्यांना दहा वर्षाची सजा देखील झाली होती.
             त्यांचे वडील १९२० मध्ये काँग्रेस मध्ये कार्यरत होते. त्यांची आई देखील एका गृहिणी सोबतच एक भारतीय स्वतंत्रता सैनिक होत्या. त्यामुळे प्रणव यांना लहानपणापासूनच राजकारणाचे बाळकडू पाजले गेले. आई-वडिलांच राजकारणात असल्यामुळे कदाचित प्रणव मुखर्जी यांना देखील राजकारणात जाण्याची आवड निर्माण झाली असावी.

📙 *शिक्षण*
         प्रणव मुखर्जी यांचे प्राथमिक शिक्षण त्यांच्याजवळील स्थानिक विद्यालयातूनच पार पडले. परंतु पुढचं शिक्षण प्रणव जी यांनी वीरभूमी येथील सुरी महाविद्यालय कॉलेज येथून पूर्ण केलं. त्यांनी इतिहास आणि राज्यशास्त्र मध्ये उच्च पदवी देखील मिळवली. प्रणव मुखर्जी यांनी वकिलीचा अभ्यास अध्ययन करण्यासाठी कोलकत्ता इथे प्रवेश केला. त्याच्या पुढचं शिक्षण देखील त्यांनी कोलकाता युनिव्हर्सिटी मधूनच पूर्ण केलं.

💁🏻‍♂️ *वैयक्तिक आयुष्य*
             प्रणव मुखर्जी यांचा जन्म एका राजकीय घराण्यात झाला. लहानपणापासूनच त्यांचे आई-वडील त्यांना राजकारणाचे धडे द्यायचे त्यामुळे लहानपणापासूनच मुखर्जी यांच्या मनामध्ये राजकारणाविषयी आवड निर्माण झाली असावी. राजकारणात जाण्यासाठी गरजेचे असलेले शिक्षण देखील प्रणव मुखर्जी यांनी घेतलं पुढे त्यांनी वकील आणि महाविद्यालयाचे प्राध्यापक म्हणून काम करायचे.
                     त्यांची सुरुवात एक प्राध्यापक म्हणून झाली आणि पुढे जाऊन ते पत्रकार क्षेत्रात आले. प्रणव मुखर्जी यांना मानद डिलीट ही पदवी देखील मिळाली आहे. राजकारणात येण्याआधी प्रणव मुखर्जी पोस्ट अँड टेलिग्राफ या ऑफिस मध्ये एक क्लर्क च्या पदवी वर होते. १९६३ मध्ये विद्यानगर कॉलेजमध्ये ते राजनीती-शास्त्राचे प्रोफेसर बनून मुलांची शिकवणी घ्यायचे.
                 इतकेच नव्हे तर त्यांनी बांगला प्रकाशन संस्थान देशर डाक या ठिकाणीही काम केले आहे. २१ जुलै १९५७ मध्ये प्रणव मुखर्जी २२ वर्षांचे असताना त्यांचा विवाह सोहळा शुभ्र मुखर्जींशी पार पडला. या दोघांना दोन मुले आणि एक मुलगी देखील झाली.

🔰 *राजकीय आयुष्य*
         प्रणव मुखर्जी यांचे राजकीय आयुष्य १९६९ मधे सुरू झालं. त्यावेळी त्यांनी काँग्रेसचे तिकीट मिळवून राज्यसभेचे सदस्य बनले. त्यांनी खूप मेहनत करून चार वेळा हे पद मिळवलं. त्यांची कामगिरी बघून इंदिरा गांधींच्या डोळ्यांमध्ये त्यांच्याबद्दल आदर वाढत गेला. १९७३ मध्ये प्रणव जी औद्योगिक विकासामध्ये उपमंत्री होते.
                  पुढील वर्षी ऑक्टोबर महिन्यापर्यंत त्यांनी उप मंत्री बनून नौकावाहन आणि परिवहन ही दोन खाती सांभाळली. १९७४ मध्ये ऑक्टोबर महिन्यापासून ते डिसेंबर महिन्यापर्यंत ते अर्थ राज्यमंत्री होते. १९७५ – १९७७ या काळामध्ये झालेल्या आपत्कालीन परिस्थितीमध्ये प्रणव मुखर्जी यांच्या वरती काही आरोप लावण्यात आले त्यावरून वादविवाद चालू होते.

परंतु इंदिरा गांधींचे प्रणव मुखर्जी यांच्याशी संबंध चांगले असल्यामुळे इंदिरा गांधी यांची यांची सत्ता आल्यावर प्रणव मुखर्जी या सगळ्या वादातून अगदी सुखरूपपणे बाहेर पडले. इंदिरा गांधी जेव्हा प्रधानमंत्री होत्या त्यावेळी सन १९८२ – १९८४ मध्ये प्रणव मुखर्जी वित्त मंत्री होते. १९७५-१९७७ या दोन वर्षांच्या काळामध्ये ते महसूल आणि बँकिंग मंत्री देखील होते.

१९८०-१९८२ मध्ये ते कॅबिनेट मंत्री झाले.‌ इंदिरा गांधींच्या मृत्यूनंतर राजीव गांधी यांच्यासोबत काही मतभेद झाले त्यानंतर प्रणव मुखर्जी हे वेगळे झाले. १९८५ मध्ये प्रणव मुखर्जी पश्चिम बंगाल काँग्रेस समितीचे अध्यक्ष पदावर होते. प्रणव मुखर्जी यांच्या राजकीय कारकिर्दीमध्ये पी व्ही नरसिम्हा राव यांची खूप साथ प्रणव मुखर्जी यांना मिळाली.

            पी व्ही नरसिंह राव यांच्या पंतप्रधान कार्य काळामध्ये त्यांनी प्रणव मुखर्जी यांना योजना आयोग प्रमुख बनवलं होतं थोड्याच दिवसांनी त्यांना केंद्रीय कॅबिनेट मंत्री आणि विदेश मंत्रालय देखील सांभाळायला दिलं. १९७९ मध्ये प्रणव मुखर्जी भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेसचे राज्यसभेतील उपनेते होते. १९८० मध्ये राज्यसभा सभागृहनेते.

१९८६ मध्ये त्यांनी पश्चिम बंगालमध्ये राष्ट्रीय समाजवादी काँग्रेस पक्षाची स्थापना केली. १९९५-१९९६ मध्ये त्यांच्याकडे परराष्ट्र मंत्रीपद आलं.१९८९-१९९० पश्चिम बंगालमध्ये भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस समितीचे जनरल सेक्रेटरी होते.२००१-२०१० पश्चिम बंगालचे काँग्रेस अध्यक्ष होते. आणि २०१२-२०१७ आपल्या भारताचे १३ वे‌ राष्ट्रपती म्हणून कार्यरत होते.

⚜️ *प्रणब मुखर्जी कधी पासून राष्ट्रपति आहेत*
प्रणव मुखर्जी यांच्या सारख थोर व्यक्तिमत्व भारताचे राष्ट्रपती होते ही गोष्ट खूपच गर्व वाटावी अशी आहे. प्रणव मुखर्जी यांना त्यांच्या राजकीय आयुष्यामध्ये फार चढ आणि उतार मिळाले त्यांनी त्यांच्या आयुष्यातील चाळीस वर्ष भारतासाठी एक राजकीय नेता म्हणून अर्पण केली. आणि त्याच प्रमाणे देशात विकास देखील घडवून आणला.

प्रणव मुखर्जी यांचा राष्ट्रपती बनण्याचा प्रवास २५ जुलै २०१२ पासून ते २५ जुलै २०१७ पर्यंतचा होता. प्रणव मुखर्जी यांनी स्वातंत्र्य लढ्यापासून एक एक गोष्ट अनुभवली आहे त्यामुळे त्यांचा अनुभव खूपच दांडगा आहे. एक सामान्य माणूस ते राष्ट्रपती असा प्रणव मुखर्जी यांचा प्रवास होता.

प्रणब मुखर्जीचा भारत रत्न
प्रणव मुखर्जी यांना त्यांच्या उल्लेखनीय कार्यामुळे आज पर्यंत अनेक अवॉर्ड मिळाले. त्यातील दोन असे मुख्य अवॉर्ड जे खूप कमी लोकांना मिळतात ते म्हणजेच “भारतरत्न” आणि पद्म भूषण अवॉर्ड. भारत रत्न हा अवॉर्ड २०१९ मध्ये प्रणव मुखर्जी यांना देऊन त्यांना सन्मानित करण्यात आले. २००८ मध्ये त्यांना “पद्मश्री” हा पुरस्कार देखील मिळाला.
            २०१० मध्ये प्रणव मुखर्जी यांना त्यांनी वित्तमंत्री हे पद अतिशय उत्तम प्रकारे सांभाळले त्यामुळे त्यांना “फायनान्स मिनिस्टर ऑफ द इयर फॉर एशिया” या पुरस्काराने सन्मानित करण्यात आलं होतं. प्रणव यांनी फक्त भारतातच नाही तर विदेशामध्ये देखील त्यांची ख्याती पसरवली. बांगलादेशातील सरकारनेदेखील प्रणव मुखर्जी यांना बांगलादेशात सर्वोच्च असणारा “बांगलादेश लिब्रेशन वॉर ओनर” हा पुरस्कार देऊन प्रणव मुखर्जी यांचा सन्मान केला.

♦️ *द टर्बुलेंट इयर्स*
1980 -1996 प्रणब मुखर्जी: प्रणव मुखर्जी यांनी त्यांचा राजकीय सफर एका पुस्तकांमध्ये उतरवून काढला. या पुस्तकाला त्यांनी द टर्बुलेंट इयर्स: 1980 -1996‌ असे नाव दिले. या पुस्तकांमध्ये प्रणव मुखर्जी यांनी त्यांच्या राजकीय कारकिर्दीत घडलेल्या खूप काही गोष्टींचा खुलासा केला. ज्यामध्ये त्यांनी त्यांचे इंदिरा गांधी आणि राजीव गांधी यांच्याशी असलेले संबंध यांच्यावर देखील लेखन केलं आहे.

                 प्रणव मुखर्जी यांनी या पुस्तकामध्ये त्यांच्यात आणि राजीव गांधी यांच्यामध्ये झालेला गैरसमज देखील स्पष्ट करून दाखवला आहे. जेव्हा इंदिरा गांधी यांच्यावर गोळीबार झाला होता त्यावेळी प्रणव मुखर्जी आणि राजीव गांधी हे एका रॅलीचे नेतृत्व करत होते. तेव्हा राजीव गांधी यांना इंदिरा गांधी यांच्या हत्येच बद्दल कळालं तेव्हा ते लगेच दिल्लीला रवाना झाले.

त्यानंतर सगळ्यांनी राजीव गांधी यांना पीएम या पदावर बसण्यासाठी सांगितलं त्यावेळी राजीव गांधींनी आधी प्रणव मुखर्जी यांना विचारलं की तुम्हाला काय वाटतं? मी हे पद सांभाळू शकेल का? त्या वेळी प्रणव मुखर्जी म्हणाले की हो आम्ही सगळे तुमच्या सोबत आहोत. पण काही लोकांनी प्रणव मुखर्जी यांच्या काही गोष्टी राजीव गांधी यांच्यासमोर अशाप्रकारे दर्शवल्या की राजीव गांधी यांना वाटला प्रणव मुखर्जी यांना त्यांचे नेतृत्व पसंत नाही.

त्यावरून काही गैरसमज निर्माण झाले आणि प्रणव मुखर्जी यांनी काँग्रेस पक्ष सोडला. परंतु दोन वर्षांनी प्रणव मुखर्जी यांनी पुन्हा काँग्रेसमध्ये प्रवेश केला त्यावेळी त्यांचा आणि राजीव गांधी यांच्या मधील वाद मिटले होते. गैरसमजुत दूर झाली होती. या पुस्तकांमध्ये प्रणव मुखर्जी यांनी असेच त्यांच्याबद्दल होणाऱ्या अफवा तसेच काही तथ्य देखील सांगितले आहेत. इंदिरा गांधी यांच्या मृत्यूनंतर प्रणव मुखर्जी यांना पीएम बनायचं होतं ह्या अफवेवर देखील त्यांनी स्पष्टीकरण दिल आहे.

🪔 *मृत्यू*
            प्रणव मुखर्जी यांची तब्येत काही दिवस झाले बिघडली होती. दिल्लीतील आर्मी हॉस्पिटलमध्ये त्यांच्यावर उपचार चालू होते. प्रणव मुखर्जी यांच्यावर सर्जरी देखील झाली होती. त्यासोबतच कोरोना ने देखील त्यांच्या शरीरात शिरकाव केला होता. त्यांची कोरोना टेस्ट पॉझिटिव्ह आली होती. तब्येत दिवसेंदिवस खराब होत चाललेली आणि शेवटी ३१ ऑगस्ट २०२० या दिवशी त्यांचं निधन झालं.

         

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन


               *भारतरत्न*         
    *डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन*
     *जन्म : ५ सप्टेंबर १८८८*
(तिरुत्तनी, तमिळनाडू तील एक छोटे गाव, दक्षिण भारत)
    *मृत्यू : १७ एप्रिल १९७५*                                  *२ रे भारतीय राष्ट्रपती*
कार्यकाळ : १३ मे १९६२ – 
                 १३ मे १९६७
मागील : राजेंद्रप्रसाद
पुढील : झाकीर हुसेन
       *भारतीय उपराष्ट्रपती*
कार्यकाळ : १९५२ – १९६२
   
राजकीय पक्ष : भारतीय राष्ट्रीय 
                       काँग्रेस
पत्नी : सिवाकामुअम्मा
अपत्ये : पाच मुली व एक पुत्र, 
             सर्वपल्ली गोपाल
व्यवसाय : राजनीतिज्ञ, तत्त्वज्ञ, 
                प्राध्यापक
धर्म : वेदान्त (हिंदू)

सर्वेपल्ली राधाकृष्णन हे भारताचे दुसरे राष्ट्रपती व नामांकित शिक्षणतज्‍ज्ञ होते. डॉ. सर्वेपल्ली राधाकृष्णन  हे भारताचे भारताचे पहिले उपराष्ट्रपतीच आणि दुसरे राष्ट्रपती होते. त्यांच्या कार्यकाळ  त्यांचा जन्म दक्षिण भारतात तिरुत्तनी या ठिकाणी झाला. हे गाव चेन्नई (मद्रास) शहरापासून ईशान्येला ६४ किमी अंतरावर आहे. राधाकृष्णन यांचा ५ सप्टेंबर हा जन्मदिवस भारतात शिक्षक-दिन म्हणून साजरा केला जातो.

पाश्चात्त्य जगताला भारतीय चिद्‌वादाचा तात्त्विक परिचय करून देणारा भारतावरच्या ब्रिटिश सत्ताकाळातला महत्त्वाचा विचारवंत म्हणून राधाकृष्णन यांना ओळखले जाते. भारतीय तत्त्वज्ञानाचे भाष्यकार म्हणून ते ऑक्सफर्डमध्ये नावाजले गेले. त्यांच्या कार्याचे महत्त्व जाणून ऑक्सफर्ड विद्यापीठाने त्यांच्या नावाने 'राधाकृष्णन मेमोरियल बिक्वेस्ट' हा पुरस्कार ठेवला आहे.

राधाकृष्णन यांच्या जीवनात तीन प्रमुख प्रश्न होते. पहिला प्रश्न असा की, नीतिमान पण चिकित्सक, विज्ञानोन्मुख पण अध्यात्मप्रवण असा नवा माणूस कसा निर्माण करता येईल? या दृष्टीने शिक्षणाचा काही उपयोग होऊ शकेल का? दुसरा प्रश्न असा होता की, प्राचीन भारतीय तत्त्वचिंतन सर्व जगाला आधुनिक भाषाशैलीत, आधुनिक पद्धतीने कसे समजावून सांगता येईल? भारतीय तत्त्वचिंतनाचे वैभव जगाला नेमकेपणाने कसे सांगावे? कसे पटवून द्यावे? तिसरा प्रश्न असा होता की; मानव जातीचे भवितव्य घडवण्यासाठी सांस्कृतिक संचिताचा उपयोग किती?' कुणाशीही ते याच तीन प्रश्नांच्या अनुरोधाने बोलत, असे नरहर कुरुंदकर लिहितात.

🎖 *पुरस्कार*

१९५४ : 'भारतरत्‍न' पुरस्काराने सन्मानित.

भारताचे माजी राष्ट्रपती डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् यांचा 5 सप्टेंबर रोजी जन्मदिन ‘शिक्षक दिन’ म्हणून साजरा करण्यात येतो. ‘शिक्षक’ हा भावी पिढीचा शिल्पकार असून त्यांच्याकडूनच आपल्याला ज्ञान व जगाकडे पाहण्याची सकारात्मक दृष्टी मिळत असते. आपल्या गुरू, शिक्षकांविषयी कृतज्ञता व्यक्त करण्याचा हा दिवस…. 

डॉ. राधाकृष्ण यांचे शिक्षकांप्रती असलेले प्रेम व आदर पाहून भारत सरकारने त्यांचा जन्मदिन हा ‘शिक्षक दिन’ म्हणून साजरा करण्‍याचा संकल्प केला. ती परंपरा अजूनही सुरू आहे व भविष्‍यातही सुरूच राहिल. 1962 मध्ये डॉ. राधाकृष्णन् यांनी राष्ट्रपती पदाची शपथ घेतली तेव्हा त्यांचा जन्मदिवस हा शिक्षकांचा गौरव दिन म्हणून साजरा करण्याची इच्छा प्रकट केली होती. देशातील शिक्षकांचा गौरव हाच आपला गौरव असल्याचे त्यांनी सांगितले होते.

भारताचे दुसरे राष्ट्रपती डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन याच्या स्मृतीप्रत्यर्थ त्यांचा जन्मदिन संपूर्ण भारतभर शिक्षक दिन म्हणून साजरा करतात. कारण डॉ. राधाकृष्णन यांनी 1909 ते 1948 वर्षं पर्यंत म्हणजे 40 वर्षे शै‍क्षणिक क्षेत्रात शिक्षकाचा कार्यभार सांभाळला .

त्यांचा जन्म 5 सप्टेंबर 1888 साली आंध्र राज्यातील चितुर जिल्ह्यातील तिरूत्तनी या गावी झाला. प्राथमिक शिक्षण त्यांच्या गावी झाले व पुढील शिक्षण तिरुपती या गावी झाले. त्यांचे शिक्षण लुथरम मिशन हायस्कूल मध्ये झाले. नंतर उच्च माध्यमिक शिक्षण मद्रास येथील ख्रिश्चन कॉलेजात. तत्त्वज्ञान विषय घेऊन ते प्रथम क्रमांकाने पास झाले व एम्.ए. साठी नितीशास्त्र विषय घेतला.

मद्रास येथे प्रेसिडेन्सी कॉलेजमध्ये तर्कशास्त्राचे प्राध्यापक म्हणून 1917 पर्यंत कार्य केले. 1939 मध्ये आंध्र विद्यालयाने त्यांना डी. लिट. ही पदवी दिली.

1931साली इंग्लॅडने डॉ. राधाकृष्णन यांना सर ही मानाची पदवी बहाल केली. त्यांच्या वाढत्या गुणांमुळे, प्रगतीमुळे 1946ते 1949 या काळात भारतीय राज्य घटना समितीचे सभापती म्हणून निवड झाली.

1952साली भारताचे पहिली निवडणूक होऊन उपराष्ट्रपती म्हणून निवड झाली. त्याच वेळी ते दिल्ली विद्यापीठाचे कुलपती होते. त्याचप्रमाणे 1939 ते 48 बनारस हिंदू विश्वविद्यालयाचे कुलपती होते.

1957च्या दुसर्‍या सार्वत्रिक निवडणुकीत ते पुन्हा उपराष्ट्रपती झाले. उत्कृष्ट कार्य कर्तृत्त्वामुळे त्यांना 1958 साली भारतरत्न हा पुरस्कार देण्यात आला.

13 मे 1962 साली डॉ. राधाकृष्णन यांची राष्ट्रपती म्हणून निवड करण्यात आली. 1967 साली निवृत्त झाले. त्यानंतर आंध्रराज्यातील तिरूपती या गावी 24 एप्रिल 1975 रोजी वृद्धापकाळाने त्यांचे निधन झाले.

*‘शिक्षक’ भावी पिढीचा शिल्पकार…*

शिक्षक हा समाज परिवर्तन करणारा घटक आहे. भविष्यातले विचारवंत, कलाकार, लेखक, तत्त्वज्ञ, पुढारी, डॉक्टर, प्राध्यापक, इंजिनीयर, शास्त्रज्ञ तयार करण्याचे सामर्थ्य शिक्षकांमध्ये असते. ज्या प्रमाणे मातीच्या गोळ्याला कुंभार आकार देऊन त्यापासून एखादी प्रतिकृती तयार करत असतो, अगदी त्याचप्रमाणे शिक्षक बालकांच्या कोर्‍या मनावर योग्य संस्कार करून त्यातून भविष्यातील जबाबदार नागरिक घडवित असतात. आपल्या आई-वडीलांनंतर शिक्षक हे आपले अप्रत्यक्षरित्या पालकच असतात.

शिक्षक हे आपल्याला केवळ पुस्तकी ज्ञान शिकवित नाहीत तर आपण त्यांच्याकडून जगण्याची कला आत्मसात करत असतो.

आपल्या व्यक्तीमत्त्वावर त्यांच्याकडून संस्कार, संस्कृती, परंपरा, चालीरिती व आदर असे पैलू पाडले जात असतात. त्यामुळे विद्यार्थ्यांनी‍ आपल्या गुरूंचा नेहमी आदरपूर्वक सन्मान केला पाहिजे. त्यांच्याविषयी शिक्षक दिनी कृतज्ञता व्यक्त करून त्याचे ऋण फेडण्याचा प्रयत्न केला पाहिजे.

शिक्षक दिन अर्थात चिंतनाचा दिन
समाज व शिक्षक यांचे नाते अतूट आहे. तसेच ते अमूल्यही आहे. भारतीय तत्त्वज्ञानातील परंपरेमध्ये समाजऋण फेडण्यासाठीचाही उल्लेख आढळतो. शिक्षक म्हणजे समाज घडविणारा सर्जनशील घटक. राष्ट्राची ध्येय-धोरणे बळकट करण्यासाठी व देशाला अधिक बलशाली बनवण्यासाठी जी राष्ट्रीय शैक्षणिक धोरणे आखली जातात त्याची रूजवणं करणारा, ती मूल्ये वृध्दिंगत होण्यासाठी संस्कार करणारा महत्त्वाचा घटक म्हणजे शिक्षक. राष्ट्रउभारणीत शिक्षण व शिक्षकांना महत्त्वाचे स्थान आहे. अशावेळी एखाद्या राष्ट्राच्या जडणघडणीत शिक्षक हा महत्त्वाचा मानला जातो. समाजातील अनेक पिढय़ा त्यांच्या हाताखालून जात असतात. या पिढय़ांना माणूस म्हणून घडवताना राष्ट्रीय चारित्र्यही घडणे अभिप्रेत असते. महात्मा गांधीजींना शिक्षणांची व्याख्या करताना हेच अभिप्रेत होते व ते कालातीतही आहे.

शिक्षकांनी, शिक्षक हा पेशा न मानता ते व्रत समजावे व घेतला वसा टाकू नये, ऊतू नये, मातू तर अजिबात नये. कालौघात शिक्षणक्षेत्रातील आवाहने व शिक्षकांविषयीच्या संकल्पना बदलत आहेत. गुरू, गुरुजी, मास्तर, बाई, सर, ताई आणि आता मॅडम अशी बिरूदे शिक्षकांसाठी पुढे आली आहेत. शिक्षक व विद्यार्थी यातील अंतर कमी झाले आहे. शिक्षकांविषयीची आदरुक्त भीती आता अभावानेच आढळते. गुरुंविषयीचा अभिमान, आदर असणारी ऋषीतुल्य व्यक्तिमत्त्वेही तशीच कमीच होत आहेत. शिक्षकांची जागा तंत्रज्ञानाने घेतली आहे. गुरुची कामं आता यंत्र करत आहे. शाळा, महाविद्यालय ही संकल्पना भविष्यात लयालाही जाईल. ऑनलाइन शिक्षण व ऑनलाइन पदवीही मिळेल. या सगळ्या गदारोळात माणसाच्या सामाजिकीकरण प्रक्रिया मात्र होणार नाही. सहवेदना, सहकार्य, सहानुभूती, त्याग, सोसणे या मानवी भावभावनांचे विकसीकरण कदाचित होणार नाही. सवंगडय़ा सोबत, एका विशिष्टवेळी, विशिष्ट इमारतीत प्रत्यक्ष प्रसंग घडत असताना, प्रत्यक्ष जीवनानुभवातून आपण जे अनुकरणाने, अवलोकनाने, अनुभवातून शिकतो त्याचे काय? हा प्रश्न बाकी असेल. यादृष्टीने विचार करता, मानवाने यंत्रे निर्माण केली. विकसित केली. हीच यंत्रे माणसाची जागा घेत आहेत. पण शिक्षण क्षेत्रात ई-लर्निगची साधने हा शिक्षकांसाठीचा पर्याय होऊ शकत नाही. संस्कार, प्रेम, शिस्त, सृजनांचे रूजवण करण्याचे काम यंत्रे करू शकत नाहीत. हेच खरे.
आज एकविसाव्या शतकाकडे वाटचाल करताना पारंपरिक शिक्षण व आधुनिक शिक्षण असे दोन प्रवाह दिसतात. जीवन कौशल्यावर आधारित किमान कौशल्ये प्राप्त करून देणारे शिक्षण हे भविष्यात उपोगी पडणारे आहे. कुशल मनुष्यबळ हीच आपली आपल्या राष्ट्राची खरी संपत्ती असणार आहे. अगदी आधुनिक पद्धतीच्या शेतीपासून ते अवकाश शास्त्रापर्यंतच तंत्रज्ञानाचा शिक्षणात अंतर्भाव करून राष्ट्राला घडवणारी, राष्ट्राला स्वतंत्र वेगळी ओळख प्राप्त करून देणारी पिढी निर्माण करण्याचे मोठे आव्हान मात्र आपल्या पुढे आहे. शिक्षणाने प्रगती होते, समाज विकसित होतो, देश प्रगत होतो हे खरे; पण आपण मिळवलेले ज्ञान, कौशल्ये हे आपल्या ‘स्व’ सुखापुरते मर्यादित न ठेवता. समाजाभिमुख व्हावे आपण कार्य करतो. समाजासाठी लढतो, उभे राहतो, समाजाला योगदानाच्या रूपात काही देऊ शकतो तेव्हाच हे शक्य आहे व हीच मानसिकता विद्यार्थ्यांमध्ये निर्माण करण्याचे अवघड काम मात्र शिक्षकांना करायचे आहे. धर्म, प्रांत, जात, देश या मर्यादा ओलांडून गेल्याशिवाय ग्लोबलाझेशनच्या खर्‍या अर्थापर्यंत आपण पोहोचू शकणार नाही. म्हणून सर्व थरातील शिक्षणाला व शिक्षकांना आज महत्त्व आहे. माझ्यामधले ‘दि बेस्ट’ देण्याची तळमळ असणारे शिक्षकच हाडाचे शिक्षक ठरतात. समाजभिमुखी पिढी घडवताना विद्यार्थ्यांमध्ये ग्रासलेल्या प्लसची जाणीव, सामर्थ्याची ओळख करून देण्याचे काम होणे आवश्यक आहे. तेव्हाच आपल्याला अभिप्रेत असलेला शिक्षणातून सर्वागिण विकास घडणार आहे. ‘शिक्षक दिन’ म्हणूनच सगळ्यांसाठी चिंतनाचा दिन ठरावा.
मी देशासाठी काय करू शकतो. देशाला काय देऊ शकतो, माझ्या जन्माची सार्थकता कशात आहे, ते इप्सित साध्य करण्याच्या दृष्टीने एक शिक्षक म्हणून आपण कार्यरत असावे. आज काळ बदलला आहे. शिक्षण क्षेत्रातील आव्हाने वाढली आहेत. शिक्षणतज्ज्ञांइतकेच या शिक्षण प्रक्रियेत पालकांनाही महत्त्व आले आहे. समाजाची गरज, विद्यार्थी घडवणे, पालकांची अपेक्षा, आपल्या व्यवसायाची पवित्रता जपणे, प्रतिमा जपणे या सगळ्याचा मेळ घालताना आपले ज्ञानही अद्यावत ठेवणे गरजेचे आहे. या सगळ्याचे संतुलन साधत ह्या व्रताची अवघड वाटचाल करावायची आहे. शिक्षक दिनानिमित्त सर्व गुरुजनांना हार्दिक शुभेच्छा...!

यानिमित्तानं जाणून घेऊया त्यांचे अनमोल आणि प्रेरणादायी विचार...
 
1. भविष्यात येणाऱ्या आव्हानांना सामोरं जाण्यासाठी विद्यार्थ्यांना खऱ्या अर्थानं घडवतो, तो खरा शिक्षक.

2.  मानवतेच्या मूलभूत गोष्टी लक्षात ठेवाव्यात, जेणेकरुन चांगली व्यवस्था आणि स्वातंत्र्य दोन्ही अबाधित राहील.

3. पुस्तकांच्या वाचनानं आपल्याला एकांतात विचार करण्याची सवय आणि खरे सुख लाभते.

7. कवी धर्मामध्ये कोणत्याही निश्चित स्वरुपातील सिद्धांतासाठी कोणतीही जागा नसते.

8. मानव दानव बनणं, हा त्याचा पराभव... मानव महामानव बनणं, हा त्याचा चमत्कार... आणि मनुष्य मानव होणे, हा त्याचा विजय...

9.  कोणतंही स्वातंत्र्य तोपर्यत खरे नसते, जोपर्यंत त्या विचाराचं स्वातंत्र्य प्राप्त होत नाही. सत्याच्या शोधात असताना कोणत्याही धार्मिक श्रद्धा किंवाछ राजकीय सिद्धांतांमध्ये बाधा आणू नये. 

10. धर्माविना एखादी व्यक्ती लगाम नसलेल्या घोड्याप्रमाणे असतो.
         

राणा उदयसिंह



              *राणा उदयसिंह*


        *जन्म : 4 अगस्त 1522*

         (चित्तौड़गढ़, राजस्थान)

        *मृत्यु : 28 फ़रवरी 1572*

पिता- राणा साँगा, माता- कर्णवती

पत्नी : सात पत्नियाँ

संतान : 24 लड़के थे जिनमें प्रताप सिंह प्रमुख हैं जो बाद में महाराणा प्रताप कहलाए

उपाधि : महाराणा

राज्य सीमा : मेवाड़

शासन काल : 1537 - 1572 ई.

शा. अवधि : 35 वर्ष

धार्मिक मान्यता : हिंदू धर्म

राजधानी : उदयपुर

पूर्वाधिकारी : विक्रमादित्य सिंह

उत्तराधिकारी : महाराणा प्रताप

राजघराना : राजपूताना

वंश : सिसोदिया राजवंश

अन्य जानकारी : पन्ना धाय ने अपने पुत्र चंदन का बलिदान देकर ‘मेवाड़ के अभिशाप’ बने बनवीर से मेवाड़ के भविष्य के राणा उदयसिंह की प्राण रक्षा की थी और इन्हें सुरक्षित रूप में क़िले से निकालकर बाहर ले गयीं थीं।

                  राणा उदयसिंह मेवाड़ के राणा साँगा के पुत्र और राणा प्रताप के पिता थे। इनका जन्म इनके पिता के मरने के बाद हुआ था और तभी गुजरात के बहादुरशाह ने चित्तौड़ नष्ट कर दिया था। इनकी माता कर्णवती द्वारा हुमायूँ को राखीबंद भाई बनाने की बात इतिहास प्रसिद्ध है। मेवाड़ की ख्यातों में इनकी रक्षा की अनेक अलौकिक कहानियाँ कही गई हैं। उदयसिंह को कर्त्तव्यपरायण धाय पन्ना के साथ बलबीर से रक्षा के लिए जगह-जगह शरण लेनी पड़ी थी। उदयसिंह 1537 ई. में मेवाड़ के राणा हुए और कुछ ही दिनों के बाद अकबर ने मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ पर चढ़ाई की। हज़ारों मेवाड़ियों की मृत्यु के बाद जब लगा कि चित्तौड़गढ़ अब न बचेगा तब जयमल और पत्ता आदि वीरा के हाथ में उसे छोड़ उदयसिंह अरावली के घने जंगलों में चले गए। वहाँ उन्होंने नदी की बाढ़ रोक उदयसागर नामक सरोवर का निर्माण किया था। वहीं उदयसिंह ने अपनी नई राजधानी उदयपुर बसाई। चित्तौड़ के विध्वंस के चार वर्ष बाद उदयसिंह का देहांत हो गया।


♦️ *इतिहास से*

                     राणा संग्राम सिंह उपनाम राणा सांगा एक बहुत ही वीर शासक थे। परिस्थितियों ने उनकी मृत्यु के उपरांत उनके पुत्र कुंवर उदय सिंह को वीरमाता पन्ना धाय के संरक्षण में रहने के लिए विवश कर दिया। माता पन्नाधाय ने अपने पुत्र चंदन का बलिदान देकर ‘मेवाड़ के अभिशाप’ बने बनवीर से मेवाड़ के भविष्य के राणा उदय सिंह की प्राण रक्षा की और उसे सुरक्षित रूप में किले से निकालकर बाहर ले गयी। तब चित्तौड़ से काफ़ी दूर राणा उदय सिंह का पालन पोषण आशाशाह नाम के एक वैश्य के घर में हुआ। इतिहासकारों ने बताया है कि माता पन्नाधाय के बलिदान की देर सवेर जब चित्तौड़ के राजदरबार के सरदारों को पता चली तो उन्होंने बनवीर जैसे दुष्ट शासक से सत्ता छीनकर राणा सांगा के पुत्र राणा उदय सिंह को सौंपने की रणनीति बनानी आरंभ कर दी। उसी रणनीति के अंतर्गत राणा उदय सिंह को चित्तौड़ लाया गया। राणा के आगमन की सूचना जैसे ही बनवीर को मिली तो वह राजदरबार से निकलकर सदा के लिए भाग गया। इससे राणा उदय सिंह ने निष्कंटक राज्य करना आरंभ किया। यह घटना 1542 की है। यही वर्ष अकबर का जन्म का वर्ष भी है।


🌀 *राणा उदय सिंह की रानियाँ और संतान*

              राणा उदय सिंह की मृत्यु 1572 में हुई थी। उस समय उनकी अवस्था 42 वर्ष थी और उनकी सात रानियों से उन्हें 24 लड़के थे। उनकी सबसे छोटी रानी का लड़का जगमल था, जिससे उन्हें असीम अनुराग था। मृत्यु के समय राणा उदय सिंह ने अपने इसी पुत्र को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था। लेकिन राज्य दरबार के अधिकांश सरदार लोग यह नहीं चाहते थे कि राणा उदय सिंह का उत्तराधिकारी जगमल जैसा अयोग्य राजकुमार बने। राणा उदय सिंह के काल में पहली बार सन 1566 में चढ़ाई की थी, जिसमें वह असफल रहा। इसके बाद दूसरी चढ़ाई सन 1567 में की गयी थी और वह इस किले पर अधिकार करने में इस बार सफल भी हो गया था। इसलिए राणा उदय सिंह की मृत्यु के समय उनके उत्तराधिकारी की अनिवार्य योग्यता चित्तौड़गढ़ को वापस लेने और अकबर जैसे शासक से युद्घ करने की चुनौती को स्वीकार करना था। राणा उदय सिंह के पुत्र जगमल में ऐसी योग्यता नहीं थी इसलिए राज्य दरबारियों ने उसे अपना राजा मानने से इंकार कर दिया।


                    अकबर से मुक़ाबला

1567 में जब चित्तौड़गढ़ को लेकर अकबर ने इस किले का दूसरी बार घेराव किया तो यहां राणा उदय सिंह की सूझबूझ काम आयी। अकबर की पहली चढ़ाई को राणा ने असफल कर दिया था। पर जब दूसरी बार चढ़ाई की गयी तो लगभग छह माह के इस घेरे में किले के भीतर के कुओं तक में पानी समाप्त होने लगा। किले के भीतर के लोगों की और सेना की स्थिति बड़ी ही दयनीय होने लगी। तब किले के रक्षकदल सेना के उच्च पदाधिकारियों और राज्य दरबारियों ने मिलकर राणा उदय सिंह से निवेदन किया कि राणा संग्राम सिंह के उत्तराधिकारी के रूप में आप ही हमारे पास हैं, इसलिए आपकी प्राण रक्षा इस समय आवश्यक है। अत: आप को किले से सुरक्षित निकालकर हम लोग शत्रु सेना पर अंतिम बलिदान के लिए निकल पड़ें। तब राणा उदय सिंह ने सारे राजकोष को सावधानी से निकाला और उसे साथ लेकर पीछे से अपने कुछ विश्वास आरक्षकों के साथ किले को छोड़कर निकल गये। अगले दिन अकबर की सेना के साथ भयंकर युद्घ करते हुए वीर राजपूतों ने अपना अंतिम बलिदान दिया। जब अनेकों वीरों की छाती पर पैर रखता हुआ अकबर किले में घुसा तो उसे शीघ्र ही पता चल गया कि वह युद्घ तो जीत गया है, लेकिन कूटनीति में हार गया है, किला उसका हो गया है परंतु किले का कोष राणा उदय सिंह लेकर चंपत हो गये हैं। अकबर झुंझलाकर रह गया। राणा उदय सिंह ने जिस प्रकार किले के बीजक को बाहर निकालने में सफलता प्राप्त की वह उनकी सूझबूझ और बहादुरी का ही प्रमाण है।

                 फलस्वरूप राणा उदय सिंह की अंतिम क्रिया करने के पश्चात् राज्य दरबारियों ने राणा जगमल को राजगद्दी से उतारकर महाराणा प्रताप को उसके स्थान पर बैठा दिया। इस प्रकार एक मौन क्रांति हुई और मेवाड़ का शासक राणा उदय सिंह की इच्छा से न बनकर दरबारियों की इच्छा से महाराणा प्रताप बने। इस घटना को इसी रूप में अधिकांश इतिहासकारों ने उल्लेखित किया है। इसी घटना से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि महाराणा प्रताप और उनके पिता राणा उदय सिंह के बीच के संबंध अधिक सौहार्दपूर्ण नहीं थे। महाराणा प्रताप ने जब अपने पिता राणा उदय सिंह के द्वारा अपने छोटे भाई जगमल को अपना उत्तराधिकारी बनाते देखा तो कहा जाता है कि उस समय उन्होंने सन्न्यास लेने का मन बना लिया था। लेकिन राज्यदरबारियों की कृपा से उन्हें सत्ता मिल गयी और वह मेवाड़ाधिपति कहलाए। महाराणा प्रताप मेवाड़ के अधिपति बन गये तो उनके मानस को समझकर कई कवियों और लेखकों ने महाराणा संग्राम सिंह और महाराणा प्रताप के बीच खड़े राणा उदय सिंह की उपेक्षा करनी आरंभ कर दी। जिससे राणा उदय सिंह के साथ कई प्रकार के आरोप मढ़ दिये गये। जिससे इतिहास में उन्हें एक विलासी और कायर शासक के रूप में निरूपति किया गया है।


        

सदाशिवराव भाऊ


      

              *सदाशिवराव भाऊ*


         *जन्म : 4 आॕगष्ट 1730*

           

         *वीरगती :  14 जानेवारी 1761*

                       सदाशिवराव भाऊ  मराठा साम्राज्यातील एक सेनापती. त्यांनी पानिपतच्या तिसऱ्या लढाईत मराठ्यांचे नेतृत्व केले. नानासाहेब पेशवे यांचे चुलतभाऊ. त्यांचा जन्म पुणे येथे झाला. त्यांचे संपूर्ण नाव सदाशिव अनंत भट. परंतु ‘सदाशिवराव भाऊʼ म्हणून ते सर्व परिचित होते.


        पहिल्या बाजीराव पेशव्यांचे बंधू अनंत बाळाजी भट तथा चिमाजी आप्पा यांचा हा मुलगा. त्यांच्या आईचे नाव रखमाबाई. सदाशिवराव २५ दिवसांचे असतानाच त्यांच्या आईचे निधन झाले. त्यामुळे आजी राधाबाईसाहेब यांनीच त्यांचे संगोपन केले. पहिल्या बाजीराव पेशव्यांसोबत चिमाजी आप्पा नेहमीच मोहिमेवर असत. त्यामुळे लहानग्या सदशिवाकडे लक्ष द्यायला त्यांना पुरेसा वेळ मिळत नसे. दौलतीचे शिक्षण घेण्यासाठी ते शाहू महाराजांकडे दाखल झाले होते. तलवारबाजीमध्ये ते अतिशय तरबेज होते. २० मार्च १७३६ मध्ये त्यांचे मौंजीबंधन झाले, तर  २५ जानेवारी १७४० मध्ये त्यांचे लग्न उमाबाई यांच्याशी झाले. त्यांचे दुसरे लग्न भिकाजी नाईक कोल्हटकर (पेण) यांच्या पार्वतीबाई नावाच्या मुलीशी झाले. सदाशिवराव भाऊ यांच्या ठायी मुत्सद्दीपणा, समयसूचकता व शौर्य इत्यादी गुण होते. पेशवाईच्या अंतर्गत कारभारात रामचंद्रबाबा शेणवी यांच्या साहाय्याने त्यांनी खूप सुधारणा केल्या.


सदाशिवराव भाऊ यांचा दक्षिणेतील मोहिमांमधील सहभाग महत्त्वपूर्ण आहे. कृष्णा तुंगभद्रा या नद्यांमधील ठाणी देशमुखांनी उठवली होती. ती परत घेण्याकरता ते तिकडे गेले. इ. स. १७४७ मध्ये दक्षिणेतील कोप्पळ जवळील बहादुरबंदी हा किल्ला त्यांनी घेतला.


परशुराम त्रिंबक प्रतिनिधी व त्यांचा मुतालिक  यमाजी शिवदेव  यांचे बंड मोडण्यासाठी छ. रामराजांना बरोबर घेऊन सदाशिवराव भाऊ सांगोल्याच्या स्वारीवर गेले. तेथील बंड मोडून  छ. रामराजांकडून त्यांनी मराठी राज्याची कायमची पूर्ण मुखत्यारी लिहून घेतली.


सदाशिवराव भाऊंनी आपला दिवाण रामचंद्रबाबा शेणवी यांच्या सांगण्यावरून नानासाहेब पेशवे यांच्याकडे  दिवाणगिरीची मागणी केली. परंतु महाजीपंत पुरंदरे यांना त्या जागेवरून कमी करण्याचा पेशव्यांचा मानस  नसल्याने भाऊंनी कोल्हापूरकरांची पेशवाई स्वीकारली; पण भावाभावांत तंटा लागू नये म्हणून महादजीपंत यांनी आपल्या जागेचा राजीनामा दिला आणि भाऊ पुण्याच्या पेशव्यांचे दिवाण झाले.


मे १७५२ मध्ये दिल्लीच्या बादशहाने अब्दाली व रोहिले  यांच्यापासून  मराठ्यांनी बादशाहीचे  संरक्षण करावे म्हणून मराठ्यांशी करार केला. यामुळेच रघुनाथ दादासारखे लोक अटक, पेशावरपर्यंत जाऊन अफगाणांचा बंदोबस्त करून आले होते. रघुनाथराव तेथून माघारी फिरताच अब्दाली पुन्हा हिंदुस्थानवर चालून आला. शिंदे व होळकर यांच्या आपसांतील वैरामुळे अब्दालीने मराठ्यांचा पराभव केला. यामध्ये दिल्लीजवळ बुराडी घाटावर दत्ताजी शिंदे धारातीर्थ पडले. ती बातमी महाराष्ट्रात येण्यास महिना लागला. याच दरम्यान भाऊंनी उदगीरच्या लढाईत निजाम अलीचा पराभव करून साठ लाख उत्पन्नाचा मुलूख मराठी राज्याला जोडला. या युद्धातील यशामुळे नानासाहेब पेशवे यांनी अब्दालीचा बिमोड करण्यासाठी उत्तर हिंदुस्थानावरच्या मोहिमेस सदाशिवराव भाऊंची रवानगी केली. मराठी सैन्य पटदूरास एकत्र आले. तेथूनच १४ मार्च १७६० मध्ये मराठी फौजा उत्तरेकडे निघाल्या. भाऊंच्या सैन्यात यात्रेकरू, बाजारबुणगे यांचा भरणा खूप होता. भाऊंनी सर्व सरदारांचे रुसवे काढून सर्वांना कामाला लावले. बुऱ्हाणपूर, भोपाळ, सीरोंज, ओर्छा, नरवर, ग्वाल्हेर या मार्गाने भाऊ दिल्लीकडे निघाले. वाटेत गंभीर नदी ओलांडण्यास भाऊंना खूप दिवस लागले. याच दरम्यान अब्दाली गंगा-यमुनेच्या दुआबात  होता. भाऊंना उत्तरेतील संस्थानिकांना आपल्या बाजूने वळवण्यात अपयश आले. यमुनेच्या पाण्याला उतार नसल्याने प्रथम दिल्ली काबीज करून नंतर अब्दालीस  कोंडावा असे ठरले. मथुरेत भाऊंना सुरजमल येऊन मिळाला. पुढे मात्र सुरजमलने तटस्थ भूमिका घेतली.


२२ जुलै १७६० रोजी दिल्ली काबीज करून भाऊंनी दिल्लीचा बंदोबस्त नारोशंकर यांच्याकडे सोपविला. यावेळी भाऊंनी अब्दालीचे तहाचे बोलणे धुडकावले. दिल्ली बादशहा शाह आलम याने युद्धाचा निर्णय लागल्याशिवाय दिल्लीत येण्यास नकार दिला. त्यामुळे भाऊंनी अली गोहरचा मुलगा जवानबख्त यास दिल्लीचा युवराज केले.


दिल्लीच्या विजयानंतर भाऊंनी आपला मोर्चा दिल्लीपासून उत्तरेस पाऊणशे मैल यमुनेच्या काठी असलेल्या कुंजपुराकडे वळवला. येथून अब्दालीला रसदेचा पुरवठा होत होता. १७ ऑक्टोबर १७६० ला भाऊंनी इब्राहिमखानाकरवी तोफा डागून कुंजपुराचा किल्ला फोडला. तेव्हा कित्येक खंडी गहू मराठ्यांच्या हाती पडला. दत्ताजी शिंदे यांचे मारेकरी अब्दुल समतखान व कुतुबशहा हे कुंजपुरा येथे जिवंत सापडले. त्यांना मारून त्यांची मस्तके भाऊंनी अब्दालीस पाठवून दिली. यामुळे अब्दालीने चिडून जाऊन यमुनापार होण्याची खटपट सुरू केली. भाऊंनी कुंजपुरा घेऊन ते ससैन्य कुरुक्षेत्रावर आले. कित्येक दिवस तिथे मुक्काम करून मराठी फौजा दिल्लीच्या रोखाने निघाल्या. याच दरम्यान बागपताजवळ गौरीपुरापासून अब्दाली यमुनापार होऊन दिल्लीच्या वाटेवर येऊन बसला. सदाशिवराव भाऊ अब्दालीवर गणोरपर्यंत चालून गेले. पानिपतगाव पाठीशी ठेवून भाऊंनी अब्दालीशी झुंज देण्याचा निर्णय घेतला. नोव्हेंबर मध्यापासून ते जानेवारीपर्यंत हे युद्ध झाले.


पानिपतवर मराठी सैन्य व अब्दालीचे सैन्य एकमेकांसमोर उभे ठाकले. रोज त्यांच्या छोट्या-मोठ्या चकमकी चालू होत्या. मात्र बळवंतराव मेहेंदळे, गोविंदपंत बुंदेले, दादाजी पराशर यांसारखी मंडळी पडल्यानंतर भाऊंचा धीर खचला. अशातच मराठी सैन्याची अन्नापासून दुर्दशा होऊ लागली. यावर भाऊंनी शत्रूवर तुटून पडून शत्रूची कोंडी फोडून दिल्लीच्या रोखाने जाण्याचा विचार केला. भाऊंनी इब्राहिमखान गारदी याच्या तोफांचा वापर करून गोलाची लढाई द्यायची ठरवले. त्याप्रमाणे १४ जानेवारी १७६१ या दिवशी सकाळी युद्धास प्रारंभ झाला. यावेळी मराठी पूर्वाभिमुख होते, तर अब्दालीचे सैन्य पश्चिमाभिमुख होते. अब्दालीच्या मागील बाजूस यमुना होती. हे युद्ध भल्या सकाळी आठ वाजता सुरू झाले. दुपारी तीनला विश्वासराव यांना गोळी लागून ते ठार झाल्याने मराठी सैन्यात एकच गोंधळ उडाला. मराठी सैन्यात पळापळ सुरू झाली. विश्वासराव पडल्यावर देहभान विसरून सदाशिवराव भाऊ शत्रूसैन्यात शिरले. नाना फडणीस यांनी आपल्या आत्मचरित्रात भाऊ गर्दीत नाहीसा होईपर्यंत आपण त्यांच्याजवळ होतो, असे लिहिले आहे. पानिपतच्या रणभूमीवर दुसऱ्या दिवशी भाऊंचे प्रेत शोधून काढून काशीराजाने त्यांच्या प्रेताला अग्नी दिला.


सदाशिवराव भाऊ पानिपतच्या युद्धात मारले गेले होते, पण तदनंतर त्यांचे अनेक तोतये महाराष्ट्रात आले. पानिपत युद्धातून वाचून ते कोठेतरी गुप्तपणे राहिले असावेत, अशी सामान्यजनांची समजूत होती. खुद्द सदाशिवराव भाऊ यांच्या पत्नी पार्वतीबाई यांनीही अशी समजूत मनाशी बाळगली होती. त्यामुळे त्या सारे सौभाग्यालंकार अंगावर परिधान करीत.

     

फिरोजशहा मेहता

                                    

                   

          *फिरोजशहा मेहता*

*जन्म : ४ ऑगस्ट १८४५ मुंबई*

*मृत्यू : ५ नोव्हेंबर १९१५*

पूर्ण नाव : फिरोजशहा मेहरवानजी मेहता.

वडील :मेहरवानजी

जन्मस्थान : मुंबई

शिक्षण : इ. स. १८६४ मध्ये मुंबईच्या एल्फिन्स्टन महाविद्यालयातून बी. ए. आणि सहा महिन्यानंतर एम. ए. ची परीक्षा उत्तीर्ण. इ. स. १८६८ मध्ये बॅरिस्टरची पदवी संपादन केली.

ओळख : मुंबईचा सिंह भारतातील सर्वोत्तम वादपटू मुंबईचा चारवेळा महापौर

🙍🏻‍♂️ *फिरोजशहा मेहता बालपण आणि शिक्षण*

               फिरोजशहा मेहता यांचा जन्म ४ ऑगस्ट १८४५ मध्ये मुंबई येथे झाला. ते एका पारशी कुटुंबात जन्मले होते त्यांच्या वडिलांचे नाव मेहरवानजी असे होते .


सुखवस्तू पारशी कुटुंबात जन्मलेले फिरोजशहा १८६४ मध्ये पदवीधर झाले. १८६५ मध्ये रुस्तमजी जमशेदजी जिजिभॉय यांनी पाच भारतीयांना इंग्लंडमध्ये जाऊन बॅरिस्टर होण्यासाठी दीड लाख रुपयांची मदत देण्याचे जाहीर केले. या पाच जणांत फिरोजशहा होते. पण या मदतीचा फायदा त्यांना फार काळ मिळाला नाही. रुस्तमजी यांना व्यापारात मोठी खोट आली आणि फिरोजशहा यांना मिळणारी मदत बंद झाली.


इंग्लंडमध्ये फिरोजशहा चार वर्ष होते. त्या काळी, दादाभाई नौरोजी यांच्याबरोबरचा परिचय त्यांना फार उपयुक्त ठरला. ब्रिटिश वसाहतवादामुळे भारतीय भांडवलाचे (नैसर्गिक साधनसामग्री आणि श्रमाचे) कसे शोषण होते, अशी वैचारिक मांडणी केली.


फिरोजशहा हे स्वत:ला पूर्णपणे आपण भारताचे पुत्र आहोत, असे मानत. पारशी समाज हा परकीय असून या समाजाला भारताच्या जडणघडणीत स्थान नाही, ही कल्पना त्यांनी कधीच बाळगली नाही.


एका विशिष्ट प्रसंगी त्यांच्या काही मित्रांनी वेगळे मत व्यक्त करण्याचा प्रयत्न केला, तेव्हा फिरोजशहा यांनी ऐतिहासिक निवेदन करून मित्रांच्या निदर्शनास त्यांची चूक आणून दिली : ‘पारशी समाजाने आपले अस्तित्व आणि हितसंबंध या देशातील इतर लोकांपेक्षा वेगळे आहेत, असे समजणे केवळ स्वार्थी व संकुचितच ठरणार नाही, तर आत्मघातकी ठरेल.


आपला समाज लहान असला, तरी समंजस व कल्पक आहे. सबब, आपण या देशातील इतरांपासून अलग न राहता, समान हितसंबंध आणि परस्पर सहकार्याच्या दृष्टीने पाठपुरावा करायला हवा. तसे झाले नाही, तर या देशाच्या उभारणीत आपली रास्त भागीदारी राहणार नाही. मी प्रथम भारतीय व नंतर पारशी आहे.’


मुंबई विद्यापीठाच्या सिनेटमध्येही फिरोजशहा यांनी बरेच कार्य केले. तरुणपणापासूनच शिक्षण हा त्यांचा आवडता विषय होता. मुंबई विद्यापीठाशिवाय प्रांतिक कायदे मंडळे आणि मध्यवर्ती कायदे मंडळांमार्फत सरकारने शिक्षणावर जास्त खर्च केला पाहिजे, यावर फिरोजशाह यांचा भर होता.


फिरोजशहा मेहता हे मला हिमालयाप्रमाणे, लोकमान्य हे महासागराप्रमाणे आणि गोपाळकृष्ण गोखले हे गंगा नदीप्रमाणे भासले,’ असे महात्मा गांधींनी आत्मचरित्रात म्हटले आहे.


फिरोजशहा यांचा सर्वात मोठा गुण म्हणजे निर्भयता. एकदा त्यांनी एखाद्या प्रश्नाबद्दल मत बनविले आणि त्यानुसार धोरण आखले की, ते ठामपणे त्याचा पुरस्कार करीत आणि त्यापासून कोणीही त्यांना परावृत्त करू शकत नसे.’ ..वैचारिक निष्ठा बावनकशी असल्याखेरीज हे साध्य होऊ शकत नाही!


♨️ *फिरोजशहा मेहता कार्य*

              इ. स. १८६८ मध्ये मुंबई उच्च न्यायालयात ने वकिली करू लागले.


इ.स १८७२ मध्ये ते मुबई महापालिकेचे सदस्य बनले. तीन वेळा ते अध्यक्षही बनले. त्याचे ३८ वर्षे मुंबई महापालिकेवर वर्चस्व होते.


इ. स. १८८५ मध्ये ‘बॉम्बे प्रेसीडेंसी असोसिएशन’ ची स्थापना यांनी केली ते त्याचे सचिव झाले.


इ. स. १८८६ मध्ये ‘मुंबई लेजिस्लेटिव्ह काउंसिल’ चे ते सदस्य बनले.


इ. स. १८८९ मध्ये मुंबई विद्यापीठाच्या सिनेटचे सदस्य झाले तसेच मुंबईमध्ये भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेसच्या स्वागत समितीचे अध्यक्ष झाले.


इ.स. १८९० (कलकता) व १९०१ (लाहोर) येथील भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेसच्या अधिवेशनाचे त्यांनी अध्यक्षस्थान भूषविले,


इ.स. १८९२ मध्ये पाचव्या मुंबई प्रांतिक सम्मेलनाचे त्यांनी अध्यक्ष पद भूषविले.


इ. स. १९११ मध्ये ‘सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया’ च्या स्थापनेत त्यांचे महत्वपूर्ण योगदान होते.


इ.स. १९१३ मध्ये ‘द बॉम्बे क्रॉनिकल’ नावाच्या वृत्तपत्राचे प्रकाशन त्यांनी केले.

         

गोपीनाथ बोरदोलोई

 

                    *भारतरत्न*

    

            *गोपीनाथ बोरदोलोई*


     *जन्म : 10 जून 1890*

       (रोहा, ज़िला नौगाँव, असम)

     *(मृत्यु : 5 अगस्त 1950)*

       ( गुवाहाटी, असम)

अभिभावक : बुद्धेश्वर बोरदोलोई तथा प्रानेश्वरी 

नागरिकता : भारतीय

प्रसिद्धि : राजनीतिज्ञ

पार्टी : कांग्रेस

पद : मुख्यमंत्री

शिक्षा : बी.ए., एम.ए., क़ानून की डिग्री

विद्यालय : कलकत्ता विश्वविद्यालय

भाषा हिन्दी, अंग्रेज़ी

पुरस्कार-उपाधि : 'भारत रत्न' (1999 ई.)

विशेष योगदान : 'कामरूप अकादमी' (गौहाटी), 'बरुआ कॉलेज', 'गौहाटी विश्वविद्यालय' और 'असम मेडिकल कॉलेज' आदि की स्थापना इन्हीं के प्रयासों द्वारा हुई थी।

अन्य जानकारी : गोपीनाथ बोरदोलोई के प्रयत्नों से ही आज असम भारत का अभिन्न अंग है। असम के लोग उन्हें बड़े प्यार से शेर-ए-असम के नाम से याद करते हैं।

           गोपीनाथ बोरदोलोई भारत के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और असम के प्रथम मुख्यमंत्री थे। इन्हें 'आधुनिक असम का निर्माता' भी कहा गया है। इन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन में भी सक्रिय रूप से भाग लिया था। 1941 ई. में 'व्यक्तिगत सत्याग्रह' में भाग लेने के कारण इन्हें कारावास जाना पड़ा था। वर्ष 1942 ई. में 'भारत छोड़ो आन्दोलन' में भागीदारी के कारण गोपीनाथ बोरदोलाई को पुन: सज़ा हुई। गोपीनाथ ने असम के विकास के लिए अथक प्रयास किये थे। उन्होंने राज्य के औद्योगीकरण पर विशेष बल दिया और गौहाटी में कई विश्वविद्यालयों की स्थापना करवायी। असम के लिए उन्होंने जो उपयोगी कार्य किए, उनके कारण वहाँ की जनता ने उन्हें ‘लोकप्रिय’ की उपाधि दी थी। वस्तुतः असम के लिए उन्होंने जो कुछ भी किया, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।


💁🏻‍♂️ *जन्म एवं शिक्षा*

गोपीनाथ बोरदोलोई प्रगतिवादी विचारों वाले व्यक्ति थे तथा असम का आधुनिकीकरण करना चाहते थे। गोपीनाथ बोरदोलाई का जन्म 10 जून, 1890 ई. को असम में नौगाँव ज़िले के 'रोहा' नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता का नाम बुद्धेश्वर बोरदोलोई तथा माता का नाम प्रानेश्वरी बोरदोलोई था। इनके ब्राह्मण पूर्वज उत्तर प्रदेश से जाकर असम में बस गए थे। जब ये मात्र 12 साल के ही थे, तभी इनकी माता का देहांत हो गया था। गोपीनाथ ने 1907 में मैट्रिक की परीक्षा और 1909 में इण्टरमीडिएट की परीक्षा गुवाहाटी के 'कॉटन कॉलेज' से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वे कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) चले गए। कलकत्ता में बी.ए. करने के बाद 1914 में उन्होंने एम.ए. परीक्षा उत्तीर्ण की। तीन साल उन्होंने क़ानून की शिक्षा ग्रहण करने के बाद गुवाहाटी लौटने का निश्चय किया।


💥 *क्रांतिकारी जीवन में प्रवेश*

गुवाहाटी लौटने पर गोपीनाथजी 'सोनाराम हाईस्कूल' के प्रधानाध्यापक पद पर कार्य करने लगे। 1917 में उन्होंने वकालत शुरू की। यह वह जमाना था, जब राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने देश की आजादी के लिए अहिंसा और 'असहयोग आन्दोलन' प्रारम्भ किया था। अनेक नेताओं ने उस समय गाँधीजी के आदेश के अनुरूप सरकारी नौकरियाँ छोड दी थीं और 'असहयोग आन्दोलन' में कूद पडे थे। गोपीनाथ बोरदोलोई भी बिना किसी हिचक से अपनी चलती हुई वकालत को छोडकर स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। इस समय उनके साथ असम के अन्य नेता भी स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने लगे। इन नेताओं में प्रमुख थे- नवीनचन्द्र बोरदोलोई, चन्द्रनाथ शर्मा, कुलाधार चलिहा, तरुणराम फूकन आदि। वकालत छोडने के बाद के बाद सबसे पहले गोपीनाथजी ने दक्षिण कामरूप और गोआलपाड़ा ज़िले का पैदल दौरा किया। इस दौरे में तरुणराम फूकन उनके साथ थे। उन्होंने जनता को संदेश दिया कि- "वे विदेशी माल का बहिष्कार करें, अंग्रेज़ों के काम में असहयोग करें और विदेशी वस्त्रों के स्थान पर खद्दर धारण करें। विदेशी वस्त्रों की होली के साथ-साथ खद्दर के लिए चरखे और सूत कातें।" इसका परिणाम यह हुआ कि गोपीनाथ बोरदोलोई और उनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें एक वर्ष कैद की सजा दी गई। उसके बाद से उन्हने अपने आपको पूरी तरह देश के 'स्वतन्त्रता संग्राम' के लिए समर्पित कर दिया।

🔮 *कांग्रेस सदस्य*

1926 में गोपीनाथ बोरदोलोई ने सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया। उन्होंने कांग्रेस के 41वें अधिवेशन में भाग लेने के बाद जहाँ अपनी लोकप्रियता में वृद्धि की, वहाँ वे सामाजिक जीवन से भी अधिक जुडते गए। 1932 में वे5 गुवाहाटी के नगरपालिका बोर्ड के अध्यक्ष चुने गए। उस समय असम की स्थिति एक पिछडे प्रदेश की थी। न तो उसका अपना पृथक् उच्च न्यायालय था, न ही कोई विश्वविद्यालय। गोपीनाथजी के प्रयत्नों से यह दोनों बातें सम्भव हो सकीं। 1939 में जब कांग्रेस ने प्रदेश विधान सभाओं के लिए चुनाव में भाग लेने को निश्चय किया तो गोपीनाथ बोरदोलोई असम से कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में विजयी हुए और मुख्यमंत्री बने। उसके बाद से वे पूरी तरह से असम की जनता के लिए समर्पित हो गए। वे "शेर-ए-असम" ही नहीं थे, "भारत-रत्न" भी थे।


🏛️ *विश्वविद्यालयों की स्थापना*

1929 ई. में सरकारी विद्यालयों में राजनीतिक गतिविधियों पर रोक के संबंध में सरकार का आदेश निकला, तो गोपीनाथ बोरदोलोई ने ऐसे विद्यालयों के बहिष्कार का आंदोलन चलाया। परंतु वे शिक्षा के महत्त्व को समझते थे। उनके प्रयत्न से गौहाटी में 'कामरूप अकादमी' और 'बरुआ कॉलेज' की स्थापना हुई। आगे चलकर जब उन्होंने प्रशासन का दायित्व संभाला तो 'गौहाटी विश्वविद्यालय', 'असम मेडिकल कॉलेज' तथा अनेक तकनीकी संस्थाओं की स्थापना में सक्रिय सहयोग दिया।


⛓️ *जेल यात्रा*

1938 ई. में असम में जो पहला लोकप्रिय मंत्रिमंडल बना, उसके मुख्यमंत्री गोपीनाथ बोरदोलोई ही थे। इस बीच उन्होंने असम में अफ़ीम पर प्रतिबंध लगाने का ऐतिहासिक काम किया। विश्वयुद्ध आरंभ होने पर उन्होंने भी इस्तीफ़ा दे दिया और जेल की सज़ा भोगी। युद्ध की समाप्ति के बाद वे दुबारा असम के मुख्यमंत्री बने। स्वतंत्रता के बाद का यह समय नवनिर्माण का काल था।


🗺️ *असम निर्माता*

भारत को स्वतन्त्रता देने से पूर्व जिस समय भारत के विभाजन की बात चल रही थी, उस समय असम में गोपीनाथ बोरदोलोई के हाथ में सत्ता थी। ब्रिटिश सरकार की योजना से ऐसा प्रतीत होता था कि असम प्रदेश को कुछ भागों में बाँट कर पूर्वी पाकिस्तान (अब बंगलादेश) में सम्मिलित कर दिया जाएगा। गोपीनाथ और उनके साथी यदि समय रहते सजग न होते तो असम आज बंगलादेश को हिस्सा होता। 'भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम' से सम्बन्धित व्यक्ति जानते है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के समय ब्रिटिश सरकार ने भारत की इच्छा के विपरीत उसे युद्ध का भागीदार बना दिया था। उस समय गांधीजी ने जब असहयोग को नारा दिया तो गोपीनाथ बोरदोलोई के मन्त्रिमण्डल ने त्याग पत्र दे दिया था। विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद 1946 में असम में कांग्रेस की भारी बहुमत से जीत हुई और गोपीनाथ बोरदोलोई मुख्यमंत्री बने। यहाँ एक विशेष बात उल्लेखनीय है कि उस समय अनेक प्रदेशों के मुख्यमन्त्रियों को प्रधानमन्त्री कहा जाता था। इसी कारण ब्रिटिश सरकार के जितने प्रतिनिधि मण्डल आए, वे सब अलग-अलग प्रदेशों के प्रधानमन्त्रियों से बात करते थे। प्रारम्भ में इस बातचीत में गोपीनाथ बोरदोलोई को इसलिए नहीं बुलाया गया, क्योंकि ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि उनके भारत समर्थक विचारों से भली प्रकार परिचित थे। ब्रिटिश सरकार की एक बड़ी चाल यह थी कि भारत के विभिन्न भागों को अलग-अलग बाँटने के लिए उन्होंने 'ग्रुपिंग सिस्टम' योजना बनाई। उन्होंने यह योजना कांग्रेस के प्रतिनिधियों के सामने रखी।


उन्हीं दिनों 6 जुलाई और 7 जुलाई को मुम्बई में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। कांग्रेस ने योजना पर विचार किया और दुःख की बात यह है कि कांग्रेसी नेता ब्रिटिश सरकार की चाल को समझ नहीं पाए और उन्होंने योजना के लिए स्वीकृति दे दी। गोपीनाथ बोरदोलोई इस योजना के सर्वथा विरुद्ध थे। उनका कहना था कि असम के सम्बन्ध में जो भी निर्णय किया जाएगा अथवा उसका जो भी संविधान बनाया जाएगा, उसका पूरा अधिकार केवल असम की विधानसभा और जनता को होगा। वे अपने इस निर्णय पर डटे रहे। उनकी इसी दूरदर्शिता के कारण असम इस षड़यंत्र का शिकार होने से बच सका। गोपीनाथ बोरदोलोई ने अपने देश के प्रति सच्ची निष्ठा के कारण भारतीय स्तर के नेताओं में इतना महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया था कि वे इनकी बात मानने को तैयार हुए। इस प्रकार असम भारत का अभिन्न अंग बना रहा। यही कारण है कि भारत और असम के लोग उनके इस महत्त्वपूर्ण कार्य को समझ सके। असम के लोग आज बड़े प्यार से गोपीनाथ बोरदोलोई को शेर-ए-असम के नाम से पुकारते हैं।

🪔 *निधन*

गोपीनाथ बोरदोलोई के नेतृत्व में असम प्रदेश में नवनिर्माण की पक्की आधारशिला रखी गई थी, इसलिए उन्हें 'आधुनिक असम का निर्माता' भी कहा जाता है। 5 अगस्त, 1950 ई. में जब वे 60 वर्ष के थे, तब उनका देहांत गुवाहाटी में हो गया। गोपीनाथ बोरदोलोई के प्रयत्नों से ही असम आज भारत का अभिन्न अंग है। ब्रिटिश सरकार ने उस क्षेत्र को अलग करने की योजना बनाई थी। उस समय कांग्रेस 'भारतीय स्वतंत्रता संग्राम' को नेतृत्व कर रही थी। कांग्रेस से सम्बद्ध वही एक ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने इसे भयंकर षड़यन्त्र समझा और कांग्रेस से इस पर जोर डालने को कहा। इसके अतिरिक्त असम में सरकार बनाने तथा उसकी उन्नति के लिए जो कार्य उन्होंने किए, अन्ततः भारत सरकार ने उन्हीं से प्रभावित होकर इन्हें 1999 में मरणोपरान्त भारत के सर्वोच्च सम्मान 'भारत रत्न' से सम्मानित किया।