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नीरजा भनोट*
*डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन*
हबीब उर रहमान लुधियानवी
पद्मभूषण ताराबाई मोडक
भारतरत्न प्रणव मुखर्जी
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन
राणा उदयसिंह
*राणा उदयसिंह*
*जन्म : 4 अगस्त 1522*
(चित्तौड़गढ़, राजस्थान)
*मृत्यु : 28 फ़रवरी 1572*
पिता- राणा साँगा, माता- कर्णवती
पत्नी : सात पत्नियाँ
संतान : 24 लड़के थे जिनमें प्रताप सिंह प्रमुख हैं जो बाद में महाराणा प्रताप कहलाए
उपाधि : महाराणा
राज्य सीमा : मेवाड़
शासन काल : 1537 - 1572 ई.
शा. अवधि : 35 वर्ष
धार्मिक मान्यता : हिंदू धर्म
राजधानी : उदयपुर
पूर्वाधिकारी : विक्रमादित्य सिंह
उत्तराधिकारी : महाराणा प्रताप
राजघराना : राजपूताना
वंश : सिसोदिया राजवंश
अन्य जानकारी : पन्ना धाय ने अपने पुत्र चंदन का बलिदान देकर ‘मेवाड़ के अभिशाप’ बने बनवीर से मेवाड़ के भविष्य के राणा उदयसिंह की प्राण रक्षा की थी और इन्हें सुरक्षित रूप में क़िले से निकालकर बाहर ले गयीं थीं।
राणा उदयसिंह मेवाड़ के राणा साँगा के पुत्र और राणा प्रताप के पिता थे। इनका जन्म इनके पिता के मरने के बाद हुआ था और तभी गुजरात के बहादुरशाह ने चित्तौड़ नष्ट कर दिया था। इनकी माता कर्णवती द्वारा हुमायूँ को राखीबंद भाई बनाने की बात इतिहास प्रसिद्ध है। मेवाड़ की ख्यातों में इनकी रक्षा की अनेक अलौकिक कहानियाँ कही गई हैं। उदयसिंह को कर्त्तव्यपरायण धाय पन्ना के साथ बलबीर से रक्षा के लिए जगह-जगह शरण लेनी पड़ी थी। उदयसिंह 1537 ई. में मेवाड़ के राणा हुए और कुछ ही दिनों के बाद अकबर ने मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ पर चढ़ाई की। हज़ारों मेवाड़ियों की मृत्यु के बाद जब लगा कि चित्तौड़गढ़ अब न बचेगा तब जयमल और पत्ता आदि वीरा के हाथ में उसे छोड़ उदयसिंह अरावली के घने जंगलों में चले गए। वहाँ उन्होंने नदी की बाढ़ रोक उदयसागर नामक सरोवर का निर्माण किया था। वहीं उदयसिंह ने अपनी नई राजधानी उदयपुर बसाई। चित्तौड़ के विध्वंस के चार वर्ष बाद उदयसिंह का देहांत हो गया।
♦️ *इतिहास से*
राणा संग्राम सिंह उपनाम राणा सांगा एक बहुत ही वीर शासक थे। परिस्थितियों ने उनकी मृत्यु के उपरांत उनके पुत्र कुंवर उदय सिंह को वीरमाता पन्ना धाय के संरक्षण में रहने के लिए विवश कर दिया। माता पन्नाधाय ने अपने पुत्र चंदन का बलिदान देकर ‘मेवाड़ के अभिशाप’ बने बनवीर से मेवाड़ के भविष्य के राणा उदय सिंह की प्राण रक्षा की और उसे सुरक्षित रूप में किले से निकालकर बाहर ले गयी। तब चित्तौड़ से काफ़ी दूर राणा उदय सिंह का पालन पोषण आशाशाह नाम के एक वैश्य के घर में हुआ। इतिहासकारों ने बताया है कि माता पन्नाधाय के बलिदान की देर सवेर जब चित्तौड़ के राजदरबार के सरदारों को पता चली तो उन्होंने बनवीर जैसे दुष्ट शासक से सत्ता छीनकर राणा सांगा के पुत्र राणा उदय सिंह को सौंपने की रणनीति बनानी आरंभ कर दी। उसी रणनीति के अंतर्गत राणा उदय सिंह को चित्तौड़ लाया गया। राणा के आगमन की सूचना जैसे ही बनवीर को मिली तो वह राजदरबार से निकलकर सदा के लिए भाग गया। इससे राणा उदय सिंह ने निष्कंटक राज्य करना आरंभ किया। यह घटना 1542 की है। यही वर्ष अकबर का जन्म का वर्ष भी है।
🌀 *राणा उदय सिंह की रानियाँ और संतान*
राणा उदय सिंह की मृत्यु 1572 में हुई थी। उस समय उनकी अवस्था 42 वर्ष थी और उनकी सात रानियों से उन्हें 24 लड़के थे। उनकी सबसे छोटी रानी का लड़का जगमल था, जिससे उन्हें असीम अनुराग था। मृत्यु के समय राणा उदय सिंह ने अपने इसी पुत्र को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था। लेकिन राज्य दरबार के अधिकांश सरदार लोग यह नहीं चाहते थे कि राणा उदय सिंह का उत्तराधिकारी जगमल जैसा अयोग्य राजकुमार बने। राणा उदय सिंह के काल में पहली बार सन 1566 में चढ़ाई की थी, जिसमें वह असफल रहा। इसके बाद दूसरी चढ़ाई सन 1567 में की गयी थी और वह इस किले पर अधिकार करने में इस बार सफल भी हो गया था। इसलिए राणा उदय सिंह की मृत्यु के समय उनके उत्तराधिकारी की अनिवार्य योग्यता चित्तौड़गढ़ को वापस लेने और अकबर जैसे शासक से युद्घ करने की चुनौती को स्वीकार करना था। राणा उदय सिंह के पुत्र जगमल में ऐसी योग्यता नहीं थी इसलिए राज्य दरबारियों ने उसे अपना राजा मानने से इंकार कर दिया।
अकबर से मुक़ाबला
1567 में जब चित्तौड़गढ़ को लेकर अकबर ने इस किले का दूसरी बार घेराव किया तो यहां राणा उदय सिंह की सूझबूझ काम आयी। अकबर की पहली चढ़ाई को राणा ने असफल कर दिया था। पर जब दूसरी बार चढ़ाई की गयी तो लगभग छह माह के इस घेरे में किले के भीतर के कुओं तक में पानी समाप्त होने लगा। किले के भीतर के लोगों की और सेना की स्थिति बड़ी ही दयनीय होने लगी। तब किले के रक्षकदल सेना के उच्च पदाधिकारियों और राज्य दरबारियों ने मिलकर राणा उदय सिंह से निवेदन किया कि राणा संग्राम सिंह के उत्तराधिकारी के रूप में आप ही हमारे पास हैं, इसलिए आपकी प्राण रक्षा इस समय आवश्यक है। अत: आप को किले से सुरक्षित निकालकर हम लोग शत्रु सेना पर अंतिम बलिदान के लिए निकल पड़ें। तब राणा उदय सिंह ने सारे राजकोष को सावधानी से निकाला और उसे साथ लेकर पीछे से अपने कुछ विश्वास आरक्षकों के साथ किले को छोड़कर निकल गये। अगले दिन अकबर की सेना के साथ भयंकर युद्घ करते हुए वीर राजपूतों ने अपना अंतिम बलिदान दिया। जब अनेकों वीरों की छाती पर पैर रखता हुआ अकबर किले में घुसा तो उसे शीघ्र ही पता चल गया कि वह युद्घ तो जीत गया है, लेकिन कूटनीति में हार गया है, किला उसका हो गया है परंतु किले का कोष राणा उदय सिंह लेकर चंपत हो गये हैं। अकबर झुंझलाकर रह गया। राणा उदय सिंह ने जिस प्रकार किले के बीजक को बाहर निकालने में सफलता प्राप्त की वह उनकी सूझबूझ और बहादुरी का ही प्रमाण है।
फलस्वरूप राणा उदय सिंह की अंतिम क्रिया करने के पश्चात् राज्य दरबारियों ने राणा जगमल को राजगद्दी से उतारकर महाराणा प्रताप को उसके स्थान पर बैठा दिया। इस प्रकार एक मौन क्रांति हुई और मेवाड़ का शासक राणा उदय सिंह की इच्छा से न बनकर दरबारियों की इच्छा से महाराणा प्रताप बने। इस घटना को इसी रूप में अधिकांश इतिहासकारों ने उल्लेखित किया है। इसी घटना से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि महाराणा प्रताप और उनके पिता राणा उदय सिंह के बीच के संबंध अधिक सौहार्दपूर्ण नहीं थे। महाराणा प्रताप ने जब अपने पिता राणा उदय सिंह के द्वारा अपने छोटे भाई जगमल को अपना उत्तराधिकारी बनाते देखा तो कहा जाता है कि उस समय उन्होंने सन्न्यास लेने का मन बना लिया था। लेकिन राज्यदरबारियों की कृपा से उन्हें सत्ता मिल गयी और वह मेवाड़ाधिपति कहलाए। महाराणा प्रताप मेवाड़ के अधिपति बन गये तो उनके मानस को समझकर कई कवियों और लेखकों ने महाराणा संग्राम सिंह और महाराणा प्रताप के बीच खड़े राणा उदय सिंह की उपेक्षा करनी आरंभ कर दी। जिससे राणा उदय सिंह के साथ कई प्रकार के आरोप मढ़ दिये गये। जिससे इतिहास में उन्हें एक विलासी और कायर शासक के रूप में निरूपति किया गया है।
सदाशिवराव भाऊ
*सदाशिवराव भाऊ*
*जन्म : 4 आॕगष्ट 1730*
*वीरगती : 14 जानेवारी 1761*
सदाशिवराव भाऊ मराठा साम्राज्यातील एक सेनापती. त्यांनी पानिपतच्या तिसऱ्या लढाईत मराठ्यांचे नेतृत्व केले. नानासाहेब पेशवे यांचे चुलतभाऊ. त्यांचा जन्म पुणे येथे झाला. त्यांचे संपूर्ण नाव सदाशिव अनंत भट. परंतु ‘सदाशिवराव भाऊʼ म्हणून ते सर्व परिचित होते.
पहिल्या बाजीराव पेशव्यांचे बंधू अनंत बाळाजी भट तथा चिमाजी आप्पा यांचा हा मुलगा. त्यांच्या आईचे नाव रखमाबाई. सदाशिवराव २५ दिवसांचे असतानाच त्यांच्या आईचे निधन झाले. त्यामुळे आजी राधाबाईसाहेब यांनीच त्यांचे संगोपन केले. पहिल्या बाजीराव पेशव्यांसोबत चिमाजी आप्पा नेहमीच मोहिमेवर असत. त्यामुळे लहानग्या सदशिवाकडे लक्ष द्यायला त्यांना पुरेसा वेळ मिळत नसे. दौलतीचे शिक्षण घेण्यासाठी ते शाहू महाराजांकडे दाखल झाले होते. तलवारबाजीमध्ये ते अतिशय तरबेज होते. २० मार्च १७३६ मध्ये त्यांचे मौंजीबंधन झाले, तर २५ जानेवारी १७४० मध्ये त्यांचे लग्न उमाबाई यांच्याशी झाले. त्यांचे दुसरे लग्न भिकाजी नाईक कोल्हटकर (पेण) यांच्या पार्वतीबाई नावाच्या मुलीशी झाले. सदाशिवराव भाऊ यांच्या ठायी मुत्सद्दीपणा, समयसूचकता व शौर्य इत्यादी गुण होते. पेशवाईच्या अंतर्गत कारभारात रामचंद्रबाबा शेणवी यांच्या साहाय्याने त्यांनी खूप सुधारणा केल्या.
सदाशिवराव भाऊ यांचा दक्षिणेतील मोहिमांमधील सहभाग महत्त्वपूर्ण आहे. कृष्णा तुंगभद्रा या नद्यांमधील ठाणी देशमुखांनी उठवली होती. ती परत घेण्याकरता ते तिकडे गेले. इ. स. १७४७ मध्ये दक्षिणेतील कोप्पळ जवळील बहादुरबंदी हा किल्ला त्यांनी घेतला.
परशुराम त्रिंबक प्रतिनिधी व त्यांचा मुतालिक यमाजी शिवदेव यांचे बंड मोडण्यासाठी छ. रामराजांना बरोबर घेऊन सदाशिवराव भाऊ सांगोल्याच्या स्वारीवर गेले. तेथील बंड मोडून छ. रामराजांकडून त्यांनी मराठी राज्याची कायमची पूर्ण मुखत्यारी लिहून घेतली.
सदाशिवराव भाऊंनी आपला दिवाण रामचंद्रबाबा शेणवी यांच्या सांगण्यावरून नानासाहेब पेशवे यांच्याकडे दिवाणगिरीची मागणी केली. परंतु महाजीपंत पुरंदरे यांना त्या जागेवरून कमी करण्याचा पेशव्यांचा मानस नसल्याने भाऊंनी कोल्हापूरकरांची पेशवाई स्वीकारली; पण भावाभावांत तंटा लागू नये म्हणून महादजीपंत यांनी आपल्या जागेचा राजीनामा दिला आणि भाऊ पुण्याच्या पेशव्यांचे दिवाण झाले.
मे १७५२ मध्ये दिल्लीच्या बादशहाने अब्दाली व रोहिले यांच्यापासून मराठ्यांनी बादशाहीचे संरक्षण करावे म्हणून मराठ्यांशी करार केला. यामुळेच रघुनाथ दादासारखे लोक अटक, पेशावरपर्यंत जाऊन अफगाणांचा बंदोबस्त करून आले होते. रघुनाथराव तेथून माघारी फिरताच अब्दाली पुन्हा हिंदुस्थानवर चालून आला. शिंदे व होळकर यांच्या आपसांतील वैरामुळे अब्दालीने मराठ्यांचा पराभव केला. यामध्ये दिल्लीजवळ बुराडी घाटावर दत्ताजी शिंदे धारातीर्थ पडले. ती बातमी महाराष्ट्रात येण्यास महिना लागला. याच दरम्यान भाऊंनी उदगीरच्या लढाईत निजाम अलीचा पराभव करून साठ लाख उत्पन्नाचा मुलूख मराठी राज्याला जोडला. या युद्धातील यशामुळे नानासाहेब पेशवे यांनी अब्दालीचा बिमोड करण्यासाठी उत्तर हिंदुस्थानावरच्या मोहिमेस सदाशिवराव भाऊंची रवानगी केली. मराठी सैन्य पटदूरास एकत्र आले. तेथूनच १४ मार्च १७६० मध्ये मराठी फौजा उत्तरेकडे निघाल्या. भाऊंच्या सैन्यात यात्रेकरू, बाजारबुणगे यांचा भरणा खूप होता. भाऊंनी सर्व सरदारांचे रुसवे काढून सर्वांना कामाला लावले. बुऱ्हाणपूर, भोपाळ, सीरोंज, ओर्छा, नरवर, ग्वाल्हेर या मार्गाने भाऊ दिल्लीकडे निघाले. वाटेत गंभीर नदी ओलांडण्यास भाऊंना खूप दिवस लागले. याच दरम्यान अब्दाली गंगा-यमुनेच्या दुआबात होता. भाऊंना उत्तरेतील संस्थानिकांना आपल्या बाजूने वळवण्यात अपयश आले. यमुनेच्या पाण्याला उतार नसल्याने प्रथम दिल्ली काबीज करून नंतर अब्दालीस कोंडावा असे ठरले. मथुरेत भाऊंना सुरजमल येऊन मिळाला. पुढे मात्र सुरजमलने तटस्थ भूमिका घेतली.
२२ जुलै १७६० रोजी दिल्ली काबीज करून भाऊंनी दिल्लीचा बंदोबस्त नारोशंकर यांच्याकडे सोपविला. यावेळी भाऊंनी अब्दालीचे तहाचे बोलणे धुडकावले. दिल्ली बादशहा शाह आलम याने युद्धाचा निर्णय लागल्याशिवाय दिल्लीत येण्यास नकार दिला. त्यामुळे भाऊंनी अली गोहरचा मुलगा जवानबख्त यास दिल्लीचा युवराज केले.
दिल्लीच्या विजयानंतर भाऊंनी आपला मोर्चा दिल्लीपासून उत्तरेस पाऊणशे मैल यमुनेच्या काठी असलेल्या कुंजपुराकडे वळवला. येथून अब्दालीला रसदेचा पुरवठा होत होता. १७ ऑक्टोबर १७६० ला भाऊंनी इब्राहिमखानाकरवी तोफा डागून कुंजपुराचा किल्ला फोडला. तेव्हा कित्येक खंडी गहू मराठ्यांच्या हाती पडला. दत्ताजी शिंदे यांचे मारेकरी अब्दुल समतखान व कुतुबशहा हे कुंजपुरा येथे जिवंत सापडले. त्यांना मारून त्यांची मस्तके भाऊंनी अब्दालीस पाठवून दिली. यामुळे अब्दालीने चिडून जाऊन यमुनापार होण्याची खटपट सुरू केली. भाऊंनी कुंजपुरा घेऊन ते ससैन्य कुरुक्षेत्रावर आले. कित्येक दिवस तिथे मुक्काम करून मराठी फौजा दिल्लीच्या रोखाने निघाल्या. याच दरम्यान बागपताजवळ गौरीपुरापासून अब्दाली यमुनापार होऊन दिल्लीच्या वाटेवर येऊन बसला. सदाशिवराव भाऊ अब्दालीवर गणोरपर्यंत चालून गेले. पानिपतगाव पाठीशी ठेवून भाऊंनी अब्दालीशी झुंज देण्याचा निर्णय घेतला. नोव्हेंबर मध्यापासून ते जानेवारीपर्यंत हे युद्ध झाले.
पानिपतवर मराठी सैन्य व अब्दालीचे सैन्य एकमेकांसमोर उभे ठाकले. रोज त्यांच्या छोट्या-मोठ्या चकमकी चालू होत्या. मात्र बळवंतराव मेहेंदळे, गोविंदपंत बुंदेले, दादाजी पराशर यांसारखी मंडळी पडल्यानंतर भाऊंचा धीर खचला. अशातच मराठी सैन्याची अन्नापासून दुर्दशा होऊ लागली. यावर भाऊंनी शत्रूवर तुटून पडून शत्रूची कोंडी फोडून दिल्लीच्या रोखाने जाण्याचा विचार केला. भाऊंनी इब्राहिमखान गारदी याच्या तोफांचा वापर करून गोलाची लढाई द्यायची ठरवले. त्याप्रमाणे १४ जानेवारी १७६१ या दिवशी सकाळी युद्धास प्रारंभ झाला. यावेळी मराठी पूर्वाभिमुख होते, तर अब्दालीचे सैन्य पश्चिमाभिमुख होते. अब्दालीच्या मागील बाजूस यमुना होती. हे युद्ध भल्या सकाळी आठ वाजता सुरू झाले. दुपारी तीनला विश्वासराव यांना गोळी लागून ते ठार झाल्याने मराठी सैन्यात एकच गोंधळ उडाला. मराठी सैन्यात पळापळ सुरू झाली. विश्वासराव पडल्यावर देहभान विसरून सदाशिवराव भाऊ शत्रूसैन्यात शिरले. नाना फडणीस यांनी आपल्या आत्मचरित्रात भाऊ गर्दीत नाहीसा होईपर्यंत आपण त्यांच्याजवळ होतो, असे लिहिले आहे. पानिपतच्या रणभूमीवर दुसऱ्या दिवशी भाऊंचे प्रेत शोधून काढून काशीराजाने त्यांच्या प्रेताला अग्नी दिला.
सदाशिवराव भाऊ पानिपतच्या युद्धात मारले गेले होते, पण तदनंतर त्यांचे अनेक तोतये महाराष्ट्रात आले. पानिपत युद्धातून वाचून ते कोठेतरी गुप्तपणे राहिले असावेत, अशी सामान्यजनांची समजूत होती. खुद्द सदाशिवराव भाऊ यांच्या पत्नी पार्वतीबाई यांनीही अशी समजूत मनाशी बाळगली होती. त्यामुळे त्या सारे सौभाग्यालंकार अंगावर परिधान करीत.
फिरोजशहा मेहता
*फिरोजशहा मेहता*
*जन्म : ४ ऑगस्ट १८४५ मुंबई*
*मृत्यू : ५ नोव्हेंबर १९१५*
पूर्ण नाव : फिरोजशहा मेहरवानजी मेहता.
वडील :मेहरवानजी
जन्मस्थान : मुंबई
शिक्षण : इ. स. १८६४ मध्ये मुंबईच्या एल्फिन्स्टन महाविद्यालयातून बी. ए. आणि सहा महिन्यानंतर एम. ए. ची परीक्षा उत्तीर्ण. इ. स. १८६८ मध्ये बॅरिस्टरची पदवी संपादन केली.
ओळख : मुंबईचा सिंह भारतातील सर्वोत्तम वादपटू मुंबईचा चारवेळा महापौर
🙍🏻♂️ *फिरोजशहा मेहता बालपण आणि शिक्षण*
फिरोजशहा मेहता यांचा जन्म ४ ऑगस्ट १८४५ मध्ये मुंबई येथे झाला. ते एका पारशी कुटुंबात जन्मले होते त्यांच्या वडिलांचे नाव मेहरवानजी असे होते .
सुखवस्तू पारशी कुटुंबात जन्मलेले फिरोजशहा १८६४ मध्ये पदवीधर झाले. १८६५ मध्ये रुस्तमजी जमशेदजी जिजिभॉय यांनी पाच भारतीयांना इंग्लंडमध्ये जाऊन बॅरिस्टर होण्यासाठी दीड लाख रुपयांची मदत देण्याचे जाहीर केले. या पाच जणांत फिरोजशहा होते. पण या मदतीचा फायदा त्यांना फार काळ मिळाला नाही. रुस्तमजी यांना व्यापारात मोठी खोट आली आणि फिरोजशहा यांना मिळणारी मदत बंद झाली.
इंग्लंडमध्ये फिरोजशहा चार वर्ष होते. त्या काळी, दादाभाई नौरोजी यांच्याबरोबरचा परिचय त्यांना फार उपयुक्त ठरला. ब्रिटिश वसाहतवादामुळे भारतीय भांडवलाचे (नैसर्गिक साधनसामग्री आणि श्रमाचे) कसे शोषण होते, अशी वैचारिक मांडणी केली.
फिरोजशहा हे स्वत:ला पूर्णपणे आपण भारताचे पुत्र आहोत, असे मानत. पारशी समाज हा परकीय असून या समाजाला भारताच्या जडणघडणीत स्थान नाही, ही कल्पना त्यांनी कधीच बाळगली नाही.
एका विशिष्ट प्रसंगी त्यांच्या काही मित्रांनी वेगळे मत व्यक्त करण्याचा प्रयत्न केला, तेव्हा फिरोजशहा यांनी ऐतिहासिक निवेदन करून मित्रांच्या निदर्शनास त्यांची चूक आणून दिली : ‘पारशी समाजाने आपले अस्तित्व आणि हितसंबंध या देशातील इतर लोकांपेक्षा वेगळे आहेत, असे समजणे केवळ स्वार्थी व संकुचितच ठरणार नाही, तर आत्मघातकी ठरेल.
आपला समाज लहान असला, तरी समंजस व कल्पक आहे. सबब, आपण या देशातील इतरांपासून अलग न राहता, समान हितसंबंध आणि परस्पर सहकार्याच्या दृष्टीने पाठपुरावा करायला हवा. तसे झाले नाही, तर या देशाच्या उभारणीत आपली रास्त भागीदारी राहणार नाही. मी प्रथम भारतीय व नंतर पारशी आहे.’
मुंबई विद्यापीठाच्या सिनेटमध्येही फिरोजशहा यांनी बरेच कार्य केले. तरुणपणापासूनच शिक्षण हा त्यांचा आवडता विषय होता. मुंबई विद्यापीठाशिवाय प्रांतिक कायदे मंडळे आणि मध्यवर्ती कायदे मंडळांमार्फत सरकारने शिक्षणावर जास्त खर्च केला पाहिजे, यावर फिरोजशाह यांचा भर होता.
फिरोजशहा मेहता हे मला हिमालयाप्रमाणे, लोकमान्य हे महासागराप्रमाणे आणि गोपाळकृष्ण गोखले हे गंगा नदीप्रमाणे भासले,’ असे महात्मा गांधींनी आत्मचरित्रात म्हटले आहे.
फिरोजशहा यांचा सर्वात मोठा गुण म्हणजे निर्भयता. एकदा त्यांनी एखाद्या प्रश्नाबद्दल मत बनविले आणि त्यानुसार धोरण आखले की, ते ठामपणे त्याचा पुरस्कार करीत आणि त्यापासून कोणीही त्यांना परावृत्त करू शकत नसे.’ ..वैचारिक निष्ठा बावनकशी असल्याखेरीज हे साध्य होऊ शकत नाही!
♨️ *फिरोजशहा मेहता कार्य*
इ. स. १८६८ मध्ये मुंबई उच्च न्यायालयात ने वकिली करू लागले.
इ.स १८७२ मध्ये ते मुबई महापालिकेचे सदस्य बनले. तीन वेळा ते अध्यक्षही बनले. त्याचे ३८ वर्षे मुंबई महापालिकेवर वर्चस्व होते.
इ. स. १८८५ मध्ये ‘बॉम्बे प्रेसीडेंसी असोसिएशन’ ची स्थापना यांनी केली ते त्याचे सचिव झाले.
इ. स. १८८६ मध्ये ‘मुंबई लेजिस्लेटिव्ह काउंसिल’ चे ते सदस्य बनले.
इ. स. १८८९ मध्ये मुंबई विद्यापीठाच्या सिनेटचे सदस्य झाले तसेच मुंबईमध्ये भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेसच्या स्वागत समितीचे अध्यक्ष झाले.
इ.स. १८९० (कलकता) व १९०१ (लाहोर) येथील भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेसच्या अधिवेशनाचे त्यांनी अध्यक्षस्थान भूषविले,
इ.स. १८९२ मध्ये पाचव्या मुंबई प्रांतिक सम्मेलनाचे त्यांनी अध्यक्ष पद भूषविले.
इ. स. १९११ मध्ये ‘सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया’ च्या स्थापनेत त्यांचे महत्वपूर्ण योगदान होते.
इ.स. १९१३ मध्ये ‘द बॉम्बे क्रॉनिकल’ नावाच्या वृत्तपत्राचे प्रकाशन त्यांनी केले.
गोपीनाथ बोरदोलोई
*भारतरत्न*
*गोपीनाथ बोरदोलोई*
*जन्म : 10 जून 1890*
(रोहा, ज़िला नौगाँव, असम)
*(मृत्यु : 5 अगस्त 1950)*
( गुवाहाटी, असम)
अभिभावक : बुद्धेश्वर बोरदोलोई तथा प्रानेश्वरी
नागरिकता : भारतीय
प्रसिद्धि : राजनीतिज्ञ
पार्टी : कांग्रेस
पद : मुख्यमंत्री
शिक्षा : बी.ए., एम.ए., क़ानून की डिग्री
विद्यालय : कलकत्ता विश्वविद्यालय
भाषा हिन्दी, अंग्रेज़ी
पुरस्कार-उपाधि : 'भारत रत्न' (1999 ई.)
विशेष योगदान : 'कामरूप अकादमी' (गौहाटी), 'बरुआ कॉलेज', 'गौहाटी विश्वविद्यालय' और 'असम मेडिकल कॉलेज' आदि की स्थापना इन्हीं के प्रयासों द्वारा हुई थी।
अन्य जानकारी : गोपीनाथ बोरदोलोई के प्रयत्नों से ही आज असम भारत का अभिन्न अंग है। असम के लोग उन्हें बड़े प्यार से शेर-ए-असम के नाम से याद करते हैं।
गोपीनाथ बोरदोलोई भारत के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और असम के प्रथम मुख्यमंत्री थे। इन्हें 'आधुनिक असम का निर्माता' भी कहा गया है। इन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन में भी सक्रिय रूप से भाग लिया था। 1941 ई. में 'व्यक्तिगत सत्याग्रह' में भाग लेने के कारण इन्हें कारावास जाना पड़ा था। वर्ष 1942 ई. में 'भारत छोड़ो आन्दोलन' में भागीदारी के कारण गोपीनाथ बोरदोलाई को पुन: सज़ा हुई। गोपीनाथ ने असम के विकास के लिए अथक प्रयास किये थे। उन्होंने राज्य के औद्योगीकरण पर विशेष बल दिया और गौहाटी में कई विश्वविद्यालयों की स्थापना करवायी। असम के लिए उन्होंने जो उपयोगी कार्य किए, उनके कारण वहाँ की जनता ने उन्हें ‘लोकप्रिय’ की उपाधि दी थी। वस्तुतः असम के लिए उन्होंने जो कुछ भी किया, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।
💁🏻♂️ *जन्म एवं शिक्षा*
गोपीनाथ बोरदोलोई प्रगतिवादी विचारों वाले व्यक्ति थे तथा असम का आधुनिकीकरण करना चाहते थे। गोपीनाथ बोरदोलाई का जन्म 10 जून, 1890 ई. को असम में नौगाँव ज़िले के 'रोहा' नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता का नाम बुद्धेश्वर बोरदोलोई तथा माता का नाम प्रानेश्वरी बोरदोलोई था। इनके ब्राह्मण पूर्वज उत्तर प्रदेश से जाकर असम में बस गए थे। जब ये मात्र 12 साल के ही थे, तभी इनकी माता का देहांत हो गया था। गोपीनाथ ने 1907 में मैट्रिक की परीक्षा और 1909 में इण्टरमीडिएट की परीक्षा गुवाहाटी के 'कॉटन कॉलेज' से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वे कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) चले गए। कलकत्ता में बी.ए. करने के बाद 1914 में उन्होंने एम.ए. परीक्षा उत्तीर्ण की। तीन साल उन्होंने क़ानून की शिक्षा ग्रहण करने के बाद गुवाहाटी लौटने का निश्चय किया।
💥 *क्रांतिकारी जीवन में प्रवेश*
गुवाहाटी लौटने पर गोपीनाथजी 'सोनाराम हाईस्कूल' के प्रधानाध्यापक पद पर कार्य करने लगे। 1917 में उन्होंने वकालत शुरू की। यह वह जमाना था, जब राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने देश की आजादी के लिए अहिंसा और 'असहयोग आन्दोलन' प्रारम्भ किया था। अनेक नेताओं ने उस समय गाँधीजी के आदेश के अनुरूप सरकारी नौकरियाँ छोड दी थीं और 'असहयोग आन्दोलन' में कूद पडे थे। गोपीनाथ बोरदोलोई भी बिना किसी हिचक से अपनी चलती हुई वकालत को छोडकर स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। इस समय उनके साथ असम के अन्य नेता भी स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने लगे। इन नेताओं में प्रमुख थे- नवीनचन्द्र बोरदोलोई, चन्द्रनाथ शर्मा, कुलाधार चलिहा, तरुणराम फूकन आदि। वकालत छोडने के बाद के बाद सबसे पहले गोपीनाथजी ने दक्षिण कामरूप और गोआलपाड़ा ज़िले का पैदल दौरा किया। इस दौरे में तरुणराम फूकन उनके साथ थे। उन्होंने जनता को संदेश दिया कि- "वे विदेशी माल का बहिष्कार करें, अंग्रेज़ों के काम में असहयोग करें और विदेशी वस्त्रों के स्थान पर खद्दर धारण करें। विदेशी वस्त्रों की होली के साथ-साथ खद्दर के लिए चरखे और सूत कातें।" इसका परिणाम यह हुआ कि गोपीनाथ बोरदोलोई और उनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें एक वर्ष कैद की सजा दी गई। उसके बाद से उन्हने अपने आपको पूरी तरह देश के 'स्वतन्त्रता संग्राम' के लिए समर्पित कर दिया।
🔮 *कांग्रेस सदस्य*
1926 में गोपीनाथ बोरदोलोई ने सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया। उन्होंने कांग्रेस के 41वें अधिवेशन में भाग लेने के बाद जहाँ अपनी लोकप्रियता में वृद्धि की, वहाँ वे सामाजिक जीवन से भी अधिक जुडते गए। 1932 में वे5 गुवाहाटी के नगरपालिका बोर्ड के अध्यक्ष चुने गए। उस समय असम की स्थिति एक पिछडे प्रदेश की थी। न तो उसका अपना पृथक् उच्च न्यायालय था, न ही कोई विश्वविद्यालय। गोपीनाथजी के प्रयत्नों से यह दोनों बातें सम्भव हो सकीं। 1939 में जब कांग्रेस ने प्रदेश विधान सभाओं के लिए चुनाव में भाग लेने को निश्चय किया तो गोपीनाथ बोरदोलोई असम से कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में विजयी हुए और मुख्यमंत्री बने। उसके बाद से वे पूरी तरह से असम की जनता के लिए समर्पित हो गए। वे "शेर-ए-असम" ही नहीं थे, "भारत-रत्न" भी थे।
🏛️ *विश्वविद्यालयों की स्थापना*
1929 ई. में सरकारी विद्यालयों में राजनीतिक गतिविधियों पर रोक के संबंध में सरकार का आदेश निकला, तो गोपीनाथ बोरदोलोई ने ऐसे विद्यालयों के बहिष्कार का आंदोलन चलाया। परंतु वे शिक्षा के महत्त्व को समझते थे। उनके प्रयत्न से गौहाटी में 'कामरूप अकादमी' और 'बरुआ कॉलेज' की स्थापना हुई। आगे चलकर जब उन्होंने प्रशासन का दायित्व संभाला तो 'गौहाटी विश्वविद्यालय', 'असम मेडिकल कॉलेज' तथा अनेक तकनीकी संस्थाओं की स्थापना में सक्रिय सहयोग दिया।
⛓️ *जेल यात्रा*
1938 ई. में असम में जो पहला लोकप्रिय मंत्रिमंडल बना, उसके मुख्यमंत्री गोपीनाथ बोरदोलोई ही थे। इस बीच उन्होंने असम में अफ़ीम पर प्रतिबंध लगाने का ऐतिहासिक काम किया। विश्वयुद्ध आरंभ होने पर उन्होंने भी इस्तीफ़ा दे दिया और जेल की सज़ा भोगी। युद्ध की समाप्ति के बाद वे दुबारा असम के मुख्यमंत्री बने। स्वतंत्रता के बाद का यह समय नवनिर्माण का काल था।
🗺️ *असम निर्माता*
भारत को स्वतन्त्रता देने से पूर्व जिस समय भारत के विभाजन की बात चल रही थी, उस समय असम में गोपीनाथ बोरदोलोई के हाथ में सत्ता थी। ब्रिटिश सरकार की योजना से ऐसा प्रतीत होता था कि असम प्रदेश को कुछ भागों में बाँट कर पूर्वी पाकिस्तान (अब बंगलादेश) में सम्मिलित कर दिया जाएगा। गोपीनाथ और उनके साथी यदि समय रहते सजग न होते तो असम आज बंगलादेश को हिस्सा होता। 'भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम' से सम्बन्धित व्यक्ति जानते है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के समय ब्रिटिश सरकार ने भारत की इच्छा के विपरीत उसे युद्ध का भागीदार बना दिया था। उस समय गांधीजी ने जब असहयोग को नारा दिया तो गोपीनाथ बोरदोलोई के मन्त्रिमण्डल ने त्याग पत्र दे दिया था। विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद 1946 में असम में कांग्रेस की भारी बहुमत से जीत हुई और गोपीनाथ बोरदोलोई मुख्यमंत्री बने। यहाँ एक विशेष बात उल्लेखनीय है कि उस समय अनेक प्रदेशों के मुख्यमन्त्रियों को प्रधानमन्त्री कहा जाता था। इसी कारण ब्रिटिश सरकार के जितने प्रतिनिधि मण्डल आए, वे सब अलग-अलग प्रदेशों के प्रधानमन्त्रियों से बात करते थे। प्रारम्भ में इस बातचीत में गोपीनाथ बोरदोलोई को इसलिए नहीं बुलाया गया, क्योंकि ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि उनके भारत समर्थक विचारों से भली प्रकार परिचित थे। ब्रिटिश सरकार की एक बड़ी चाल यह थी कि भारत के विभिन्न भागों को अलग-अलग बाँटने के लिए उन्होंने 'ग्रुपिंग सिस्टम' योजना बनाई। उन्होंने यह योजना कांग्रेस के प्रतिनिधियों के सामने रखी।
उन्हीं दिनों 6 जुलाई और 7 जुलाई को मुम्बई में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। कांग्रेस ने योजना पर विचार किया और दुःख की बात यह है कि कांग्रेसी नेता ब्रिटिश सरकार की चाल को समझ नहीं पाए और उन्होंने योजना के लिए स्वीकृति दे दी। गोपीनाथ बोरदोलोई इस योजना के सर्वथा विरुद्ध थे। उनका कहना था कि असम के सम्बन्ध में जो भी निर्णय किया जाएगा अथवा उसका जो भी संविधान बनाया जाएगा, उसका पूरा अधिकार केवल असम की विधानसभा और जनता को होगा। वे अपने इस निर्णय पर डटे रहे। उनकी इसी दूरदर्शिता के कारण असम इस षड़यंत्र का शिकार होने से बच सका। गोपीनाथ बोरदोलोई ने अपने देश के प्रति सच्ची निष्ठा के कारण भारतीय स्तर के नेताओं में इतना महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया था कि वे इनकी बात मानने को तैयार हुए। इस प्रकार असम भारत का अभिन्न अंग बना रहा। यही कारण है कि भारत और असम के लोग उनके इस महत्त्वपूर्ण कार्य को समझ सके। असम के लोग आज बड़े प्यार से गोपीनाथ बोरदोलोई को शेर-ए-असम के नाम से पुकारते हैं।
🪔 *निधन*
गोपीनाथ बोरदोलोई के नेतृत्व में असम प्रदेश में नवनिर्माण की पक्की आधारशिला रखी गई थी, इसलिए उन्हें 'आधुनिक असम का निर्माता' भी कहा जाता है। 5 अगस्त, 1950 ई. में जब वे 60 वर्ष के थे, तब उनका देहांत गुवाहाटी में हो गया। गोपीनाथ बोरदोलोई के प्रयत्नों से ही असम आज भारत का अभिन्न अंग है। ब्रिटिश सरकार ने उस क्षेत्र को अलग करने की योजना बनाई थी। उस समय कांग्रेस 'भारतीय स्वतंत्रता संग्राम' को नेतृत्व कर रही थी। कांग्रेस से सम्बद्ध वही एक ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने इसे भयंकर षड़यन्त्र समझा और कांग्रेस से इस पर जोर डालने को कहा। इसके अतिरिक्त असम में सरकार बनाने तथा उसकी उन्नति के लिए जो कार्य उन्होंने किए, अन्ततः भारत सरकार ने उन्हीं से प्रभावित होकर इन्हें 1999 में मरणोपरान्त भारत के सर्वोच्च सम्मान 'भारत रत्न' से सम्मानित किया।